बिहार में पहले चरण के मतदान के दौरान कतार में लगे मतदाता।
नई दिल्ली:
बिहार में चुनावी मंच सजा है। मंच से अलग वह कमरा भी जरूर होगा जहां पात्र सजते-संवरते हैं और डायलॉग की प्रेक्टिस की जाती है। नाट्यशास्त्र की भाषा में उस कमरे को ग्रीन रूम कहते हैं। राजनीति में भी ग्रीन रूम होता है। वहां बस एक फर्क दिखता है कि पात्रों से ज्यादा कथा लेखकों और चुनावी विद्वानों का प्रभुत्व रहता है। वे ही तय करते हैं कि चुनावी मंच पर क्या बोला जाना है? कैसे बोला जाना है? कहां पर, कब बोला जाना है।
याद आता है कि 25 साल पहले पत्रकारिता के शीर्ष पुरुष प्रभाष जोशी अपने पत्रकारों को टिप्स दिया करते थे कि राजनीति की खबर अंदर से निकालकर लाइए। लेकिन अब अंदर की खबर का जमाना नहीं रहा। राजनीति के फटाफट क्रिकेट जैसे युग में राजनीतिक पात्रों को बोलते हुए दिखाने की पत्रकारिता का युग है। और फिर राजनीति के ग्रीन रूम में पत्रकारिता को घुसने भी नहीं दिया जाता। चुनावी सर्वेक्षण के नाम से अपने-अपने राजनीतिक दलों के पक्ष में हवा बनाने का खेल लगभग पूरे तौर पर उजागर हो चुका है। लिहाजा ओपिनियन पोल पर तो आम मतदाता यकीन ही नहीं करते।
दादरी कांड पर राष्ट्रपति के उद्बोधन का अनुमोदन
खैर भौतिक परिस्थितियां कितनी भी बदल गई हों समझने और समझाने के उपाय और भी हैं। मसलन बिहार में चुनाव के ऐलान के बाद से लेकर मतदान के पहले दौर के शुरू होने तक कोई अंदाजा नहीं लगा पाया कि बिहार में अपनी पार्टी के चुनावी सर्वेसर्वा प्रधानमंत्री आखिर क्या बोल रहे होंगे। इस बीच दादरी कांड को लेकर हरचंद कोशिश के बाद उसे बिहार तक खीचंकर ले जाने के बानक बन नहीं पाए। लेकिन तब तक प्रधानमंत्री पर दादरी पर चुप्पी तोड़ने का दबाव जरूर बन गया। यहीं पर ग्रीन रूम में बुद्धि उत्तेजक सत्र चले होंगे कि प्रधानमंत्री आखिर दादरी पर क्या बोलें? स्वाभाविक है कि बिहार में दादरी किसी फायदे का नहीं दिखने के कारण उसे छोड़ देने या उसका यूं ही जिक्र कर देने की रणनीति बनी होगी। सबूत के तौर पर बेगूसराय में प्रधानमंत्री के भाषण में यह कोशिश साफ तौर पर दिखी। दादरी पर प्रधानमंत्री ने बोला कि किसी की मत सुनिए। उन्होंने यह भी बोला मेरी भी मत सुनिए। और फिर उन्होंने महामहिम राष्ट्रपति के सार्वकालिक निरापद उद्बोधन को सुनने की सलाह दी। वैसे उद्बोधन को, जो हमेशा से ही राष्ट्रपतियों की गरिमा के अनुकूल पूरी सतर्कता के साथ देने का चलन है। इस तरह बड़ी दुविधा की इस स्थिति में कुछ न कहने का लक्ष्य भी सध गया और राष्ट्रपति के उद्बोधन का अनुमोदन करके अपनी चुप्पी तोड़ने का निर्वाह भी कर दिया गया।
लड़ते लोग या लड़वाते लोग?
बहरहाल यह तो थी प्रत्यक्ष यानी राजनीतिक मंच की बात। ग्रीन रूम की कई और हलचलों का भी तथ्यपरक विश्लेषण किया जा सकता है। मसलन प्रधानमंत्री के इसी भाषण में दादरी को अप्रत्यक्ष रूप से एक जगह और लाया गया। प्रधानमंत्री ने कहा कि दोनों धर्म समुदाय के नागरिकों को आपस में लड़ने के बजाए गरीबी के खिलाफ लड़ना चाहिए। इस वाक्य के अर्थ के लिहाज से प्रधानमंत्री का सुझाव दोनों समुदाय के लोगों को गरीबी के खिलाफ मिलकर लड़ने का था, लेकिन इस वाक्य के शुरू में इस्तेमाल उप वाक्य का आशय था कि दोनों समुदायों के नागरिक आपस में न लड़ें। क्या वाकई यह स्थिति है कि नागरिक लड़ रहे हैं? या यह स्थिति है कि उन्हें लड़वाने की कोशिश की जा रही है? सिर्फ एक शब्द का फेर है लड़ते लोग या लड़वाते लोग?
सारी बंदूकों का निशाना लालू पर
प्रधानमंत्री के लिए बुद्धि उत्तेजक विमर्शों के ज्ञान प्रबंधक दादरी की असरदारी का समय भांप नहीं पाए। उसकी तीव्रता का अंदाजा भी शायद नहीं लगा पाए। यह हिसाब भी नहीं लगा पाए कि दादरी से पटना बहुत दूर है। वरना वे सलाह देते कि बिहार में दादरी पर चुप्पी तोड़ने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। अगर किसी ने सोचा हो कि बिहार में मतदान की तारीख पास आते-आते कुछ माहौल बन ही जाएगा, तो यह भी गलत ही निकला। धर्म समुदायों के बीच आग अब उतनी आसानी से भी नहीं भभकती। और फिर पटना की पिच ऐसी बॉलिंग के लिए कभी माफिक नहीं रही। हां इस गफलत में लालू यादव जरूर योद्धा बनते चले गए। महागठबंधन के घोषित नेता और मौजूदा मुख्यमंत्री पर हमले की बजाए सारी बंदूकें लालू पर ही तनी रहीं। इससे बिहार चुनाव में विकास के नारे को उठकर फैलने का खूब मौका मिला। मुख्यमंत्री ने दस साल में अपने कामों की जो फेहरिस्त पेश की वह लगातार पूरी की पूरी मतदाताओं के बीच आसानी से घूमती रही।
फैसला लालू की पारी के बाद के बिहार का
कुल मिलाकर बिहार चुनाव ने एक और प्रतिस्थापना को मजबूत कर दिया है कि चुनावों के आज के दौर में किसी भी सत्ताधरी दल के खिलाफ स्वाभाविक विरोध की प्रवृत्ति कम हो चली है। इसका सबूत यह है कि प्रधानमंत्री ने अपने चुनाव प्रचार के तीसरे दिन औरंगाबाद में सबसे ज्यादा हमला लालू यादव पर ही बोला। औरंगाबाद में प्रधानमंत्री को न चाहते हुए भी लालू के शैतान वाले बयान का लंबाई के साथ एक बार फिर जिक्र करना पड़ा। दरअसल प्रधानमंत्री के मंच पर चढ़ने के पहले ही पार्टी के नेताओं ने मंच से दादरी और बीफ का मुद्दा छेड़ दिया था। प्रधानमंत्री को मजबूरी में उसका जिक्र तो करना ही पड़ा साथ ही साथ लालू शासन के 15 साल के जंगलराज की बात की पुनरावृत्ति करनी पड़ी। इस नारे की असरदारी की अभी पत्रकारीय समीक्षा हुई नहीं है, लेकिन इस नारे में एक झोल यह है कि यह दस साल पहले की बात है और लालू यादव के लगातार तीन बार जनादेश मिलने के महत्वपूर्ण तथ्य का भी विश्लेषण नहीं हुआ है। दस साल पहले लालू के लगातार तीन बार जनता का समर्थन हासिल करने का मतलब है कि कम से कम दस साल तक लालू यादव के कामकाज पर बिहार की जनता ने तारीफ की मुहर लगाई थी। यानी लालू पर 15 साल के जंगलराज का आरोप तथ्यों के लिहाज से वाजिब नहीं बैठता। उनके विरोधी अगर आरोप लगा सकते थे तो सिर्फ उनके आखिरी पांच साल के कामकाज को लेकर ही लगा सकते थे। और अगर समय में पीछे जाकर पड़ताल करें तो लालू के आखिरी कार्यकाल पर बिहार की जनता ने फैसला दे ही दिया था। उसके बाद के घटनाक्रम को बिहार की जनता देख ही रही है। इस चुनाव में जनता को उसी आधार पर अपना फैसला सुनाना है।
पैमाने पर नीतीश की छवि और उनका कामकाज
बहरहाल बिहार में चल रहे चुनाव का पहला चरण पूरा हो गया है। 49 सीटों पर हो चुके मतदान के बाद भी कोई भी विश्लेषक जनता का मूड भांप नहीं पा रहा है। हमारे पास बिहार में पिछले चार हफ्तों के चुनाव प्रचार के दौरान हुईं बातों का विश्लेषण करना ही अकेला विकल्प था। इस विश्लेषण के आधार पर सिर्फ यही कहा जा सकता है कि जनता के सामने नीतीश कुमार की छवि और उनका अब तक का कामकाज है। इस बीच कोई बड़ी घटना नहीं जुड़ी तो लगता है बाकी चार चरणों में यही स्थिति बनी रहने वाली है।
- सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
याद आता है कि 25 साल पहले पत्रकारिता के शीर्ष पुरुष प्रभाष जोशी अपने पत्रकारों को टिप्स दिया करते थे कि राजनीति की खबर अंदर से निकालकर लाइए। लेकिन अब अंदर की खबर का जमाना नहीं रहा। राजनीति के फटाफट क्रिकेट जैसे युग में राजनीतिक पात्रों को बोलते हुए दिखाने की पत्रकारिता का युग है। और फिर राजनीति के ग्रीन रूम में पत्रकारिता को घुसने भी नहीं दिया जाता। चुनावी सर्वेक्षण के नाम से अपने-अपने राजनीतिक दलों के पक्ष में हवा बनाने का खेल लगभग पूरे तौर पर उजागर हो चुका है। लिहाजा ओपिनियन पोल पर तो आम मतदाता यकीन ही नहीं करते।
दादरी कांड पर राष्ट्रपति के उद्बोधन का अनुमोदन
खैर भौतिक परिस्थितियां कितनी भी बदल गई हों समझने और समझाने के उपाय और भी हैं। मसलन बिहार में चुनाव के ऐलान के बाद से लेकर मतदान के पहले दौर के शुरू होने तक कोई अंदाजा नहीं लगा पाया कि बिहार में अपनी पार्टी के चुनावी सर्वेसर्वा प्रधानमंत्री आखिर क्या बोल रहे होंगे। इस बीच दादरी कांड को लेकर हरचंद कोशिश के बाद उसे बिहार तक खीचंकर ले जाने के बानक बन नहीं पाए। लेकिन तब तक प्रधानमंत्री पर दादरी पर चुप्पी तोड़ने का दबाव जरूर बन गया। यहीं पर ग्रीन रूम में बुद्धि उत्तेजक सत्र चले होंगे कि प्रधानमंत्री आखिर दादरी पर क्या बोलें? स्वाभाविक है कि बिहार में दादरी किसी फायदे का नहीं दिखने के कारण उसे छोड़ देने या उसका यूं ही जिक्र कर देने की रणनीति बनी होगी। सबूत के तौर पर बेगूसराय में प्रधानमंत्री के भाषण में यह कोशिश साफ तौर पर दिखी। दादरी पर प्रधानमंत्री ने बोला कि किसी की मत सुनिए। उन्होंने यह भी बोला मेरी भी मत सुनिए। और फिर उन्होंने महामहिम राष्ट्रपति के सार्वकालिक निरापद उद्बोधन को सुनने की सलाह दी। वैसे उद्बोधन को, जो हमेशा से ही राष्ट्रपतियों की गरिमा के अनुकूल पूरी सतर्कता के साथ देने का चलन है। इस तरह बड़ी दुविधा की इस स्थिति में कुछ न कहने का लक्ष्य भी सध गया और राष्ट्रपति के उद्बोधन का अनुमोदन करके अपनी चुप्पी तोड़ने का निर्वाह भी कर दिया गया।
लड़ते लोग या लड़वाते लोग?
बहरहाल यह तो थी प्रत्यक्ष यानी राजनीतिक मंच की बात। ग्रीन रूम की कई और हलचलों का भी तथ्यपरक विश्लेषण किया जा सकता है। मसलन प्रधानमंत्री के इसी भाषण में दादरी को अप्रत्यक्ष रूप से एक जगह और लाया गया। प्रधानमंत्री ने कहा कि दोनों धर्म समुदाय के नागरिकों को आपस में लड़ने के बजाए गरीबी के खिलाफ लड़ना चाहिए। इस वाक्य के अर्थ के लिहाज से प्रधानमंत्री का सुझाव दोनों समुदाय के लोगों को गरीबी के खिलाफ मिलकर लड़ने का था, लेकिन इस वाक्य के शुरू में इस्तेमाल उप वाक्य का आशय था कि दोनों समुदायों के नागरिक आपस में न लड़ें। क्या वाकई यह स्थिति है कि नागरिक लड़ रहे हैं? या यह स्थिति है कि उन्हें लड़वाने की कोशिश की जा रही है? सिर्फ एक शब्द का फेर है लड़ते लोग या लड़वाते लोग?
सारी बंदूकों का निशाना लालू पर
प्रधानमंत्री के लिए बुद्धि उत्तेजक विमर्शों के ज्ञान प्रबंधक दादरी की असरदारी का समय भांप नहीं पाए। उसकी तीव्रता का अंदाजा भी शायद नहीं लगा पाए। यह हिसाब भी नहीं लगा पाए कि दादरी से पटना बहुत दूर है। वरना वे सलाह देते कि बिहार में दादरी पर चुप्पी तोड़ने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। अगर किसी ने सोचा हो कि बिहार में मतदान की तारीख पास आते-आते कुछ माहौल बन ही जाएगा, तो यह भी गलत ही निकला। धर्म समुदायों के बीच आग अब उतनी आसानी से भी नहीं भभकती। और फिर पटना की पिच ऐसी बॉलिंग के लिए कभी माफिक नहीं रही। हां इस गफलत में लालू यादव जरूर योद्धा बनते चले गए। महागठबंधन के घोषित नेता और मौजूदा मुख्यमंत्री पर हमले की बजाए सारी बंदूकें लालू पर ही तनी रहीं। इससे बिहार चुनाव में विकास के नारे को उठकर फैलने का खूब मौका मिला। मुख्यमंत्री ने दस साल में अपने कामों की जो फेहरिस्त पेश की वह लगातार पूरी की पूरी मतदाताओं के बीच आसानी से घूमती रही।
फैसला लालू की पारी के बाद के बिहार का
कुल मिलाकर बिहार चुनाव ने एक और प्रतिस्थापना को मजबूत कर दिया है कि चुनावों के आज के दौर में किसी भी सत्ताधरी दल के खिलाफ स्वाभाविक विरोध की प्रवृत्ति कम हो चली है। इसका सबूत यह है कि प्रधानमंत्री ने अपने चुनाव प्रचार के तीसरे दिन औरंगाबाद में सबसे ज्यादा हमला लालू यादव पर ही बोला। औरंगाबाद में प्रधानमंत्री को न चाहते हुए भी लालू के शैतान वाले बयान का लंबाई के साथ एक बार फिर जिक्र करना पड़ा। दरअसल प्रधानमंत्री के मंच पर चढ़ने के पहले ही पार्टी के नेताओं ने मंच से दादरी और बीफ का मुद्दा छेड़ दिया था। प्रधानमंत्री को मजबूरी में उसका जिक्र तो करना ही पड़ा साथ ही साथ लालू शासन के 15 साल के जंगलराज की बात की पुनरावृत्ति करनी पड़ी। इस नारे की असरदारी की अभी पत्रकारीय समीक्षा हुई नहीं है, लेकिन इस नारे में एक झोल यह है कि यह दस साल पहले की बात है और लालू यादव के लगातार तीन बार जनादेश मिलने के महत्वपूर्ण तथ्य का भी विश्लेषण नहीं हुआ है। दस साल पहले लालू के लगातार तीन बार जनता का समर्थन हासिल करने का मतलब है कि कम से कम दस साल तक लालू यादव के कामकाज पर बिहार की जनता ने तारीफ की मुहर लगाई थी। यानी लालू पर 15 साल के जंगलराज का आरोप तथ्यों के लिहाज से वाजिब नहीं बैठता। उनके विरोधी अगर आरोप लगा सकते थे तो सिर्फ उनके आखिरी पांच साल के कामकाज को लेकर ही लगा सकते थे। और अगर समय में पीछे जाकर पड़ताल करें तो लालू के आखिरी कार्यकाल पर बिहार की जनता ने फैसला दे ही दिया था। उसके बाद के घटनाक्रम को बिहार की जनता देख ही रही है। इस चुनाव में जनता को उसी आधार पर अपना फैसला सुनाना है।
पैमाने पर नीतीश की छवि और उनका कामकाज
बहरहाल बिहार में चल रहे चुनाव का पहला चरण पूरा हो गया है। 49 सीटों पर हो चुके मतदान के बाद भी कोई भी विश्लेषक जनता का मूड भांप नहीं पा रहा है। हमारे पास बिहार में पिछले चार हफ्तों के चुनाव प्रचार के दौरान हुईं बातों का विश्लेषण करना ही अकेला विकल्प था। इस विश्लेषण के आधार पर सिर्फ यही कहा जा सकता है कि जनता के सामने नीतीश कुमार की छवि और उनका अब तक का कामकाज है। इस बीच कोई बड़ी घटना नहीं जुड़ी तो लगता है बाकी चार चरणों में यही स्थिति बनी रहने वाली है।
- सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।
NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं
बिहार विधानसभा चुनाव 2015, पीएम मोदी, चुनावी सभाएं, ग्रीन रूम, लालू यादव, नीतीश कुमार, Bihar Assembly Polls 2015, PM Modi, Election Meetings, Lalu Yadav, Nitish Kumar