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हुमायूं कबीर की राजनीतिक ताकत और कमजोरियां, क्या हैं उनसे खतरे- क्या बंगाल में बदल पाएंगे मुस्लिम वोटों का खेल?

मुर्शिदाबाद से उठी हुमायूं कबीर की राजनीति क्या बंगाल में मुस्लिम वोटों का नया गणित लिखेगी या TMC के लिए आसान राह बनाएगी? पढ़ें, क्या है उनकी ताकत और कमजोरी, साथ ही उनके पास मौके क्या हैं और उनसे TMC को कितना खतरा है?

हुमायूं कबीर की राजनीतिक ताकत और कमजोरियां, क्या हैं उनसे खतरे- क्या बंगाल में बदल पाएंगे मुस्लिम वोटों का खेल?
  • हुमायूं कबीर पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद के स्थानीय मुस्लिम नेता हैं, जिनकी पूरे राज्य पर उनकी पकड़ नहीं है.
  • पिछले चुनाव में BJP के टिकट पर मैदान में उतरना, उससे पुराने रिश्ते और संगठन की कमी उनकी सबसे बड़ी बाधा है.
  • TMC का जवाबी कैंपेन यह तय करेगा कि हुमायूं कबीर पश्चिम बंगाल में उसका विकल्प बनेंगे या महज कुछ वोट काटने वाले.
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पश्चिम बंगाल की राजनीति में हुमायूं कबीर एक बार फिर चर्चा के केंद्र में हैं. मुर्शिदाबाद के जाने-माने मुस्लिम नेता हुमायूं कबीर खुद को TMC और BJP- दोनों के विकल्प के तौर पर पेश कर रहे हैं. हालांकि अहम सवाल ये है कि क्या उनका यह प्रयोग मुस्लिम वोटों को एकजुट करेगा या उन्हें और बांटेगा? चलिए जानते हैं कि हुमायूं कबीर कहां मजबूत हैं, उनकी कमजोरियां कहां हैं,  उनके पास मौके कहां-कहां हैं और उन्हें कौन रोक सकता है

हुमायूं कबीर की ताकत क्या है?

हुमायूं कबीर की सबसे बड़ी ताकत उनका स्थानीय मुस्लिम नेतृत्व है. BJP से खुला टकराव उन्हें मुस्लिम ध्रुवीकरण में मदद कर सकता है, यही उनकी रणनीति का अहम हिस्सा भी है. उनके पास लंबा राजनीतिक अनुभव है और बंगाली मुस्लिम पहचान के कारण मुर्शिदाबाद में मुस्लिम वोटों का एक हिस्सा उनके साथ आ सकता है.

इसके साथ ही हुमायूं कबीर TMC सरकार के खिलाफ मुस्लिम समाज में मौजूद असंतोष को मुद्दा बना रहे हैं. वह प्रचार कर रहे हैं कि मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य सरकार हिंदू मंदिर बनवा रही है, पर एक भी मस्जिद का निर्माण नहीं कर रही. उनका आरोप है कि जगन्नाथ मंदिर से लेकर महाकाल तक कई मंदिरों का नवीनीकरण किया जा रहा है.

उनका जोर मंदिर-मस्जिद निर्माण के धार्मिक असंतुलन की राजनीति को लेकर है. यही कारण है कि वो अपने उद्देश्य को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं. इसके साथ ही, उन्हें भारी आर्थिक समर्थन मिलने की बात कही जा रही है. बताया जा रहा है कि उन्हें कई दानकर्ताओं से करीब 5 करोड़ रुपये फंड मिले हैं, जिसने उनके अभियान को रफ्तार दी है.

राज्य में TMC विरोधी जितनी भी पार्टियां हैं, लगभग सभी उन्हें बढ़ावा दे रही हैं. कांग्रेस, लेफ्ट और MIM जैसे TMC विरोधी दल उनके प्रति नरमी दिखा रहे हैं. यह भी बताया जा रहा है कि हुमायूं कबीर CPM और MIM जैसी पार्टियों के साथ सीट शेयरिंग के लिए भी तैयार हैं.

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हुमायूं कबीर का खेल कहां फंसता है?

हुमायूं कबीर की सबसे बड़ी कमजोरी ये है कि पूरे पश्चिम बंगाल में उनकी कोई लोकप्रियता नहीं है. यानी पहचान का अभाव से उन्हें जूझना होगा. हुमायूं शहरी या राज्य-स्तरीय नेता नहीं बल्कि एक स्थानीय नेता माने जाते हैं.

पिछला लोकसभा चुनाव BJP के टिकट पर लड़ने का दाग आज भी उनके साथ है, जिससे मुस्लिम वोटरों के बीच भरोसे का संकट बना रह सकता है.
उनके पास मजबूत संगठन, जमीनी टीम और भरोसेमंद सहयोगियों की कमी है. पिछली बार BJP प्रत्याशी के तौर पर मिली हार और तीसरे स्थान पर खिसक जाना उनकी इस कमजोरी की ओर इशारा करती है. इसके अलावा, बंगाल में पहले से एक मुस्लिम पार्टी ISF की मौजूदगी है, जो उन्हें प्रतिद्वंद्वी के रूप में देख सकती है. इससे आंतरिक टकराव बढ़ा सकता है.

कहां बन सकती है बात?

शुरुआती रैलियों में मुस्लिम भीड़ की मौजूदगी ने उनके हौसले बढ़ाए हैं. कट्टर मुस्लिम पहचान पर जोर देकर वह फंडिंग और समर्थन दोनों बढ़ा सकते हैं. मुर्शिदाबाद की 22 सीटों में CPM और ISF के साथ सीट शेयरिंग की संभावना उन्हें राजनीतिक स्पेस दे सकती है.

SIR रिपोर्ट के मुताबिक जिले में 4,07,065 मुस्लिम वोटरों की प्रोजेनी मैपिंग (वंशावली विश्लेषण) है. इससे यह जांच की जा रही है कि मतदाता या उसके परिवार का नाम 2003 की एसआईआर लिस्ट में था या नहीं. यह वोट बैंक उनके लिए बड़ा मौका है. हर जिले में कैंपेन, मीडिया कवरेज और 95 मुस्लिम बहुल सीटों पर फोकस करना उनके प्रभाव को और बड़ा कर सकता है.

कौन रोक सकता है उनकी राह?

TMC मुखिया ममता बनर्जी का असली कैंपेन अभी शुरू होना बाकी है. हो सकता है कि उनका नैरैटिव यह हो कि- BJP हुमायूं कबीर के जरिए मुस्लिम वोट बांट रही है. ममता बनर्जी, अपने कद्दावर मुस्लिम नेताओं फिरहाद हकीम और जावेद खान सिद्दीकुल्लाह को उनके खिलाफ खुलकर उतार सकती हैं. ISF नेतृत्व और फुरफुरा शरीफ से जुड़े धार्मिक प्रभावशाली वर्ग फिलहाल ममता बनर्जी के साथ दिख रहे हैं. बंगाल के बड़े इमाम, नखोदा, टीपू सुल्तान मस्जिद और राज्य अल्पसंख्यक आयोग का समर्थन ममता बनर्जी को मिलना उनके लिए बड़ा झटका है. राज्य में बंगाली मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, ऐसे में MIM जैसी उर्दू-केंद्रित राजनीति सीमित असर ही डाल पाएगी.

हुमायूं कबीर की राजनीति संभावनाओं और विरोधाभासों से भरी है. उनके पास स्थानीय ताकत, पैसे और मुद्दे हैं, लेकिन संगठन, भरोसा और राज्य स्तरीय पकड़ की कमी उनके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है. आने वाले महीनों में यह तय होगा कि वह किंगमेकर बनते हैं या केवल वोट काटने वाले बनने तक ही उनका किरदार रहेगा.

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