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This Article is From Sep 10, 2015

राजीव पाठक : जंगलराज के बावजूद लालू यादव क्यों अब भी हैं पिछड़ों के मसीहा

Rajiv P Pathak
  • चुनावी ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 21, 2015 17:41 pm IST
    • Published On सितंबर 10, 2015 16:36 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 21, 2015 17:41 pm IST
सबसे पहले तो मैं ये बताना चाहता हूं कि ये ब्लॉग लिखने की वजह यह है कि मैं एक नॉन-रेसिडेंट बिहारी हूं। विदेश में नहीं, बल्कि गुजरात के अहमदाबाद में रहता हूं। हर थोड़े वक्त पर बिहार जाता रहता हूं, इसलिए शायद बिहार की बदलती तस्वीर को ज्यादा अच्छी तरह से महसूस कर पाता हूं।

रोज उसे देखने वाले लोगों को कुछ चीजों का बदल जाना बहुत सहज लगता है, लेकिन जब कोई कुछ वक्त बाद कहीं जाता है, तो क्या बदलाव आया, ये ज्यादा स्पष्ट होता है। जैसे बहुत दिनों बाद किसी को मिलते हैं, तो अंदाज होता है कि वह व्यक्ति मोटा हो गया या थोड़ा पतला हो गया। उसी तरह हर थोड़े वक्त पर लालू प्रसाद यादव के राज को भी देखा था। उसके बारे में थोड़ा बताना चाहता हूं। मेरा गांव मधुबनी जिले के पुपरी के पास सुजातपुर है। अब भी गांव में बहुत कम पक्के मकान हैं। पिछले पांच सालों में बिजली जरूर आई है।

जब लालू प्रसाद यादव 1990 में मुख्यमंत्री बने थे, तब मैं छोटा था। 15 साल का था, 10वीं में पढ़ता था। थोड़े दिन बाद जब गांव गया तो सुना कि कल शाम कोई मास्टरजी बैंक से तनख्वाह लेकर घर जा रहे थे, बदमाशों ने पैसे भी छीन लिए और मोटरसाइकिल भी। सुनकर आश्चर्य लगता था कि ऐसा कैसे हो सकता है। अहमदाबाद में तो कभी ऐसा नहीं होता। हालांकि तब गुजरात में न तो नरेंद्र मोदी थे, न बिहार में नीतीश कुमार।

इसी तरह के किस्सों की वजह से अगर हमें पुपरी (जिसे जनकपुर रोड भी कहते हैं) पहुंचने में शाम के 7 बजे जाते थे, तो फिर गांव वहां से 10 किलोमीटर दूर होने के वाबजूद हम वहीं रुक जाते थे और दूसरे दिन सुबह जाते थे, क्योंकि अंधेरे के बाद निकलना सुरक्षित नहीं समझा जाता था। सही मायनों में जंगल राज सा माहौल लगता था। लेकिन आश्चर्य तब हुआ जब अगले चुनाव में लालू यादव फिर चुनकर आए। तब बातें ज्यादा समझ में नहीं आती थीं, लेकिन 1996 में जब पत्रकारिता शुरू की तो बातों को अलग तरीके से समझना शुरू किया। तब समझ में आया कि आखिर लालू यादव क्यों दोबारा चुने गए थे।

मैं खुद किसी जाति-व्यवस्था में यकीन नहीं करता, लेकिन ब्राह्मण परिवार में पैदा होने से उसी वातावरण में पला-बढ़ा। जब छोटा था, शायद 10 साल का, तभी मुझे कुछ बातें बहुत अजीब लगती थीं। मैं इतना छोटा था, लेकिन जब भी गांव में सड़क से गुजरता तो कुछ पिछड़ी जातियों के लोग सड़क के किनारे खड़े होकर दूर से ही 'मालिक प्रणाम' कहा करते थे। मैं इतना छोटा और इतने उम्रदराज़ लोग ऐसा करते थे, यह बहुत अजीब लगता था।

लालू यादव का शासन आया तो शुरुआत में इतना फर्क आया कि धीरे-धीरे लोग सड़क पर खड़े होकर ही प्रणाम करने लगे और मालिक की जगह बाबूजी कहने लगे। वक्त थोड़ा और गुजरा और अब गांव की सड़क पर ये लोग हाथ मिलाकर बात करने लगे।

गांव में ब्राह्मण टोला, जहां मेरा घर है, वहां सब इस बात के लिए लालू को जिम्मेदार ठहराने लगे कि इसी ने पिछड़ी जातियों को सिर चढ़ाया है कि आज ब्राह्मणों से आंख मिलाकर बात करते हैं। काम का पैसा बढ़ा दिया है, वगैरह-वगैरह। तब समझ में आ गया कि जंगलराज के बावजूद लालू यादव दोबारा चुनाव क्यों जीते। लालू यादव ने और कुछ किया हो या नहीं, लेकिन सामाजिक परिवर्तन का एक बहुत बड़ा काम उन्होंने कर दिया था। पिछड़ी जातियां, जो हमेशा से अपने आपको मजबूर महसूस करती थीं, वो लालू यादव के राज में अपने आपको सशक्त समझने लगी। समझने लगी थी कि उनका भी राज है, वो भी इंसान हैं और औरों के बराबर हैं।

लोग भले ही लालू यादव को राजनीति में मजाक का पात्र समझने की भूल करते हों, लेकिन उन्होंने ये बहुत बड़ा काम किया था और शायद यही वजह है कि आज भी बिहार की राजनीति में लालू यादव बहुत बड़ा दखल रखते हैं। उनका मजाक उड़ाया जा सकता है, लेकिन उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता। नीतीश कुमार के राज में क्या परिवर्तन आया इसके बारे में फिर कभी...

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