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मुगल काल में हुआ था कुछ ऐसा कि...यहां नाव से निकलने लगी भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा!

आज हम आपको भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा से जुड़ी एक ऐसी कहानी के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता है. दरअसल, हम यहां पर नाव से निकलनी वाली जगन्नाथ रथ यात्रा के बारे में बात करने जा रहे हैं... 

मुगल काल में हुआ था कुछ ऐसा कि...यहां नाव से निकलने लगी भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा!
कांकण सिखरी उन सुरक्षित स्थानों में से एक था, जहां भगवान को कुछ महीनों तक छिपाकर पूजा गया.

Jaganath rath yatra 2025 : कल उड़ीसा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा निकलने वाली है. यह धार्मिक यात्रा 'छेरा रस्म' के साथ शुरू होती है. इस दौरान भक्ति भाव से विभोर भक्त रथ की ओर भगवान जगन्नाथ की एक झलक पाने के लिए टकटकी लगाए खड़े होते हैं कि कब उन्हें जगन्नाथ जी के दर्शन होंगे और उन्हें रथ की रस्सी खींचने का सौभाग्य प्राप्त होगा. क्योंकि मान्यता है कि रथ खींचने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. यही कारण है सदियों से चली आ रही है इस धार्मिक यात्रा में देश-विदेश से लाखों की संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं. आपको बता दें कि जगन्नाथ रथ यात्रा केवल पुरी में ही नहीं बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी निकाली जाती है. जिसमें से एक जगह है उड़ीसा का नैरी गांव. यहां पर नाव पर जगन्नाथ जी की अनोखी यात्रा निकाली जाती है. इस अनोखी जगन्नाथ रथ यात्रा के पीछे की रोचक कहानी क्या है आपको हम इस आर्टिकल में विस्तार से बताने जा रहे हैं.... 

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नाव पर क्यों निकाली जाती है जगन्नाथ रथ यात्रा

कांकण सिखरी, एशिया की सबसे बड़ी खारे पानी की झील चिल्का के बीचों बीच स्थित एक शांत और पवित्र द्वीप है. यह स्थान ओडिशा के खोरधा (Khorda) जिले के बालू गांव तहसील के अंतर्गत नैरी गांव के पास स्थित है. यहां हर साल भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र और देवी सुभद्रा की रथ यात्रा एक अनोखे रूप में मनाई जाती है. 

यह यात्रा रोड पर नहीं बल्कि पानी में नाव पर निकाली जाती है. भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा आमतौर पर पूरी और दुनिया भर में सड़कों पर खींचे जाने वाले रथों से जुड़ी होती है, इसके इतर कांकण सिखरी में यह परंपरा एक अलग रूप में जीवित है. 

यहां भगवानों की मूर्तियों को रथ के आकार की नाव पर विराजमान किया जाता है और चिलका झील की लहरों पर भक्तों द्वारा खींचा जाता है. यह जल-रथ यात्रा हर साल हजारों श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है. इसे देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं.

ऐसा माना जाता है कि जब 12वीं शताब्दी के पुरी श्री मंदिर पर विदेशी आक्रमण हुआ, तो भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन की मूर्तियों को कई बार सुरक्षित स्थानों पर ले जाया गया. इनमें से एक प्रमुख स्थान कांकण सिखरी था, जो उस समय 'कांकण कूद' के नाम से जाना जाता था. 

साल 1731 में, जब मुग़ल सेनापति ताकी खान ने बार-बार पुरी के भगवान जगन्नाथ के श्री मंदिर पर हमला किया, तब तत्कालीन गजपति रामचंद्र देव के शासनकाल में मूर्तियों को पुरी से चिल्का झील के आसपास के घने जंगलों और द्वीपों में छुपाया गया. 

कांकण सिखरी उन सुरक्षित स्थानों में से एक था, जहां भगवान को कुछ महीनों तक छिपाकर पूजा गया.माना जाता है कि मूर्तियों को नैरी गांव के पास स्थित इस द्वीप पर रखे जाने के दौरान, सेवक पास की जलधारा ‘जमुना निर्झरा' से जल लाकर भगवान को चढ़ाते थे. साथ ही, द्वीप पर स्थानीय लोग ककोड़ा जिसे स्थानीय भाषा में कांकण कहा जाता है, उसकी खेती करते थे, और उसे भगवान को नैवेद्य के रूप में अर्पित किया जाता था. यही कारण है कि इस स्थान का नाम कांकण सिखरी पड़ा.

‘पहांडी' शोभा यात्रा निकलती है

चिल्का झील के बीचों बीच एक टापू पर भगवान जगन्नाथ का मंदिर होने के कारण यहां नावों से रथ यात्रा होती है. हर साल रथ यात्रा के दिन, भगवानों को मंदिर से बाहर लाने की पारंपरिक प्रक्रिया ‘पहांडी' के तहत शोभा यात्रा में बाहर लाया जाता है. इसके बाद उन्हें एक विशेष रूप से सजाई गई नाव पर बैठाया जाता है, जो रथ का आकार लिए होती है.
यह रथ-नाव फिर मंदिर के चारों ओर सात चक्कर लगाती है. 

9 दिन तक यहीं रहते हैं

इसके बाद उसे खींचते हुए गुंडिचा मंदिर तक ले जाया जाता है, जो गांव के आखिरी छोर पर स्थित है. नौ दिनों तक भगवान वहीं विश्राम करते हैं और फिर बहुड़ा यात्रा के दिन वापसी में फिर से टापू के चारों ओर सात चक्कर लगा कर भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा को वापस मंदिर के अंदर विराजमान कर दिया जाता है. इस पूरी प्रक्रिया में भक्त अपने-अपने नावों को रथ-नाव से रस्सियों से बांधते हैं और मिलकर उसे खींचते हैं. शंख, मंजीरे, ढोल, तुरही और ‘जय जगन्नाथ' के नारों से चिल्का झील का माहौल भक्तिमय हो उठता है.

मुगल आक्रान्ताओं के कारण छिपानी पड़ी मूर्ति

मुगल आक्रान्ताओं के आक्रमण के दौरान चिल्का झील के तीन प्रमुख स्थानों ,कंकणा सिखारी, गुरुबाई और चकानासी में भगवान की मूर्तियां छिपाई गई थीं. इसके अलावा मरादा, खोरधा गढ़, चिकिटी, टिकाबली, बंकुड़ा कूद, आठगढ़ पटना और नैरी जैसे कई स्थानों ने भी मूर्तियों को छिपाए गए थे. कंकणा कूद, जो आज कांकण सिखरी  के रूप में जाना जाता है, उस समय घने जंगलों और वन्य जीवों से भरा हुआ था. चार महीनों तक भगवान की मूर्तियां यहां रहीं और फिर उन्हें नैरी गांव के डोलमंडप साही में स्थानांतरित किया गया.

पुरी भले ही श्री मंदिर और रथ यात्रा का केंद्र हो, लेकिन जगन्नाथ संस्कृति सिर्फ एक शहर तक सीमित नहीं है. कांकण सिखरी की जल-रथ यात्रा इस बात का प्रमाण है कि भगवान की परंपरा, आस्था और इतिहास पूरे ओडिशा में बसी है. यह आयोजन न केवल धार्मिक महत्व रखता है बल्कि ओडिशा की सांस्कृतिक विरासत का एक अनमोल हिस्सा भी है.

(Disclaimer: यहां दी गई जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है. एनडीटीवी इसकी पुष्टि नहीं करता है.)

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