नई दिल्ली:
रांची में सार्वजनिक क्षेत्र की एक कंपनी है मैकॉन। इसके स्टाफ़ क्वॉर्टर में 34 साल पहले एक बच्चे के जन्म का जश्न मना। परिवार के मुखिया पान सिंह मेकॉन में जूनियर मैनेजमेंट स्टाफ थे, लिहाजा आमदनी काफी कम थी।
कहते हैं, 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात। डीएवी विद्या मंदिर की फ़ुटबॉल टीम के गोलकीपर में कुछ खास बात थी। स्कूल के स्पोर्ट्स टीचर के.आर. बनर्जी की नज़र पारखी थी। उन्हें एक विकेटकीपर की तलाश हुई तो गोलकीपर को विकेटकीपिंग के लिए तैयार कर लिया। नाम था महेन्द्र सिंह धोनी। दोस्त माही पुकारते थे।
1997 में अपने स्कूल की तरफ से माही और उनके साथी शब्बीर हुसैन ने 373 रन बनाए। माही ने 213 रन की पारी खेली। 16 साल का लड़का बड़े शॉट्स के लिए शहर में पहचान बनाने लगा था। सपनों को पंख लगने बस शुरू ही हुए थे। 1997-98 में माही को Vinoo Mankad Trophy Under-16 Championship में पहली पहचान मिली।
रांची से निकलकर 20 साल के माही खड़गपुर पहुंचे। एक रूम के मकान में 4 साल तक रहे और टिकट कलेक्टर का काम किया। रेलवे की तरफ़ से खेलते रहे। उनके बड़े शॉट्स की गूंज चयनकर्ताओं तक भी पहुंच ही गई।
2004 में वे टीम इंडिया में थे। अगले साल 2005 में उन्हें टेस्ट कैप मिली। फिर तो पीछे मुड़कर देखने का सवाल ही नहीं था। 2007 में बीसीसीआई ने 26 साल के धोनी को T20 की बागडोर सौंप कर दक्षिण अफ्रीका भेजा, पहले वर्ल्ड टी20 में हिस्सा लेने के लिए। धोनी ने एक ऐसी टीम को वर्ल्ड चैंपियन बना दिया, जिसने टूर्नामेंट के पहले सिर्फ एक T20 मैच खेला था।
2011 वर्ल्ड कप के फ़ाइनल में धोनी का हेलीकॉप्टर शॉट्स उनकी कामयाबियों पर सबसे बड़ा हस्ताक्षर था। 28 साल बाद भारत दोबारा वर्ल्ड चैंपियन बना। एशिया कप, चैंपियंस ट्रॉफ़ी और टेस्ट में नंबर-1 रैंकिंग। धोनी जिस चीज को छू लेते वो सोना बन जाता। जल्द ही वे भारत के सबसे सफल कप्तान बन चुके थे।
एक दशक के अंदर ही छोटे शहर का एक गुमनाम शख्स जिस तेज़ी से दौलत, शोहरत और कामयाबी के शिखर पर पहुंचा वो किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं। जब अहसास हुआ कि बल्ला नहीं चल रहा है तो उन्होंने टेस्ट कप्तानी छोड़ने में भी देर नहीं लगायी।
रांची के राजकुमार के लिए पिक्चर अभी बाकी है। हैप्पी बर्थ डे माही।
कहते हैं, 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात। डीएवी विद्या मंदिर की फ़ुटबॉल टीम के गोलकीपर में कुछ खास बात थी। स्कूल के स्पोर्ट्स टीचर के.आर. बनर्जी की नज़र पारखी थी। उन्हें एक विकेटकीपर की तलाश हुई तो गोलकीपर को विकेटकीपिंग के लिए तैयार कर लिया। नाम था महेन्द्र सिंह धोनी। दोस्त माही पुकारते थे।
1997 में अपने स्कूल की तरफ से माही और उनके साथी शब्बीर हुसैन ने 373 रन बनाए। माही ने 213 रन की पारी खेली। 16 साल का लड़का बड़े शॉट्स के लिए शहर में पहचान बनाने लगा था। सपनों को पंख लगने बस शुरू ही हुए थे। 1997-98 में माही को Vinoo Mankad Trophy Under-16 Championship में पहली पहचान मिली।
रांची से निकलकर 20 साल के माही खड़गपुर पहुंचे। एक रूम के मकान में 4 साल तक रहे और टिकट कलेक्टर का काम किया। रेलवे की तरफ़ से खेलते रहे। उनके बड़े शॉट्स की गूंज चयनकर्ताओं तक भी पहुंच ही गई।
2004 में वे टीम इंडिया में थे। अगले साल 2005 में उन्हें टेस्ट कैप मिली। फिर तो पीछे मुड़कर देखने का सवाल ही नहीं था। 2007 में बीसीसीआई ने 26 साल के धोनी को T20 की बागडोर सौंप कर दक्षिण अफ्रीका भेजा, पहले वर्ल्ड टी20 में हिस्सा लेने के लिए। धोनी ने एक ऐसी टीम को वर्ल्ड चैंपियन बना दिया, जिसने टूर्नामेंट के पहले सिर्फ एक T20 मैच खेला था।
2011 वर्ल्ड कप के फ़ाइनल में धोनी का हेलीकॉप्टर शॉट्स उनकी कामयाबियों पर सबसे बड़ा हस्ताक्षर था। 28 साल बाद भारत दोबारा वर्ल्ड चैंपियन बना। एशिया कप, चैंपियंस ट्रॉफ़ी और टेस्ट में नंबर-1 रैंकिंग। धोनी जिस चीज को छू लेते वो सोना बन जाता। जल्द ही वे भारत के सबसे सफल कप्तान बन चुके थे।
एक दशक के अंदर ही छोटे शहर का एक गुमनाम शख्स जिस तेज़ी से दौलत, शोहरत और कामयाबी के शिखर पर पहुंचा वो किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं। जब अहसास हुआ कि बल्ला नहीं चल रहा है तो उन्होंने टेस्ट कप्तानी छोड़ने में भी देर नहीं लगायी।
रांची के राजकुमार के लिए पिक्चर अभी बाकी है। हैप्पी बर्थ डे माही।
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