वित्तमंत्री अरुण जेटली ( फाइल फोटो)
नई दिल्ली:
भारतीय समाज को ‘..पूतों फलो’ की लालसा छोड़ने का आह्वान करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आज संसद में ‘गुलाबी’ रंग में रंगा आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया, जो महिला सशक्तिकरण का प्रतीक है. इस दौरान देश में पुरुषों के मुकाबले महिलाओें के अनुपात में असंतुलन 6.3 करोड़ महिलाओं की ‘कमी’ को दिखाता है. समीक्षा का रंग महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को खत्म करने के लिए तेज हो रहे अभियानों को सरकार के समर्थन का प्रतीक है. आर्थिक सर्वेक्षण में लैंगिक विकास पर विशेष जोर दिया गया है. देश की आर्थिक प्रगति में बाधक कई लैंगिक असमानता संकेतकों के प्रति सर्वेक्षण में चेतावनी दी गई है. इसमें रोजगार क्षेत्र में असमानता, समाज का पुत्र मोह, गर्भनिरोधक का कम इस्तेमाल इत्यादि को देश के विकास में बाधक बताया गया है.
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सर्वेक्षण में कहा गया है कि जिस तरह की प्रगति भारत ने ‘कारोबार सुगमता’ की रैंकिंग में की है, वैसी ही प्रतिबद्धता उसे स्त्री-पुरुष समानता के स्तर पर दिखानी चाहिए. सर्वेक्षण के अनुसार, कामकाजी महिलाओं की संख्या में उल्लेखनीय कमी आई है. वित्त वर्ष 2005-06 में 36% महिलाएं कामकाजी थीं, जिनका स्तर 2015-16 में घटकर 24% पर आ गया. सरकार की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, सुकन्या समृद्धि योजना और मातृत्व अवकाश की संख्या बढ़ाए जाने को सर्वेक्षण में सही दिशा में उठाया गया कदम बताया. सर्वेक्षण में कहा गया है कि मातृत्व अवकाश बढ़ाए जाने से कार्यस्थल पर महिलाओं को अधिक समर्थन प्राप्त होगा. इन सभी तथ्यों के साथ सर्वेक्षण में कहा गया है कि शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं के लिए अवसर बढ़ाने के लिए राज्यों और अन्य सभी हितधारकों को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है.
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देश में करीब 47% महिलाएं किसी भी तरह के गर्भनिरोधक का इस्तेमाल नहीं करती हैं. जो महिलाएं इसका इस्तेमाल करती भी हैं उनमें से भी एक तिहाई से कम महिलाएं नियंत्रित प्रतिवर्ती गर्भनिरोधक का उपयोग करती हैं. सर्वेक्षण में भारतीय समाज के ‘पुत्र-मोह’ पर भी विशेष ध्यान दिलाया गया है. इसमें अभिभावकों के बारे में कहा गया है कि पुत्रों को पैदा करने की चाहत में वे गर्भ धारण को रोकने के उपाय नहीं अपनाते हैं. गौरतलब है कि इससे कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपराधों का ग्राफ देश में लगातार बढ़ रहा है.सर्वेक्षण के अनुसार इस ‘पुत्र-मोह’ के चलते हमारा देश में बहुतों में लड़कियों को अवांछित मानने की सोच बनजाती है और अनुमान है कि इस श्रेणी में आने वाली लड़कियों की संख्या 2.1 करोड़ से अधिक है. सर्वेक्षण में भारत के लैंगिक स्तर पर 17 मानकों में से 12 में औसत सुधार होने की बात कही गई है.
VIDEO: आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट की 10 खास बातें
वित्त वर्ष 2005-06 में जहां 62.3% महिलाएं अपने स्वास्थ्य के लिए निर्णय करने में शामिल थीं वहीं 2015-16 में यह संख्या बढ़कर 74.5% हो गई. इसी प्रकार शारीरिक और मानसिक हिंसा नहीं झेलने वाली महिलाओं की संख्या भी 63 % से सुधरकर 71% हो गई है. वहीं पहले बच्चे की मां बनने की उम्र में भी 10 सालों में 1.3 वर्ष का सुधार आया है. सर्वेक्षण में बताया गया है कि महिलाओं के विकास से जुड़े विभिन्न मानकों पर पूर्वोत्तर के राज्यों का प्रदर्शन अन्य सभी राज्यों से बेहतर है. वहीं दक्षिण के आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु का प्रदर्शन उम्मीद से खराब रहा है.
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सर्वेक्षण में कहा गया है कि जिस तरह की प्रगति भारत ने ‘कारोबार सुगमता’ की रैंकिंग में की है, वैसी ही प्रतिबद्धता उसे स्त्री-पुरुष समानता के स्तर पर दिखानी चाहिए. सर्वेक्षण के अनुसार, कामकाजी महिलाओं की संख्या में उल्लेखनीय कमी आई है. वित्त वर्ष 2005-06 में 36% महिलाएं कामकाजी थीं, जिनका स्तर 2015-16 में घटकर 24% पर आ गया. सरकार की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, सुकन्या समृद्धि योजना और मातृत्व अवकाश की संख्या बढ़ाए जाने को सर्वेक्षण में सही दिशा में उठाया गया कदम बताया. सर्वेक्षण में कहा गया है कि मातृत्व अवकाश बढ़ाए जाने से कार्यस्थल पर महिलाओं को अधिक समर्थन प्राप्त होगा. इन सभी तथ्यों के साथ सर्वेक्षण में कहा गया है कि शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं के लिए अवसर बढ़ाने के लिए राज्यों और अन्य सभी हितधारकों को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है.
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देश में करीब 47% महिलाएं किसी भी तरह के गर्भनिरोधक का इस्तेमाल नहीं करती हैं. जो महिलाएं इसका इस्तेमाल करती भी हैं उनमें से भी एक तिहाई से कम महिलाएं नियंत्रित प्रतिवर्ती गर्भनिरोधक का उपयोग करती हैं. सर्वेक्षण में भारतीय समाज के ‘पुत्र-मोह’ पर भी विशेष ध्यान दिलाया गया है. इसमें अभिभावकों के बारे में कहा गया है कि पुत्रों को पैदा करने की चाहत में वे गर्भ धारण को रोकने के उपाय नहीं अपनाते हैं. गौरतलब है कि इससे कन्या भ्रूण हत्या जैसे अपराधों का ग्राफ देश में लगातार बढ़ रहा है.सर्वेक्षण के अनुसार इस ‘पुत्र-मोह’ के चलते हमारा देश में बहुतों में लड़कियों को अवांछित मानने की सोच बनजाती है और अनुमान है कि इस श्रेणी में आने वाली लड़कियों की संख्या 2.1 करोड़ से अधिक है. सर्वेक्षण में भारत के लैंगिक स्तर पर 17 मानकों में से 12 में औसत सुधार होने की बात कही गई है.
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वित्त वर्ष 2005-06 में जहां 62.3% महिलाएं अपने स्वास्थ्य के लिए निर्णय करने में शामिल थीं वहीं 2015-16 में यह संख्या बढ़कर 74.5% हो गई. इसी प्रकार शारीरिक और मानसिक हिंसा नहीं झेलने वाली महिलाओं की संख्या भी 63 % से सुधरकर 71% हो गई है. वहीं पहले बच्चे की मां बनने की उम्र में भी 10 सालों में 1.3 वर्ष का सुधार आया है. सर्वेक्षण में बताया गया है कि महिलाओं के विकास से जुड़े विभिन्न मानकों पर पूर्वोत्तर के राज्यों का प्रदर्शन अन्य सभी राज्यों से बेहतर है. वहीं दक्षिण के आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु का प्रदर्शन उम्मीद से खराब रहा है.
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