यह ख़बर 25 दिसंबर, 2012 को प्रकाशित हुई थी

'दुष्कर्म के लिए बॉलीवुड को कसूरवार न ठहराएं'

खास बातें

  • अधिकतर लोगों का मानना है कि हिंदी फिल्मों के द्विअर्थी गाने और संवादों तथा अश्लील दृश्यों के कारण दुष्कर्म की घटनाओं को बढ़ावा मिल रहा है, लेकिन फिल्मोद्योग के अधिकतर निर्देशक इस बात से सहमत नहीं हैं।
मुम्बई:

अधिकतर लोगों का मानना है कि हिंदी फिल्मों के द्विअर्थी गाने और संवादों तथा अश्लील दृश्यों के कारण दुष्कर्म की घटनाओं को बढ़ावा मिल रहा है, लेकिन फिल्मोद्योग के अधिकतर निर्देशक इस बात से सहमत नहीं हैं।

'डर्टी पिक्च र' के निर्देशक मिलन लुथरिया के मुताबिक बलात्कार और उससे सम्बंधित अपराधों के लिए फिल्मों को कसूरवार ठहराया जाना ठीक नहीं है।

लुथरिया ने कहा, "मेरे खयाल से फिल्मों तथा गीतों पर ऐसे आरोप लगाया जाना उचित नहीं है। हमें अपने समाज और संस्कृति और उनकी जीवनशैली में झांकने की जरूरत है। हमें वास्तविक मुद्दे पर ध्यान देना चाहिए।"

'शिरीन फरहाद की तो निकल पड़ी' की निर्देशक बेला सहगल का मानना है कि लड़कों में छोटी उम्र से ही महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव पैदा करना चाहिए। उन्होंने कहा, "एक पुरुष एक महिला के साथ दुष्कर्म कैसे कर सकता है, जबकि वही उसे जन्म देती है।"

सहगल का मानना है कि फिल्म समाज का प्रतिबिम्ब होता है और उसे कसूरवार ठहराना ठीक नहीं। उन्होंने कहा, "फिल्म हमारे समाज का आइना है। लेकिन मैंने इतना वीभत्स दुष्कर्म फिल्मों में नहीं देखा है। यह बहुत चौंकाने वाला है।" उन्होंने कहा कि निश्चित रूप से फिल्मों में दिखाए जाने वाली हिंसक घटनाओं का लोगों पर असर होता है। लेकिन 23 वर्षीय युवती के साथ दुष्कर्म करने वाले मानसिक विकार के शिकार थे।

मनोवैज्ञानिक नेहा पटेल के मुताबिक फिल्मों और टेलीविजन में दिखाए जाने वाले दृश्यों का लोगों के मन पर असर होता है। वे मानती हैं कि यदि दुष्कर्म के बाद पैदा होने वाली स्थिति को यदि अच्छी तरह से दिखाया जाए, तो ऐसी घटनाएं कम हो सकती हैं।

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वह मानती हैं कि फिल्मों में आम तौर पर यही दिखाया जाता है कि बलात्कार के बाद महिला को किस प्रकार से भुगतना होता है, यह नहीं दिखाया जाता है कि पुरुषों को किस प्रकार भुगतना होता है। उन्होंने कहा, "यदि यह दिखाया जाए, तो यह पुरुषों के मन में भय पैदा कर सकता है।"