बिहार में विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Election) सिर पर है. सभी सियासी दल तैयारियों में जुटे हैं. सीट बंटवारे से लेकर कैंडिडेट के चयन तक सभी दलों के अंदर मंथन चल रहा है. सत्ता पक्ष की तरफ से खुद सीएम नीतीश कुमार ने कमान संभाल रखी है. पीएम नरेंद्र मोदी भी उनका साथ दे रहे हैं. अब तक कई शिलान्यास, उद्घाटन कार्यक्रम के बहाने पीएम मोदी आधा दर्जन सभाओं को वर्चुअली संबोधित कर चुके हैं. इन सभाओं में वो नीतीश कुमार की तारीफों के पुल बांध चुके हैं लेकिन ये पहली बार है, जब बीजेपी और जेडीयू का चुनाव प्रचार इतना आक्रामक रुख अपनाए हुए है.
उधर, विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव अभी भी चुनावी सभाओं के मामले में पीछे पड़े हुए हैं. नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार जैसे सियासी दिग्गजों और धुरंधर के सामने 31 वर्षीय तेजस्वी के लिए लंबी लकीर खींचना भी मुश्किल हो सकता है क्योंकि मौजूदा वक्त में उनके सामने ये पांच बड़ी चुनौतियां खड़ी हैं-
वर्चुअल चुनाव प्रचार
कोरोना वायरस की वजह से इस बार चुनावी प्रक्रिया से लेकर चुनाव प्रचार का तरीका बदल चुका है. बीजेपी और जेडीयू ने मौके की नजाकत को देखते हुए न सिर्फ डिजिटल मंच तैयार किया है बल्कि उसके जरिए सीएम नीतीश कुमार और पीएम मोदी सीधे जनता से संवाद कर रहे हैं, जबकि तेजस्वी यादव इस मामले में काफी पीछे हैं. हालांकि, सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता पहले से और तेज हुई है.
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7 सितंबर को सीएम नीतीश ने वर्चुअली निश्चय संवाद रैली की. इसे देशभर के करीब 40 लाख लोगों ने देखा. पार्टी के मुताबिक बिहार के करीब 12.82 लाख लोगों ने उस दिन नीतीश को द्खा और सुना. नीतीश से भी तीन महीने पहले बीजेपी की तरफ से अमित शाह ने बिहार की वर्चुअल रैली को संबोधित करने की शुरुआत की थी. बीजेपी ने भी दावा किया था कि 40 लाख से ज्यादा लोगों ने उस रैली को देखा-सुना. शाह को राज्य की सभी 243 विधान सभा सीटों के 72,000 बूथों पर एलईडी के जरिए देखा-सुना गया. राजद इस मोर्चे पर एनडीए से काफी पीछे है. वैसे राजद नेता दावा करते हैं कि उनका जोर वर्चुअल नहीं एक्चुअल रैलियों पर है.
लालू का जेल के अंदर होना
1980 के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव होगा जब राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव शारीरिक तौर पर इसमें शामिल नहीं होंगे. यानी लोकसभा चुनाव 2019 की तरह ये विधान सभा चुनाव भी बगैर लालू के लड़ा जाएगा. ऐसे में राजद को खासकर ग्रामीण मतदाताओं को लुभाने में परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. 2015 में लालू यादवे ने कुल 252 चुनावी सभाओं को संबोधित किया था. उनका गंवई अंदाज और ग्रामीण वोटरों को लुभाने का अंदाज निराला होता है. चुनाव में किस समय पर कौन सा कार्ड फेंकना है, इस सियासी खेल में वो माहिर रहे हैं, लेकिन उनकी गैर हाजिरी में अब सारा बोझ तेजस्वी पर आ चुका है.
पारिवारिक कलह
राजद मुखिया लालू यादव के परिवार में कलह नई बात नहीं है. लोकसभा चुनाव में तेजस्वी के बड़े भाई तेज प्रताप यादव ने अपने मनमुताबिक कई उम्मीदवार उतारे थे जिससे राजद कैंडिडेट की हार हुई थी. सूत्र बता रहे हैं कि तेजप्रताप विधानसभा चुनावों में भी अपने समर्थकों को टिकट दिलाने की जुगत में लगे हैं. अगर पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया तो 2019 के लोकसभा चुनाव जैसा हाल भी हो सकता है. तेजप्रताप के तलाक और ससुर चंद्रिका राय के जेडीयू में जाने का भी खामियाजा राजद को छपरा और आसपास में भुगतना पड़ सकता है.
महागठबंधन नेताओं की मजबूरी
महागठबंधन के तहत ही राजद चुनाव लड़ेगा. इस गठबंधन में राजद के अलावा कांग्रेस, उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा, मुकेश साहनी की वीआईपी और लेफ्ट दलों में सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई (एमएल) शामिल है. जीतनराम मांझी पहले ही महागठबंधन को टाटा-बाय-बाय बोल चुके हैं. गठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर खींचतान जारी है. तेजस्वी के लिए सबसे बड़ी समस्या सहयोगी दलों के साथ सीटों का बंटवारा और उपयुक्त कैंडिडेट की तलाश है. वैसे माना जा रहा है कि तेजस्वी सवर्णों को भी लुभाने के लिए कई सीटों पर उस समुदाय के लोगों को टिकट दे सकते हैं.
असदुद्दीन ओवैसी की एंट्री
महागठबंधन खासकर राजद माय (MY) समीकरण यानी मुस्लिम-यादव वोटबैंक के सहारे राज्य में राजनीति करता रहा है. नीतीश भी मुस्लिम वोटों में सेंधमारी करते रहे हैं लेकिन केंद्र की बीजेपी सरकार द्वारा हालिया कुछ फैसलों से माना जा रहा है कि मुसलमान जेडीयू से मुंह मोड़ सकते हैं. ऐसे में उनका विकल्प सिर्फ राजद बचता है. लेकिन हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने बिहार में चुनाव लड़ने का फैसला किया है.
उनकी पार्टी AIMIM 22 जिलों की 32 सीटों पर उम्मीदवार उतार सकती है। इनमें से अधिकांश मुस्लिम और यादव बहुल इलाके हैं. माय समीकरण में ही सेंधमारी करते हुए ओवौसी ने पिछले दिनों पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र यादव को पार्टी में शामिल करवाया है. ओवैसी की एंट्री से राजद को झटका लग सकता है.
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