बिहार की राजनीति में नीतीश भाजपा के लिए ज़रूरी और भाजपा के साथ रहना उनकी मजबूरी क्यों?

Bihar Election 2020: साल 2005 से 2010 के बीच नीतीश कुमार ने अति पिछड़ी जातियों के लिए पंचायत में आरक्षण और गैर पासवान दलित के लिए महादलित वर्ग बनाकर चुनाव का पूरा गणित बदल डाला

बिहार की राजनीति में नीतीश भाजपा के लिए ज़रूरी और भाजपा के साथ रहना उनकी मजबूरी क्यों?

2020 Bihar Assembly Electio: बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा (फाइल फोटो).

पटना:

Bihar Election 2020: बिहार में सत्तारूढ़ एनडीए (NDA) ने रविवार से विधिवत रूप से अपना प्रचार अभियान शुरू कर दिया. जहां भाजपा (BJP) के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा (JP Nadda) ने गया (Gaya) के गांधी मैदान में प्रचार का आगाज करते हुए कहा कि सारा एनडीए कटिबद्ध है कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को मुख्यमंत्री बनाएंगे क्योंकि जैसे मोदी (Modi) हैं तो मुमकिन है, वैसे ही नीतीश कुमार हैं तो बिहार आगे बढ़ेगा. वहीं नीतीश कुमार अपने चुनावी अभियान की शुरुआत सोमवार को दो दिवसीय डिजिटल रैली के माध्यम से करेंगे. वे 35 विधानसभा क्षेत्रों के लोगों को संबोधित करेंगे.

अभी तक दोनों दलों के नेताओं के तेवर से लग रहा है कि वे दिल्ली में एनडीए की सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान के तेवर को बहुत ज़्यादा तूल ना देकर अब संयुक्त प्रचार कर अपने-अपने उम्मीदवारों को जिताने पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. लेकिन बिहार भाजपा के नेता हों या जनता दल के, उनका दावा है कि जीत आख़िरकार एनडीए की होनी तय है क्योंकि उनके आधारभूत वोटर में कोई कन्फ़्यूज़न नहीं है. और चिराग पासवान का प्रभाव अपनी जाति के वोटरों पर हो सकता है लेकिन ये भी सच है कि नीतीश कुमार को इस पासवान जाति के वोटरों का विरोध हमेशा विधानसभा चुनावों में झेलना पड़ा है. लेकिन दोनों दलों के नेता मानते हैं कि जहां नीतीश, भाजपा के लिए ज़रूरी हैं वहीं नीतीश कुमार के लिए भी भाजपा का साथ कई कारणों से मजबूरी है.

आखिर नीतीश कुमार का साथ भाजपा के लिए क्यों ज़रूरी है? इसके लिए आपको पिछले विधानसभा चुनाव का परिणाम देखना होगा जब रामविलास पासवान जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश मल्ला का समर्थन नरेंद्र मोदी के आक्रामक प्रचार और BJP के पूरे चुनाव तंत्र के बावजूद भारतीय जनता पार्टी मात्र 53 सीटों पर विजय प्राप्त कर सकी. ये बात अलग है कि उसका वोट प्रतिशत 24.4 इस आधार पर हो गया क्योंकि उसने 157 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. वहीं नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल ने जो 101-101 सीटें लड़ीं उसमें से 71 और 80 सीटें जीतने में कामयाबी पाई जबकि उनका वोट का प्रतिशत 16.8 और 18.4 रहा. इनके साथ महागठबंधन में साथ कांग्रेस ने 41 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. उसके 27 उम्मीदवार जीते जबकि उसका वोट का प्रतिशत 6.7 प्रतिशत रहा. इस चुनाव से भाजपा के नीति नियंत्रक के मन में इस बात को लेकर संशय नहीं रहा कि त्रिकोणीय संघर्ष में बिना नीतीश उनकी दाल नहीं गलने वाली. क्योंकि लोक जनशक्ति को उन्होंने 42 सीटें दीं तो ज़रूर लेकिन वो जीती मात्र दो सीटों पर और उसका वोट का प्रतिशत मात्र 4.8 प्रतिशत रहा.

वहीं भाजपा का साथ नीतीश कुमार के लिए क्यों मजबूरी है? इसका पहला उदाहरण 2014 के लोकसभा चुनाव का परिणाम है जब नीतीश वामपंथी दल के साथ मिलकर चुनाव मैदान में गए और 40 लोकसभा सीटों में से मात्र दो सीटों पर जीते. जबकि भाजपा का पासवान, कुशवाहा के साथ तालमेल था और वो 31 सीटों पर जीती.

जब-जब नीतीश भाजपा के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़े, जैसे 2010 में 141 सीटों पर उन्होंने अपने उम्मीदवार उतारे थे, 115 सीटों पर उनको विजय प्राप्त हुई थी और उनका वोट का प्रतिशत था 22.58 प्रतिशत रहा था. भाजपा ने उस चुनाव में 102 उम्मीदवार मैदान में उतारे और 91 सीटों पर विजय प्राप्त की थी. उसका वोटों का प्रतिशत था 16.49 प्रतिशत. जबकि इस चुनाव में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी लालू यादव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए उतरी और उसके 75 में से 3 उम्मीदवार विधायक बने. उसका वोट का प्रतिशत था 6.74 प्रतिशत रहा था. राष्ट्रीय जनता दल के 168 में से मात्र  22 उम्मीदवार जीते थे और वोट का प्रतिशत 18.84 था.

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इसी तरह नीतीश कुमार को चेहरा बनाकर जब पहली बार नवंबर 2005 के चुनाव में एनडीए उतरी तब नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड के 88 उम्मीदवार जीते  थे और भाजपा के 55. जबकि नीतीश की पार्टी के वोटों का प्रतिशत था 20.46. और भाजपा को 15.65 प्रतिशत वोट मिले थे. उनकी तुलना में लालू यादव की पार्टी जिसको 54 सीटों पर विजय प्राप्त हुई थी उसे 23.35 प्रतिशत वोट मिले थे. लेकिन उसका तालमेल किसी दल के साथ नहीं था. लोक जनशक्ति पार्टी को मात्र 10 सीटें मिलीं थीं लेकिन उसे वोट 11.10 प्रतिशत मिले थे.

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साल 2005 से 2010 के बीच नीतीश कुमार ने अति पिछड़ी जातियों के लिए पंचायत में आरक्षण और गैर पासवान दलित के लिए महादलित वर्ग बनाकर चुनाव का पूरा गणित बदल डाला. माना जाता है कि जब तक एनडीए विरोधी इस वोट वर्ग में सेंधमारी करने में कामयाब नहीं होते बिहार की राजनीतिक सच्चाई यही रहेगी कि नीतीश कुमार भाजपा के लिए ज़रूरी लेकिन भाजपा का ऊंची जाति और बनिया वर्ग पर पकड़ के कारण भाजपा के साथ रहना उनकी मजबूरी रहेगी.