यह ख़बर 21 मार्च, 2014 को प्रकाशित हुई थी

देह व्यापार के खिलाफ एक बुलंद आवाज 'लक्ष्मी'

मुंबई:

फिल्म 'लक्ष्मी' की कहानी प्रेरित है, कई सच्ची घटनाओं से, जो इस देश में धड़ल्ले से हो रहा है। 'लक्ष्मी' एक आइना है, समाज का जहां देह व्यापार अब भी फल-फूल रहा है।

फिल्म की कहानी घूमती है, हैदराबाद के एक छोटे-से गांव में रहने वाली लक्ष्मी नाम की एक 14 साल की नाबालिग लड़की के इर्द-गिर्द, जिसके पिता ने उसे चंद रुपयों के लिए एक महिला को बेचा। उस महिला ने मुनाफे के लिए उसे दलाल के हाथों में सौंप दिया और फिर लक्ष्मी पहुंच गई एक कोठे पर वहां उसके साथ बार-बार बलात्कार हुआ, ढेरों जुल्म हुए मगर वह लड़की एक एनजीओ की सहायता से स्टिंग ऑपरेशन करवाकर उनकी कैद से निकलती है और पहुंचती है अदालत तक।

मोनाली ठाकुर ने 14 साल की लक्ष्मी का किरदार बखूबी निभाया है। कोठे की मालकिन के रोल में शेफाली शाह ने अच्छा अभिनय किया है। दलाल के रोल में फिल्म के निर्देशक नागेश कुकनूर भी जमे हैं। यह फिल्म नागेश की स्टाइल की है, जिसमें कहानी कहने का तरीका बड़ा सरल है।

फिल्म को प्रमोट किया गया लक्ष्मी की लड़ाई बताकर। मगर लक्ष्मी की लड़ाई कम और उस पर अत्याचार ज्यादा दिखाया गया, जिसे हम कई बार पर्दे पर देख चुके हैं।

फिल्म में गाली-गलौच बहुत ज्यादा है और मैं सोचता हूं कि फिल्म को वास्तविक दिखाने के लिए जरूरी नहीं कि उसमें अभद्र भाषा का ज्यादा इस्तेमाल हो। मुझे लगता है कि ऐसी फिल्मों में अगर इतनी गालियां न हों तो शायद फैमिली ऑडियंस भी सिनेमाघरों का रुख कर सकती है।

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फिल्म के एंड टाइटल में दिखाया गया है कि लक्ष्मी का केस आंध्र प्रदेश का पहला ऐसा मुकदमा था, जिसमें दोषियों को सजा मिली। लक्ष्मी न सिर्फ कहानी है, देह व्यापार की सच्चाई की बल्कि एक साहसी लड़की की लड़ाई है, जो बुलंद होकर देह व्यापार के खिलाफ अपनी आवाज उठाती है। फिल्म में इंटरटेनमेंट वैल्यू न के बराबर है, मगर एक संदेश है, जो समाज को झकझोरता है। मेरे ख्याल से सिर्फ मसाला फिल्में ही नहीं बल्कि ऐसी फिल्में भी बननी चाहिए, जो समाज को एक दिशा दे। अगर लक्ष्मी की तरह एक भी महिला लड़ाई लड़ने के लिए खड़ी हो जाए तो फिल्म बनाने का मकसद पूरा हो जाएगा। इस फिल्म तीन स्टार्स।