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This Article is From Feb 15, 2017

मायावती के संघर्ष को अन्य नेताओं के समकक्ष न रखे मीडिया

Sarvapriya Sangwan
  • चुनावी ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 15, 2017 21:06 pm IST
    • Published On फ़रवरी 15, 2017 21:06 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 15, 2017 21:06 pm IST
इन दिनों मायावती की चर्चा इस बात पर काफी हो रही है कि मीडिया में उनकी चर्चा नहीं हो रही. खुद मायावती भी इसे अब अपनी रैलियों में कहने लगी हैं. रैलियों में जाकर महसूस किया कि मायावती जिस समाज से आती हैं, उस समाज के लोग उन्हें बहुत आशा भरी निगाहों से देखते हैं, उन्हें किसी हीरो की तरह मानते हैं. मायावती एक बार पूरे 5 वर्षों के लिए सरकार चला चुकी हैं तो अब उनका मूल्यांकन दो तरह से किया जाएगा कि उन्होंने अपने समाज के लिए क्या किया और एक मुख्यमंत्री के तौर पर कैसी रहीं. मूर्तियां और पत्थर लगाने से कई लोगों को नाराज़गी रही. लेकिन किसी लोकप्रिय नेता के नाम पर कब्ज़ा कर लेना और फिर मूर्तियां लगवा देना इस देश के सभी राजनीतिक दलों की राजनीति का हिस्सा रहा है. मायावती ने जो जगहें बनवाईं वो आज लोगों के काम भी आ रही हैं. जैसे हरियाणा में ताऊ देवीलाल पार्क लगभग सभी जिलों में मौजूद हैं. लेकिन जीते-जी खुद की मूर्ति लगवाना भी अपने आप में एक अलग घटना थी.

मायावती को बारीक नज़र से तब भी देखा गया जब उन्होंने 2007 में अपने दम पर सरकार बनाई. उनके हेयर स्टाइल से लेकर उनके पर्स तक पर आर्टिकल लिखे गए. नोटों की माला पर तंज किए गए. बेशक मायावती का ये आचरण अगड़ी जाति वालों को और मीडिया को चुभा होगा लेकिन इसका एक पक्ष ये भी है कि उस बदलाव में एक रिवोल्ट यानि विद्रोह छुपा हुआ था. उनका ऐसा करना दलित समाज में एक आत्मविश्वास भर रहा था. ये देश के लिए एक ऐतिहासिक मंज़र था जब एक दलित महिला अगड़ी जाति के समर्थन के साथ अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई. महिला होने पर ज़ोर है क्योंकि जयललिता हों या ममता बनर्जी हों, पुरुष सत्ता से लड़ना इतना आसान कभी नहीं रहा जहां कानून बनाने वालों ने किसी महिला नेत्री की साड़ी खींची और कभी किसी के बाल खींचे. इस पूरे पक्ष को मीडिया ने महसूस कम किया. मीडिया को कम से कम इस पहलू के लिए हमेशा ही मायावती और वंचित समाज के दूसरे नेताओं को बढ़त देनी चाहिए. उनके संघर्ष को आप दूसरे किसी नेता के समकक्ष नहीं रख सकते.

दलित समाज के लिए तो ये बड़ी बात थी ही. उनके समाज का नेता हेलीकॉप्टर में आ रहा है. महंगे जूते पहन रहा है. शान से चल रहा है. लेकिन जब मायावती की सरकार पर भ्रष्टाचार के दाग लगे तो ये पहलू और हल्का पड़ता चला गया. ‘नेशनल रूरल हेल्थ मिशन’ में कैग ने 4900 करोड़ का घोटाला पकड़ा जिसके बाद मायावती के दो मंत्रियों को इस्तीफा भी देना पड़ा. ये घोटाला सुर्खियों में आया जब उत्तर प्रदेश में दो चीफ मेडिकल अफसरों की संदिग्ध हालात में मृत्यु हो गई. परिवार कल्याण मंत्री रहे बाबू सिंह कुशवाहा को जेल भी काटनी पड़ी. इसके अलावा स्वास्थ्य मंत्री रहे अनंत कुमार मिश्रा पर सीबीआई जांच भी चल ही रही है. मिश्रा के साथ महेंद्र पांडेय और गुड्डू खान घोटाले में हाथ बंटाते थे. 779 एम्बुलेंस खरीदी गईं जिनमें से 600 तो टाटा मोटर्स के यार्ड में ही खड़ी रहीं. आज की तारीख में हम सब जानते हैं कि देश के कितने हिस्सों में एम्बुलेंस का अभाव किस समाज को झेलना पड़ता है. कितने लोगों को अपने परिजनों के शव को कंधे पर ढोकर चलना पड़ता है. कुशवाहा वोट के लिए समाजवादी पार्टी ने उनकी पत्नी और भाई को अपने साथ शामिल किया और बीजेपी ने भी खुद बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल किया लेकिन कड़ी आलोचना के बाद निकाल दिया. मायावती ने पहले मुख़्तार अंसारी को उनके आपराधिक मामलों की वजह से 2010 में निकाला और अब फिर से शामिल कर लिया है. भाजपा तो अपनी एंटी-मुस्लिम छवि के लिए शर्मिंदा भी नहीं होती बल्कि उसे और भुना रही है. राजनीति यही है. अपनी मनचाही पार्टी को आप बरी कर लें.

मायावती का हेलीकाप्टर में आना और शानो-शौकत को अब लोग देख चुके हैं. वो तिलिस्म अब काम नहीं करेगा. मायावती को देखना होगा कि वाल्मीकि समाज उनसे क्यों छिटक गया. उस समाज से कितने लोगों को इस बार उन्होंने टिकट दी. क्यों वाल्मीकि समाज ने 2014 में किसी और पार्टी को वोट दी. क्यों वाल्मीकि नेता दर्शन रत्न रावण का कहना है कि मायावती मजबूरी हैं. दलित समाज का नेता सबसे पहले भाजपा का ही रुख क्यों करता है. क्या ऊना और रोहित वेमुला मामले में मायावती ने अगुवाई करना गैर-ज़रूरी समझा? मायावती राजनीतिक हमले तो कर रही हैं लेकिन विचारधारा के सवाल पर कमज़ोर पड़ रही हैं. वो मुसलमानों को टिकट तो दे रही हैं लेकिन उनके मुद्दों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही हैं. नामलेवा के लिए तो नरेंद्र मोदी ने भी कह ही दिया था कि वो पिछड़ी जाति से हैं.

जहां तक मीडिया में कवरेज की बात है तो ये मीडिया को मायावती के लिए नहीं करना है. मीडिया को ये उस वंचित समाज के लिए करना है जिसकी असुरक्षा की भावना को राजनेता उभारते हैं. मीडिया एंटी-दलित है या प्रो-दलित है, इसका फैसला कैसे हो पाएगा जब प्रधानमंत्री मोदी एक मंच से मीडिया का मज़ाक उड़ाते हुए कहते हैं कि मीडिया वाले हैडलाइन लगाते हैं कि बीएमडब्ल्यू कार ने दलित को कुचला. ये एक सच्चाई तो है कि मायावती को दूसरे नेताओं की अपेक्षा कम कवरेज दिया जा रहा है. इस बात के पीछे मीडिया का एलीटिस्म यानी कुलीन आचरण भी हो सकता है और मायावती का मीडिया से दूर रहना भी. मीडिया से जुड़कर, कई प्रवक्ता बनाकर अपनी विचारधारा को मज़बूती से पेश किया जा सकता है.

हर वोटर की अपनी-अपनी नज़र होती है और अपनी-अपनी प्राथमिकताएं. विकल्पों के अभाव में कभी वोटर इधर चला जाता है और कभी उधर. हार-जीत अलग बात है लेकिन समीक्षा तो होगी ही. मायावती की आलोचना को अब सिर्फ दलित-विरोधी कहकर नहीं टाला जाना चाहिए. उन्हें इन सवालों को एड्रेस करना ही होगा. वरना किसी ज़माने में अधर्मी के टैग लगते ही थे और इस ज़माने में देशद्रोही के लगते ही हैं. एक और सही.


(सर्वप्रिया सांगवान एनडीटीवी में एडिटोरियल प्रोड्यूसर हैं)

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