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उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन पर सुनवाई के बाद हाई कोर्ट ने इस पर फैसला सुना दिया। कोर्ट ने हरीश रावत सरकार के विश्वासमत हासिल करने से पहले केंद्र द्वारा राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के निर्णय को गलत ठहराते हुए इसे रद्द कर दिया। कोर्ट ने कई बार केंद्र सरकार को फटकार भी लगाई-
कोर्ट की 5 अहम टिप्पणियां
लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार को हटाना अराजकता एहसास कराता है और उन आम लोगें लोगों की विश्वास को डिगाता है जो कि तप्ती धूप, बारिश और बर्फ के थपेड़ों का सामना करते हुए अपने मताधिकार का उपयोग करते हैं।
राष्ट्रपति शासन के लिए अनुच्छेद 356 'असाधारण' है और सावधानी के साथ प्रयोग किया जाना चाहिए।
वहां जरूर तथ्य होंगे, उनको सत्यापित किया जाना चाहिए कि क्या वे राष्ट्रपति शासन लगाए जाने के लिए संतोषजनक और प्रासंगिक है।
सरकार के लिए, विधायकों को अयोग्य करार दिया जाना अनुच्छेद 356 लगाने के लिए प्रासंगिक नहीं हो सकता था
'यदि कल आप राष्ट्रपति शासन हटा लेते हैं और किसी को भी सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर देते हैं, तो यह न्याय का मजाक उड़ाना होगा। क्या (केंद्र) सरकार कोई प्राइवेट पार्टी है?'
लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार का निलंबन या विघटन नागरिकों के दिल में निराशावाद को जन्म देती है।
कोई भी हस्तक्षेप जो कानूनी तौर पर नहीं किया गया, वह पूरी तरह से आम आदमी के जीवन में हस्तक्षेप के रूप में देखा जाएगा।
'भारत में संविधान से ऊपर कोई नहीं है। इस देश में संविधान को सर्वोच्च माना गया है। यह कोई राजा का आदेश नहीं है, जिसे बदला नहीं जा सकता है। राष्ट्रपति के आदेश की भी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है... लोगों से गलती हो सकती है, फिर चाहे वह राष्ट्रपति हों या जज।'
विधायकों के खरीद-फरोख्त और भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद बहुमत परीक्षण का एकमात्र संवैधानिक रास्ता विधानसभा में शक्ति परीक्षण है, जिसे अब भी आपको करना है।
क्या आप लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को नाटकीय ढंग से पांचवें वर्ष में गिरा सकते हैं? राज्यपाल ही ऐसे मामलों में फैसले लेता है। वह केंद्र का एजेंट नहीं है। उसने ऐसे मामले में फैसला लेते हुए शक्ति प्रदर्शन के लिए कहा है।