गुलजार (फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
फ़िल्म जगत के लिविंग लीजेंड और पद्मभूषण से सम्मानित गीतकार गुलज़ार का आज 81वां जन्मदिन है। मुशायरों और महफ़िलों से मिली शोहरत ने कभी मोटर मैकेनिक का काम करने वाले गुलज़ार को फ़िल्म जगत का एक अज़ीम शायर और गीतकार बना दिया। ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाले गाने जय हो के अलावा गुलज़ार ने कई सुपर हिट गाने लिखे हैं।
'तेरे बिना ज़िंदगी', 'आने वाला पल', 'मेरा कुछ सामान', 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी' सरीखे दर्जनों सुपरहिट गीत उनकी कलम से निकले। गुलज़ार ने 'कोशिश', 'परिचय', 'आंधी', 'किनारा', 'माचिस' जैसी कुछ चुनिंदा फ़िल्मों का निर्देशन भी किया है।
अपनी कलम से नज़्मों की मखमली चादरें बिछाने वाले और आशियाने के तख्ते पर ये सम्मान समेटे गुलज़ार अपनी जिंदगी के 81वें साल के पड़ाव पर भी बदलते दौर के मुसाफिर हैं। गुलज़ार कहते हैं, 'मुझे क्लासिक नहीं बनना। मैं काम करते रहने चाहता हूं।'
वैसे, पाकिस्तान के छोटे कस्बे दीना से संपूर्ण सिंह कालरा का मुंबई तक का सफ़र और फिर मोटर मैकेनिक से अज़ीम शायर और गीतकार गुलज़ार बनने की दास्तां क़ाबिले-तारीफ़ है। संगीत की जंग के हर साथी को गुलज़ार आज भी हर पल याद करते हैं।
मुशायरों और महफ़िलों से मिलती रही शोहरत ने ही इन्हें बंदिनी का ये पहला गाना दिलाया और फिर एक-एक कर सुपरहिट नग़मों का कारवां बनता गया।
साहित्यिक कहानियों और विचारों को फ़िल्मों,नाटकों में ढालने की कला में भी गुलज़ार से भला कौन आगे है। 1971 में फ़िल्म मेरे अपने के ज़रिए निर्देशन क्षेत्र में क़दम रख गुलज़ार ने पर्दे पर कई दमदार कहानियां पेश कीं।
वहीं, छोटे पर्दे पर भी कई कहानीकारों के बीच अज़ीम शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़िदंगी को भी जिंदा कर दिया। बदलते वक्त की खुरदरी सतह पर भी गुलज़ार बड़ी आसानी से अपनी कलम घुमाते रहे। मौजूदा दौर में संगीत लगातार शोर में बदलता रहा और गुलज़ार की कलम मॉर्डन शब्दों को दिलकश गीतों में पिरोती रही। उनकी खूबसूरत नज्में आज भी लोगों को बेहद सुहाती हैं।
'तेरे बिना ज़िंदगी', 'आने वाला पल', 'मेरा कुछ सामान', 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी' सरीखे दर्जनों सुपरहिट गीत उनकी कलम से निकले। गुलज़ार ने 'कोशिश', 'परिचय', 'आंधी', 'किनारा', 'माचिस' जैसी कुछ चुनिंदा फ़िल्मों का निर्देशन भी किया है।
अपनी कलम से नज़्मों की मखमली चादरें बिछाने वाले और आशियाने के तख्ते पर ये सम्मान समेटे गुलज़ार अपनी जिंदगी के 81वें साल के पड़ाव पर भी बदलते दौर के मुसाफिर हैं। गुलज़ार कहते हैं, 'मुझे क्लासिक नहीं बनना। मैं काम करते रहने चाहता हूं।'
वैसे, पाकिस्तान के छोटे कस्बे दीना से संपूर्ण सिंह कालरा का मुंबई तक का सफ़र और फिर मोटर मैकेनिक से अज़ीम शायर और गीतकार गुलज़ार बनने की दास्तां क़ाबिले-तारीफ़ है। संगीत की जंग के हर साथी को गुलज़ार आज भी हर पल याद करते हैं।
मुशायरों और महफ़िलों से मिलती रही शोहरत ने ही इन्हें बंदिनी का ये पहला गाना दिलाया और फिर एक-एक कर सुपरहिट नग़मों का कारवां बनता गया।
साहित्यिक कहानियों और विचारों को फ़िल्मों,नाटकों में ढालने की कला में भी गुलज़ार से भला कौन आगे है। 1971 में फ़िल्म मेरे अपने के ज़रिए निर्देशन क्षेत्र में क़दम रख गुलज़ार ने पर्दे पर कई दमदार कहानियां पेश कीं।
वहीं, छोटे पर्दे पर भी कई कहानीकारों के बीच अज़ीम शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़िदंगी को भी जिंदा कर दिया। बदलते वक्त की खुरदरी सतह पर भी गुलज़ार बड़ी आसानी से अपनी कलम घुमाते रहे। मौजूदा दौर में संगीत लगातार शोर में बदलता रहा और गुलज़ार की कलम मॉर्डन शब्दों को दिलकश गीतों में पिरोती रही। उनकी खूबसूरत नज्में आज भी लोगों को बेहद सुहाती हैं।
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