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This Article is From Feb 20, 2017

रवीश कुमार का ब्‍लॉग: क्या लगता है आपको, यूपी में कौन जीतेगा!

Ravish Kumar
  • चुनावी ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 20, 2017 11:46 am IST
    • Published On फ़रवरी 20, 2017 11:45 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 20, 2017 11:46 am IST
यूपी में कौन जीत रहा है, इस सवाल के दागते ही फन्ने ख़ां बनकर घूम रहे पत्रकारों के पाँव थम जाते हैं. लंबी गहरी साँस लेने लगते हैं. उनके चेहरे पर पहला भाव तो यही आता है कि दो मिनट दीजिये, नतीजा बताता हूँ लेकिन दो मिनट बीत जाने के बाद चेहरे का भाव बदल जाता है. वो इस सोच में पड़ जाते हैं कि पहला नाम किसका लें. बीजेपी कहना चाहते हैं मगर सपा बोलना चाहिए. सपा बोलना चाहते हैं लेकिन कहीं बीजेपी जीत गई तो. बीएसपी को लेकर सब रिलैक्स रहते हैं. हाथी चुनाव चिह्न वाली पार्टी को डार्क हौर्स बताकर चारों तरफ गर्व भाव से गर्दन घुमाते हैं कि देखा, हमने बता दिया. लेकिन पूछने वाला इंतज़ार करता रह जाता है कि पत्रकार महोदय विजेता का नाम कब बतायेंगे. हिन्दी में पूछे गए सवालों के जवाब अंग्रेज़ी में निकलने लगते हैं. डार्क हौर्स, फ़्रंट रनर, सिंगल लार्जेस्ट, हंग असेंबली.

पत्रकारों से लोग उम्मीद करते हैं कि उन्हें सब पता होगा. पत्रकार भी लोगों को इस भ्रम में रखना चाहते हैं कि उसे ही सब पता है. न जानते और न चाहते हुए भी जवाब देने लगते हैं कि कौन जीतेगा. कई बार लगता है कि यूपी में पत्रकार भी चुनाव लड़ रहे हैं. वैसे हर चुनाव में वे चुनाव लड़ते हैं. आपसे क्या छिपाना, मैं भी पूछने लगा हूँ कि यूपी में कौन जीत रहा है. जो पता चलता है वो मैं अगले को बता देता हूँ जो मुझसे पूछता है. अगर किसी ने कहा कि बीजेपी तो बीजेपी बोल देता हूँ. फिर दूसरा फोन आता है तो सपा सुनकर सपा बोल देता हूँ. फिर लोग पूछते हैं कि तुम्हें क्या लगता है. बस इस सवाल के आते ही गंभीरता और साख का वज्रपात हो जाता है. 'कौन जीत रहा है' से ज़्यादा नैतिक दबाव इस सवाल का होता है कि तुम्हें क्या लगता है.

'यूपी में तुम्हें क्या लगता है', इस सवाल  के पूछे जाते ही ऐसा महसूस होता है कि इस दुनिया में अकेले हमीं हैं जो बता सकते हैं कि यूपी में कौन जीत रहा है. सारी साख दाँव पर लग जाती है. तुम्हीं पर भरोसा है. तुम नहीं बोलोगे तो कौन बोलेगा. बस मुद्रायें बदलने लगती हैं. मुद्रायें देखकर लोग करीब आ जाते हैं. घेर लेते हैं. संपूर्ण एकाग्रता. लगता है काश अंतर्ध्यान होने की कला आती तो लोगों को वहीं छोड़ कर ईवीएम मशीन में घुस जाता और नतीजा बता देता.

सब चुप हैं कि यूपी चुनाव का नतीजा बताने का समय आ गया है. अब पत्रकार महोदय घोषणा करने ही वाले हैं. महोदय जी बेचैन कि अब क्या बतायें. न बताओ तो लोग समझेंगे कि बेवकूफ पत्रकार है, इसे कुछ नहीं आता. बोल दे बेटा, यही वक्त है रिस्क लेने का. चार ही तो संभावनाएँ हैं, उसी में से किसी एक पर टिक तो करना है. तभी ध्यान आता है कि ग़लत निकला तब! कोई नहीं इतनी बार इतने सर्वे, इतने चैनल ग़लत निकले हैं तो क्या हुआ.

यूपी के चौदह करोड़ मतदाताओं को प्रणाम. उनकी वजह से देश के चौदह बड़े पत्रकार संकट में आ गए हैं. दिल्ली वाले पत्रकार लखनऊ वालों को कोस रहे हैं, लखनऊ वाले दिल्ली वालों को. वे पहले बीजेपी को जिताते हैं. कुछ लोग सेफ़ चलने के लिए बीजेपी को सबसे बड़ी पार्टी बताते हैं. फिर उसमें बसपा और थोड़ी सी आरएलडी मिलाकर बीजेपी की सरकार बनवा रहे हैं. कुछ लोग बीजेपी के समर्थन से बीएसपी की सरकार बनवाते हैं. तभी सवाल गिरता है कि बहनजी तो हर सभा में बोल रही हैं कि बीजेपी से मिलकर सरकार ही नहीं बनाएँगी चाहे विपक्ष में क्यों न बैठना पड़े. बस यहीं से जवाब पलट जाता है.

अब सबसे आगे बसपा चलने लगती है. महोदय लोग बहन जी की सरकार बनवाने लग जाते हैं लेकिन यहाँ भी दावा करके पीछे हट जाते हैं. सरकार से सबसे बड़ी पार्टी पर आते हैं और सबसे बड़ी पार्टी से तीसरे नंबर की पार्टी पर आ जाते हैं. मायावती को खारिज कर चुप हो जाते हैं. कहीं जीत गईं तो!

अब बचता है गठबंधन. अखिलेश और राहुल की जोड़ी सबसे आगे बताई जाने लगती है. इनकी सरकार बनाते बनाते सपा को भी सबसे बड़ी पार्टी बताई जाती है. फिर कहने लगते हैं कि हिन्दू ध्रुवीकरण हो गया है इसलिए सपा की वैसी लहर नहीं है. अखिलेश को राहुल के साथ नहीं जाना था. सपा के पास ग़ैर यादव वोटर नहीं है. फिर कोई कहता है कि मगर अखिलेश से कोई नाराज़ नहीं मिला. सब कहते हैं कि काम किया. जब तक यह बात याद रहती है, अखिलेश जीत रहे होते हैं. इसके भूलते ही अखिलेश पिछड़ने लगते हैं.

मतलब नतीजा पूछिये तो दस पन्ने की समीक्षा आ जाती है. इस दबाव में पत्रकार अब क़लम तोड़ने लगे हैं. पांच से लेकर पंद्रह फ़ैक्टर गिनाने लग जा रहे हैं. जाट और जाटव बीजेपी से माइनस लेकिन हिन्दू बीजेपी में प्लस. बसपा का जाटव प्लस लेकिन अति पिछड़ा माइनस. नोटबंदी से बीजेपी को फायदा लेकिन बनिया समाज नाराज़. मुसलमान वोट बिखर गया इसलिए बीजेपी को फायदा. मुसलमान बसपा की तरफ कम गया इसलिए सपा को फायदा मगर सपा को हिन्दू वोट नहीं मिला.

सिम्पल बात है. चौदह करोड़ मतदाता इस तरह से वोट करता होगा क्या. ऐसा करते करते पत्रकार अब इतने तनाव में आ गए हैं कि एक दूसरे को ही चैलेंज करने लगे हैं. इन तमाम फैक्टरों पर अपना ट्रैक्टर चलाते हुए पत्रकार यूपी चुनाव के कवरेज की जुताई करने लगते हैं. मिट्टी कोड़ते हैं और फिर बराबर करने लगते हैं. इसलिए सात चरण के इस लंबे चुनाव को अगर कोई सवाल सात साल जितना लंबा लग रहा है तो वह यह कि यूपी में कौन जीतेगा. क्या आप बता सकते हैं कि यूपी में कौन जीतेगा? क्या लगता है आपको?

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