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बिहार : श्रावण महीने में सुल्तानगंज के गंगा तट पर टूट रही हैं मजहबी सीमाएं

22 जुलाई से शुरू सावन महीने में प्रत्येक दिन लाखों शिव भक्त सुल्तानगंज पहुंच रहे हैं.

बिहार : श्रावण महीने में सुल्तानगंज के गंगा तट पर टूट रही हैं मजहबी सीमाएं
यहां दिख रहा है शिव भक्ति और कांवड़ियों का बाबाधाम जाने का सिलसिला.

भागलपुर : सावन में सुल्तानगंज से देवघर 105 किलोमीटर का रास्ता गेरुआ वस्त्रधारी कांवड़ियों से गुलजार है. रास्ते में दिन-रात बोल बम के नारे गूंज रहे हैं. 22 जुलाई से शुरू सावन महीने में प्रत्येक दिन लाखों शिव भक्त सुल्तानगंज पहुंच रहे हैं. यहां शिव भक्त जहां धार्मिक आस्था से सराबोर बोलबम के नारे लगा रहे हैं तो मुस्लिम दुकानदार उनकी हर जरूरतों को पूरा करने के लिए लगे हुए हैं. कांवड़ की साज-सज्जा हो, जल पात्र हो या गमछा हो सभी मुस्लिम दुकानदार इन कांवड़ियों को उपलब्ध करा रहे हैं. इस गंगा तट पर कहीं कोई मजहबी दीवार नहीं दिखती. दिखती है तो सिर्फ शिव भक्ति और कांवड़ियों का बाबाधाम जाने का सिलसिला.

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दरअसल, सुल्तानगंज में गंगा नदी आकर उत्तरवाहिनी हुई है. धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख है कि जाह्नवी ऋषि तपस्या में लीन थे और भागीरथ अपने तप से गंगा को धरती पर ला रहे थे. इसी दौरान कल कल करती गंगा की धारा के शोर से ऋषि का ध्यान टूट गया. वे गुस्से में आचमन कर पूरी गंगा को पी गए. यह देख भागीरथ स्तब्ध रह गए और उनके सामने हाथ जोड़कर विनती की. तब ऋषि ने जांघ चीरकर गंगा की धारा निकाली. गंगा की धारा सुल्तानगंज में उसी दिन से उत्तरवाहिनी हुई. तब से ही श्रद्धालुओं के लिए यहां की गंगा नदी विशेष महत्व रखती है. यह श्रद्धा का केंद्र बन गया. शिवभक्त कांवड़ में जल भरकर 105 किलोमीटर की पदयात्रा कर देवघर ज्योतिर्लिंग का जलाभिषेक करते हैं.

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सुल्तानगंज के गढ़पर के घाट रोड में कपड़ा, कांवड़ बेचने वाले मोहम्मद ताजुद्दीन का कहना है कि हम लोग करीब 20 साल से इस पेशे में हैं. कुछ कपड़े तो यहां बनाते हैं, लेकिन कांवड़ को सजाने वाला सामान कोलकाता समेत अन्य जगहों से लाते हैं. वहां भी इसका व्यापार मुसलमान ही करते हैं. उन्होंने कहा कि यहां कभी कोई परेशानी नहीं हुई. डब्बा (जलपात्र) बनाने वाले, कांवड़ बनाने वाले और कांवड़ सजाने वाले तो 90 फीसदी लोग मुस्लिम हैं, लेकिन कोई भेदभाव नहीं है. सभी मिलकर भाईचारा के साथ काम करते हैं.

सुल्तानगंज के मोहम्मद जाफिर 15 साल से यहां दर्जी का भी काम करते हैं और दुकान भी चलाते हैं. कभी कोई भेदभाव उन्हें नहीं दिखा. कांवड़ियां आते हैं और सामान खरीदकर ले जाते हैं. उन्होंने बताया कि हिंदू-मुसलमान सभी एक जैसे कारोबार करते हैं. हम अजान की आवाज पर नमाज भी पढ़ने जाते हैं और आकर पूजा की सामग्री भी बेचते हैं. यहां कोई भेदभाव नहीं है. जाफिर ने कहा कि रोजगार और कांवड़ियों की सेवा से उन्हें सुकून मिलता है और इसके साथ-साथ कमाई भी अच्छी हो जाती है.

श्रावणी मेले ने जातीय और धार्मिक वैमनस्यता के बंधन को तोड़ दिया है. कई कांवड़िये बाबाधाम की अपनी यात्रा प्रारंभ करने के पूर्व वस्त्रों में अपने पहचान के लिए नाम लिखवाते हैं. इस कार्य में भी मुस्लिम युवा ही अपना हुनर दिखा रहे हैं. इस काम से जुड़े युवा महताब ने कहा कि हम लोग टोपी लगाकर बम के वस्त्रों पर भगवान शंकर की तस्वीर, त्रिशूल की तस्वीर बनाते हैं, लेकिन कोई मना नहीं करता. श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है. बहरहाल, भगवान महादेव के सबसे प्रिय माने जाने वाले सावन महीने में सुल्तानगंज के गंगा तट जहां अटूट आस्था का केंद्र बना हुआ है वहीं यहां मजहबी सीमाएं भी टूट रही हैं.

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(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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