Bihar Election 2020: मई 2014 में लोकसभा चुनावों में हार के बाद जब नीतीश कुमार ने सीएम पद से इस्तीफा देने और जीतनराम मांझी (Jitan Ram Manjhi) को उस कुर्सी पर बैठाने का एलान किया तो सियासत के सभी विश्लेषक और धुरंधर दांतों तले उंगली दबाए रह गए. इससे पहले तक जीतनराम मांझी एक लो प्रोफाइल दलित नेता के रूप में ही जाने जाते थे लेकिन मुसहर समाज से आने वाले 70 साल के मांझी को जब सीएम बनाया गया तो राज्य के दलितों खासकर महादलित समुदाय में एक नया संदेश गया. मांझी राज्य के तीसरे दलित हैं जो सीएम बने. इनसे पहले भोला पासवान शास्त्री और रामसुंदर दास मुख्यमंत्री बन चुके थे लेकिन मुसहर समाज, जिसकी राज्य में दो फीसदी मतदाताओं के रूप में हिस्सेदारी है, से अभी तक कोई सीएम नहीं बन सका था.
रबड़ स्टाम्प नहीं मांझी
सीएम बनने के बाद राजनीतिक गलियारों में चर्चा छिड़ी कि मांझी नीतीश के रबड़ स्टाम्प हैं लेकिन दो महीने बाद ही नीतीश और मांझी के रिश्तों में तल्खी आने लगी. मांझी खुद सभाओं में कहते रहे कि वो रबड़ स्टाम्प नहीं हैं. बहरहाल, फरवरी 2015 में नीतीश कुमार लालू यादव के सहयोग से फिर से सीएम बन गए. तब से दोनों नेताओं के रास्ते अलग-अलग थे लेकिन पिछले महीने जीतनराम मांझी यू-टर्न लेते हुए फिर से नीतीश की अगुवाई वाले एनडीए में शामिल हो गए. अब इमामगंज सीट पर चुनाव लड़ रहे मांझी के लिए नीतीश कुमार वोट मांग रहे हैं. उनका मुकाबला दो बार के स्पीकर रहे उदय नारायण चौधरी से है.
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पहली बार में ही विधायक और मंत्री बने
जीतनराम मांझी ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत कांग्रेस पार्टी से की थी. 1980 में पहली बार गया के फतेहपुर विधान सभा सीट से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. मांझी 1983 में ही चंद्रशेखर सिंह की सरकार में राज्यमंत्री बनाए गए. वो 1985 में दोबारा चुनाव जीतने में कामयाब रहे. चंद्रशेखर सिंह के अलावा कांग्रेस के तीन अन्य मुख्यमंत्रियों (बिंदेश्वरी दुबे, सत्येंद्र नारायण सिन्हा और जगन्नाथ मिश्रा) के मंत्रिमंडल में भी वो 1990 तक मंत्री रहे.
लालू लहर देख छोड़ दी कांग्रेस, थाम लिया चक्का
1990 के विधान सभा चुनाव में जनता दल (चक्का चुनाव चिह्न) की लहर में मांझी कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर चुनाव हार गए. इसके बाद उन्होंने फौरन जनता दल ज्वाइन कर लिया और सीएम लालू यादव के करीब हो गए. 1996 में वो बाराचट्टी सीट से उप चुनाव में विधायक चुने गए. जब लालू यादव ने राजद का गठन किया तो मांझी राजद में शामिल हो गए. मांझी लालू यादव और राबड़ी देवी दोनों की सरकारों में मंत्री रहे लेकिन डिग्री घोटाले में नाम आने पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.
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15 साल में लिए कई यू-टर्न
साल 2005 में जब राजद के शासन का अंत हुआ और नीतीश कुमार की जेडीयू ताकतवर हुई तो मांझी जनता दल यूनाइटेड के हो लिए. वो नीतीश की कैबिनेट में भी मंत्री रहे. 2015 में नीतीश से अनबन के बाद उन्होंने अपनी नई पार्टी हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) का गठन किया और बीजेपी के साथ मिलकर 2015 का विधान सभा चुनाव लड़ा लेकिन दो में से एक सीट पर वो खुद हार गए. उनकी पार्टी ने भी सिर्फ एक ही सीट जीती. लोकसभा चुनाव से पहले मांझी एनडीए छोड़ राजद-कांग्रेस के गठबंधन में शामिल हो गए. अब वो फिर से नीतीश कुमार के साथ एनडीए में हैं.
सरकारी नौकरी छोड़ पकड़ी राजनीति की राह
गरीब खेतिहर मजदूर परिवार में जन्मे मांझी ने सरकारी नौकरी छोड़कर राजनीति की राह पकड़ी थी. राजनीति में आने से पहले वो 13 साल तक डाक एवं तार विभाग (गया टेलीफोन एक्सचेंज) में क्लर्क की नौकरी करते थे लेकिन छात्र जीवन से ही राजनीति के प्रति उनका रुझान था. जब उनका छोटा भाई पुलिस की नौकरी में आ गया और मांझी आश्वस्त हो गए कि माता-पिता को बुढ़ापे की लाठी का सहारा मिल गया तो उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और 1980 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा. पहली ही बार में वो विजयी हुए और मंत्री भी बने. मांझी 1980 से पहले के चुनावों में भी दलित वर्ग को अपने कहे अनुसार वोट दिलाने के लिए राजनेताओं की पसंद बन चुके थे. उन्होंने सांसदी का भी चुनाव लड़ा लेकिन उसमें सफल नहीं हो पाए.
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फूटी स्लेट पर लिखा किस्मत का ककहरा
जीतनराम मांझी ने एक सभा में कहा था कि जबसे उन्होंने अपना होश संभाला था, तबसे उन्होंने खुद को एक जमींदार के घर में पाया था. वहां उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए एक गुरूजी आते थे. बतौर मांझी, जब गुरूजी उन बच्चों को पढ़ाते थे तो वो उत्सुकतावश उन्हें देखते और सुनते थे. बाद में उन बच्चों ने मांझी की पढ़ने में रूचि को देखते हुए एक फूटी हुई स्लेट दे दी थी, जिससे मांझी ने जिंदगी की ककहरे की शुरुआत की थी. बाद में उन्होंने मगध विश्वविद्यालय से स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की.
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