फाइल फोटो
नई दिल्ली:
जल्लिकट्टू के लिए सर्वोच्च न्यायालय की सहमति हासिल करने के तमिलनाडु सरकार के प्रयास बुधवार को नाकाम हो गए. राज्य सरकार ने न्यायालय से सांड के साथ लड़ाई पर प्रतिबंध से जुड़े 2014 के फैसले को वापस लेने की मांग वाली याचिका खारिज करते हुए कहा कि यह प्रथा पशुओं के साथ अत्याचार के बराबर है. न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति रोहिंटन फली नरीमन ने पोंगल महोत्सव के दौरान जल्लिकट्टु की प्रथा बहाल करने के लिए दायर तमिलनाडु सरकार की दलीलें दरकिनार कर दीं कि 3500 वर्षो से चली आ रही इस परंपरा की जडें धर्म से जुड़ी हैं.
दलीलों को ठुकराते हुए पीठ ने पुनरीक्षण याचिका खारिज करने का आदेश दिया. पीठ ने कहा कि जल्लिकट्टू का धर्म से कोई मेल या जुड़ाव नहीं है.
पीठ ने अपने आदेश में कहा कि इस तरह की अवधारणा संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत दी गई धर्म की स्वतंत्रता की अवधारणा से बाहर की है.
तमिलनाडु की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नेफाडे ने कहा कि जल्लिकट्टू एक सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक आयोजन है, जो फसलों की कटाई से जुड़ा है. इस पर पीठ ने कहा, "यह धार्मिक प्रचलन नहीं है. इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. इसे धार्मिक कहकर हमलोग संविधान निर्माताओं को बदनाम कर रहे हैं."
शीर्ष अदालत ने तमिलनाडु जल्लिकट्टु कानून 2009 को वर्ष 1960 के पशु अत्याचार निरोध कानून 1960 के खिलाफ करार देते हुए शीर्ष अदालत ने गत सात मई, 2014 के फैसले में सांड से लड़ाई (बुल फाइटिंग) पर प्रतिबंध लगाया था. इसमें कहा गया था कि सांड को किसी अभिनय में भाग लेने का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता चाहे वह जल्लिकट्टू के कार्यक्रम हों या बैलगाड़ी की दौड़ हो.
अदालत ने सात मई, 2014 के अपने फैसले में केंद्र सरकार से पशु अधिकारों से जुड़े संवैधानिक दर्जे को स्वीकार करने को कहा था.
पीठ ने कहा कि सात जनवरी, 2016 की सरकार की अधिसूचना को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर एक दिसंबर को सुनवाई होगी.
गत नौ नवंबर को इस मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि हो सकता है कि जानवरों को अधिकार नहीं हो लेकिन वे लोगों की निर्दयता के पात्र नहीं हो सकते. पीठ ने कहा कि यह संविधान में सन्निहित है और इस दर्जे को एक अधिसूचना के जरिए छीना नहीं जा सकता.
(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
दलीलों को ठुकराते हुए पीठ ने पुनरीक्षण याचिका खारिज करने का आदेश दिया. पीठ ने कहा कि जल्लिकट्टू का धर्म से कोई मेल या जुड़ाव नहीं है.
पीठ ने अपने आदेश में कहा कि इस तरह की अवधारणा संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत दी गई धर्म की स्वतंत्रता की अवधारणा से बाहर की है.
तमिलनाडु की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नेफाडे ने कहा कि जल्लिकट्टू एक सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक आयोजन है, जो फसलों की कटाई से जुड़ा है. इस पर पीठ ने कहा, "यह धार्मिक प्रचलन नहीं है. इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. इसे धार्मिक कहकर हमलोग संविधान निर्माताओं को बदनाम कर रहे हैं."
शीर्ष अदालत ने तमिलनाडु जल्लिकट्टु कानून 2009 को वर्ष 1960 के पशु अत्याचार निरोध कानून 1960 के खिलाफ करार देते हुए शीर्ष अदालत ने गत सात मई, 2014 के फैसले में सांड से लड़ाई (बुल फाइटिंग) पर प्रतिबंध लगाया था. इसमें कहा गया था कि सांड को किसी अभिनय में भाग लेने का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता चाहे वह जल्लिकट्टू के कार्यक्रम हों या बैलगाड़ी की दौड़ हो.
अदालत ने सात मई, 2014 के अपने फैसले में केंद्र सरकार से पशु अधिकारों से जुड़े संवैधानिक दर्जे को स्वीकार करने को कहा था.
पीठ ने कहा कि सात जनवरी, 2016 की सरकार की अधिसूचना को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर एक दिसंबर को सुनवाई होगी.
गत नौ नवंबर को इस मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि हो सकता है कि जानवरों को अधिकार नहीं हो लेकिन वे लोगों की निर्दयता के पात्र नहीं हो सकते. पीठ ने कहा कि यह संविधान में सन्निहित है और इस दर्जे को एक अधिसूचना के जरिए छीना नहीं जा सकता.
(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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