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This Article is From Feb 07, 2017

रवीश कुमार का ब्‍लॉग: ग़ैर जाटवों को समेटती बसपा के मुश्किल रास्ते

Ravish Kumar
  • पोल ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 07, 2017 13:38 pm IST
    • Published On फ़रवरी 07, 2017 11:00 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 07, 2017 13:38 pm IST
यह लड़का वहाँ खड़ा था जहाँ खड़े होने की जगह नहीं थी. दो टाँग वालों की भीड़ में वह एक टाँग पर खड़ा था. अपने नेता मायावती को एक झलक देखने की वह बेताबी क्या होती है, न तो इसे फ़िल्म स्टार की दीवानगी से समझ सकते हैं और न ही क्रिकेट स्टार की दीवानगी से. सैंतीस साल से बसपा के लिए काम कर रही आशिया बेगम ने कहा कि राजनीति में आस्था होती है. हमारा भविष्‍य आज नहीं तो कल बदलेगा. हमारा नहीं तो इन बच्चों का बदलेगा. बदलाव नेता ही लायेंगे. इसलिए हम बहनजी की हर रैली में आते हैं.

रैलियों की भीड़ का वोट से कोई संबंध नहीं होता. बिहार में इतनी बड़ी रैलियाँ होती थीं मगर उसके अनुपात में बीजेपी को सीट नहीं आई. अब तो मेरठ की रैली में आस-पास के चार-पाँच ज़िलों से लोग लाये जाने लगे हैं. लिहाज़ा भीड़ प्रायोजित होने लगी है.  कोठी मीना बाज़ार के मैदान में आगरा और मथुरा के विधानसभाओं की रैली थी. लोग लाए नहीं जा रहे थे बल्कि आए जा रहे थे. ज़्यादातर ग़रीब और निम्न मध्यम वर्ग के लोग थे. बसपा और अंबेडकरवादी आंदोलन में दीक्षित शिक्षक जमात या छोटे-मोटे कारोबारी दुकानदार नज़र आ रहे थे. इनके बीच वो मिडिल क्लास नहीं दिखा जो टीवी पर इंडिया का प्रवक्ता बनकर दिखता है.
 
bsp rally in agra

साफ है कि मिडिल क्लास को बसपा का क्या क्लास पसंद नहीं आता. वो जातिगत कारणों से भी तमाम दलों को पसंद करता है मगर बसपा को जातिवादी बताकर नापसंद करता है. यह उसका दोहरापन है क्योंकि उसे पता है कि अंबेडकरवादी परंपरा में दक्ष लोग बराबरी माँगते हैं. बराबरी देने के लिए अपनी झूठी ग़ैर बराबरी वाली शान में से कुछ छोड़ना होगा. बसपा को भी टिकट बाँटने के अलावा भी कुछ और करना होगा.  बहुजन निर्माण सिर्फ रणनीतिक चाल से नहीं हो सकता है. बहरहाल अगर यही भीड़ प्रधानमंत्री की रैली में होती तो हर अखबार के पहले पन्ने पर तस्वीर होती. मगर दिल्ली के किसी अखबार के पहले या आख़िरी पन्ने पर आगरा की भीड़ की कोई तस्वीर नहीं छपी होगी.

इन्हीं सब बातों से बसपा के कार्यकर्ता या रैली में आए लोग शिकायत करते मिले कि बहन जी की रैली की भीड़ नहीं दिखाई जाती है. अख़बारों और चैनलों में थोड़ा बहुत समाचार होता है, मगर बहुत कम होता है. बीजेपी और सपा को ज़्यादा जगह मिलती है. उसे यह भी लग रहा है कि मीडिया में नहीं दिखाने से कहीं बसपा पिछड़ न जाए, दिखाने से बसपा का भी माहौल बन सकता है. शिकायत वाजिब है. कुछ दोष बसपा का भी है. अंबेडकरवादी परंपरा में तर्कों से लैस अगर किसी के पास धारदार प्रवक्ताओं की फौज हो सकती थी तो वो बसपा ही है. मगर वहाँ मायावती के अलावा कोई नियमित या खुदरा प्रवक्ता नहीं है. खुदरा प्रवक्ता का मतलब वैसे प्रवक्ता जिनके पास टीवी के डिबेट शो में जाकर एक ही बात बोलने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं होता है.  खुदरा प्रवक्ता का काम बोलना कम, खनकना ज़्यादा होता है.

बसपा के समर्थकों की तादाद बहुत बड़ी है. उनके बीच मीडिया की विश्वसनीय उपस्थिति कमज़ोर होने के कारण व्हाट्स ऐप ने जगह ले ली है. जहाँ सिर्फ एक ही तरह की बात है. लोगों का लगातार पार्टीकरण है. पार्टीकरण और राजनीतिकरण में अंतर होता है.  राजनीतिकरण के लिए आपको तरह-तरह की नई सूचनाओं की ज़रूरत होती है ताकि आप राजनीतिक और व्यक्तिगत विस्तार कर सकें. पार्टीकरण को सूचना से कम सिर्फ निष्ठा से मतलब होता है ताकि लोग कूपमंडूक हो जाएँ. व्हाट्स ऐप की चंद संभावनाओं के बीच जो बड़ा ख़तरा है वो यह कि इससे जनता नकारात्मक हो जाती है. अपनी पार्टी को लेकर शक पाल लेती है. अफवाहों को जगह मिलने लगती है. हर दल में व्हाट्स ऐप के कारण ऐसा हो रहा है. उन दलों में भी हो रहा है जिनके नेता मीडिया को अपने क़ब्ज़े में रखते हैं.

बसपा के समर्थक पार्टी के लिए लड़ते हुए वे मीडिया से भी लड़ते हैं. पंद्रह बीस साल पहले बसपा का नीला झंडा कच्चे घरों पर दिखता था, अब पक्के मकानों पर दिखने लगा है. भले ही ज़्यादातर मकान बाहर से आधे-अधूरे दिखते हैं मगर छतों पर लहराता नीला झंडा उनके आत्मविश्वास की संपूर्णता का प्रतीक है. मीडिया की चमक से दूर उनके कार्यकर्ता गली-गली घूम रहे हैं. नतीजा क्या होगा कोई नहीं जानता मगर यह एक पार्टी है जो मीडिया के बग़ैर चुनाव लड़ रही है. बसपा ने इस बार तरह-तरह के व्हाट्स ऐप मैटीरियल बनाये हैं. इनमें से कई काफी रचनात्मक हैं और बीजेपी की टीम की प्रचार सामग्री को टक्कर देते हैं.
 
bsp rally in agra

मीडिया में बसपा को जाटवों की पार्टी बना दिया गया है. यह बात सच्चाई से दूर नहीं है. कांशीराम ने दलितों और अति पिछड़ों को बहुजन की छतरी के नीचे छिटका था.  ग़ैर जाटव जातियों के कई नेता बसपा से दूर गए हैं. अगर यह बिखराव नहीं रोका गया तो बसपा के लिए मुश्किल है. कार्यकर्ता मानते हैं कि संघ और भाजपा संगठन के दम पर इस बिखराव का लाभ ले रहे हैं. कश्यप, पासी, धोबी और बाल्मीकि समाज बसपा के भीतर जाटव समाज के वर्चस्व से चुनौती पाता रहता है. बसपा के बैनर के नीचे भी वो अपनी जाति के नेता के पीछे लामबंद होना चाहता है. मायावती ने आगरा में कहा कि इस बार दलित समाज सतर्क और सक्रिय है.

क्या इशारा भर कर देने से बात पूरी हो जाती है? मायावती को और खुलकर बोलना होगा. आगरा की रैली में कार्यकर्ताओं ने कहा कि हम समझा रहे हैं कि संघ आरक्षण विरोधी है. आरक्षण बचाना है तो बसपा को मज़बूत करना होगा. लेकिन मायावती ने ऐसी कोई स्पष्ट बात नहीं की.

आगरा की रैली में बसपा के लिए काम करने वाले अश्विनी ने बताया कि पहले हम बाल्मीकि जयंती में नहीं जाते थे. मगर 2014 के बाद से जाने लगे हैं. ये हमारी कमी थी जिसे हमने दूर करने का प्रयास किया है. आगरा की बाल्मीकि जयंती के जुलूस में अब चालीस फीसदी जाटव भी होते हैं. बाल्मीकि समाज के नेता दर्शनरत्न रावण का कहना है कि अभी भी दूरियाँ हैं.  रावण ने पहली बार हिंदुत्व को रोकने के लिए मायावती को समर्थन करने की अपील की है. इस शिकायत के साथ कि उन्होंने बाल्मीकि समाज को एक टिकट नहीं दिया है.

 
bsp rally in agra

बसपा ने इस बार राजू बाल्मीकि को स्टार प्रचारक बनाया है. राजू बाल्मीकि बसपा से लंबे समय से जुड़े हुए हैं. पर क्या वे वाक़ई बाल्मीकि समाज के उतने बड़े नेता हैं जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य थे या नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी हैं या सतीश मिश्रा की पहचान है.  बीएसपी में पहली बार मायावती के अलावा सतीश मिश्रा और नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी को प्रचार के लिए हेलिकाप्टर दिया था. मुझे नहीं मालूम राजू बाल्मीकि किस तरह से बसपा के लिए प्रचार कर रहे हैं. अगर वाक़ई बसपा के समर्थक या कार्यकर्ता गैर जाटव बिरादरी को एकजुट करने को लेकर गंभीर प्रयास कर रहे हैं तो बसपा के लिए अच्छे नतीजों की उम्मीद की जा सकती है. बग़ैर मीडिया और सर्वे के भी बसपा अच्छा कर सकती है. 

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