अमित शाह की पसंद हैं योगी आदित्यनाथ, जानें क्यों...

अमित शाह की पसंद हैं योगी आदित्यनाथ, जानें क्यों...

मीडिया के एक हिस्से में लगातार ऐसी खबरें आ रही हैं कि कट्टर हिंदुत्व के चेहरे योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस ने बड़ी भूमिका निभाई. यह भी अटकलें लग रही हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह किसी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे जिसे प्रशासनिक अनुभव हो और जो जातिगत पहचान से ऊपर हो. हालांकि बीजेपी के सूत्रों ने ऐसी अटकलों से इनकार किया है. उनका कहना है कि योगी आदित्यनाथ शुरुआत से ही बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की पसंद रहे हैं और उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को अपनी पसंद पर मुहर लगाने के लिए तैयार किया. इसी बीच आरएसएस ने भी इन खबरों का खंडन किया है. नीति निर्धारण की उसकी सबसे बड़ी समिति अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक तमिलनाडु के कोयंबटूर में चल रही है और इसी दौरान आधिकारिक रूप से इन खबरों का खंडन किया गया कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री मोदी को फोन कर उनसे संचार मंत्री मनोज सिन्हा के बजाए योगी आदित्यनाथ को मंत्री बनाने को कहा जो कि पीएम मोदी की पसंद माने जाते हैं.

बीजेपी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि शाह योगी आदित्यनाथ की संगठन क्षमता और उनके व्यापक जनाधार से बेहद प्रभावित थे. जब शाह को 2013 में पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाकर उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी गई थी तभी से वे योगी के संपर्क में रहे. तब उन्होंने पार्टी के कमजोर संगठन को दोबारा खड़ा करने के लिए पूरे प्रदेश के व्यापक दौरे शुरू किए. तब उन्होंने कई बार गोरखपुर की यात्राएं कीं और योगी आदित्यनाथ से उनकी लगातार मुलाकातें होती रहीं. शाह के करीबी एक घटना को याद करते हैं. उस समय शाह के पास सुरक्षा नहीं थी. वे राज्य के अंदरूनी इलाकों में घूमते थे. एक बार एक गांव में उत्तेजित गांव वालों ने रास्ता रोक लिया था. तब कुछ फोन कॉल करने के बाद कई बाइक सवार थोड़ी देर में वहां पहुंचे. ये सभी योगी आदित्यनाथ की हिंदू युवा वाहिनी के सदस्य थे. उन्होंने वहां पहुंचकर शाह का रास्ता साफ करवाया.

अपनी कट्टर हिंदुत्व की छवि और जबर्दस्त जनाधार के चलते योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश में बीजेपी को दोबारा खड़ा करने के लिए शाह की स्वाभाविक पसंद बने. शाह ने उन्हें लोकसभा चुनावों के बाद हुए विधानसभा के उपचुनावों में प्रचार अभियान का प्रभारी नियुक्त किया. यह उपचुनाव बड़ी संख्या में बीजेपी विधायकों के लोक सभा में चुने जाने की वजह से हो रहे थे. योगी ने गोरखपुर के बाहर पहली बार बहुत सघन प्रचार अभियान चलाया. खास तौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां मुजफ्फरनगर दंगों की वजह से माहौल काफी तनावपूर्ण था. योगी ने कई उत्तेजक भाषण दिए. लेकिन बीजेपी को इस उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा. साल 2012 में उसके पास 11 सीटें थीं लेकिन इस उपचुनाव में समाजवादी पार्टी सरकार ने आठ सीटें उससे छीन लीं. यह शाह के योगी प्रयोग को बड़ा झटका था. शाह ने यह कहते हुए ढाढस बंधाया कि उप चुनावों में अमूमन जीत सत्तारूढ़ पार्टी की होती है खास तौर से तब जबकि सरकार का कार्यकाल काफी बचा हो.

शाह ने अपनी रणनीति में बदलाव किया. राज्य के अध्यक्ष को बदला गया. ब्राह्मण लक्ष्मीकांत वाजपेयी की जगह ओबीसी केशव प्रसाद मौर्य को लाया गया. वो भी विश्व हिंदू परिषद और राम आंदोलन से जुड़े रहे. शाह ने दूसरी पार्टियों से अलग-अलग जातियों के नेताओं को साथ लाकर एक सतरंगी गठबंधन बनाना शुरू किया. गुलदस्ता बनाने के लिए सबसे ज्यादा नेता बीएसपी से तोड़े गए. उनके निशाने पर गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव अनुसूचित जाति के नेता रहे. बीजेपी ने किसी को भी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित न करने का फैसला किया. इसके बजाए साझा नेतृत्व के तहत चुनाव लड़ा गया. बीजेपी के पोस्टरों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के साथ गृह मंत्री राजनाथ सिंह (ठाकुर), कलराज मिश्र (ब्राह्मण), उमा भारती और केशव प्रसाद मौर्य (दोनों ओबीसी) की तस्वीरें लगाई गईं. योगी आदित्यनाथ के समर्थक नाखुश हुए कि योगी की तस्वीर को जगह नहीं मिली और न ही उन्हें प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया गया. इसीलिए जब सपा-कांग्रेस ने अखिलेश यादव और राहुल गांधी के फोटो के साथ नारा दिया- यूपी को ये साथ पसंद है तो योगी के समर्थकों ने बीजेपी के छह नेताओं के पोस्टर में योगी आदित्यनाथ का फोटो भी डालकर जवाबी नारा दे दिया- यूपी को ये सात पसंद हैं.

इसी बीच बीजेपी के सारे अंदरूनी सर्वेक्षणों में पता चला कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद अगर राज्य में किसी नेता की सबसे अधिक लोकप्रियता है तो वो योगी आदित्यनाथ हैं और लोकप्रियता में वे गृह मंत्री राजनाथ सिंह से भी आगे हैं. बीजेपी को पसंद करने वाले लोगों में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर वे सबसे आगे रहे. उन्हें स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल किया गया और उन्होंने पूरे राज्य में जमकर प्रचार किया. यहां तक कि दिल्ली से सटे गाजियाबाद में भी. उन्होंने कैराना से हिंदुओं के कथित पलायन और बूचड़खाने बंद करने और लव जेहाद को खत्म करने जैसे मुद्दे उठाए.

पिछले चुनावों की तरह उन्होंने इस बार उम्मीदवारों के चयन को लेकर नाराजगी नहीं जताई और पूरे उत्साह से चुनाव अभियान में भाग लिया. यहां तक कि जब उनके कुछ समर्थकों ने हिंदू युवा वाहिनी के नाम पर नामांकन पत्र दाखिल किया तो उन्होंने उन्हें आपराधिक तत्व बताते हुए उनसे दूरी बनाने में जरा भी देरी नहीं की. उन्होंने बताया कि इन लोगों को युवा वाहिनी से काफी पहले ही निकाला जा चुका है. उन्होंने अमित शाह के साथ गोरखपुर में विशाल रोड शो निकाला और घूम-घूमकर यह सुनिश्चित किया कि उनके नाम पर चुनाव लड़ रहे बागी भारी वोटों से हारें.

योगी आदित्यनाथ का बीजेपी से मधुर संबंधों का इतिहास नहीं रहा है. उनके गुरुओं के राजनीतिक संबंध हिंदू महासभा से रहे जो भारतीय जनसंघ के विरोध में रही. बाद में महंत अवैद्यनाथ बीजेपी के सांसद बने और योगी ने मठ और उनकी राजनीतिक विरासत की कमान उन्हीं से संभाली. केशव प्रसाद मौर्य की ही तरह योगी आदित्यनाथ भी राम जन्मभूमि आंदोलन की उपज हैं और इसी वजह से वे बीजेपी के करीब आए. लेकिन वे गोरखपुर के क्षेत्र में बीजेपी उम्मीदवारों के चयन में अपनी चलाना चाहते रहे और इसी वजह से बीजेपी और उनका टकराव भी होता रहा.

आम धारणा के विपरीत योगी के आरएसएस के साथ कभी गर्मजोशी वाले संबंध नहीं रहे. संघ उनके स्वछंद और गर्म तेवरों के प्रति हमेशा आशंकित रहा. बीजेपी नेताओं के मुताबिक संघ परिवार में अगर कोई नेता योगी के करीब रहा तो वे थे वीएचपी के स्वर्गीय नेता अशोक सिंघल जो बीजेपी से दूर होते योगी को हमेशा करीब लाते रहे.

बीजेपी नेताओं का कहना है कि योगी आदित्यनाथ का नाम आगे बढ़ाकर शाह ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि बीजेपी 2019 का लोकसभा चुनाव ज्यादा बड़े हिंदू ध्रुवीकरण के आधार पर लड़े क्योंकि उन्हें अंदेशा है कि बीजेपी से लड़ने के लिए सभी विपक्षी पार्टियां महागठबंधन बनाएंगी और इस बार बीएसपी भी इसमें शामिल होगी. शाह चाहते थे कि कल्याण सिंह की ही तरह कोई ताकतवर नेता मुख्यमंत्री बने जो कानून व्यवस्था के मुद्दे पर ठोस फैसले ले सके. पीएम मोदी की ही तरह योगी आदित्यनाथ को अपनी हिंदुत्व की छवि को रेखांकित करने के लिए कोई बड़ा कदम उठाने की जरूरत नहीं है क्योंकि उनके कट्टर समर्थकों का उनमें विश्वास बना रहेगा. लेकिन अगर वे कुछ वादे भी पूरे कर सकें तो बीजेपी सरकार विरोधी उस धारणा का सामना कर सकेगी जो 2019 के बेहद अहम लोकसभा चुनाव से पहले कुछ हद तक बनने लग सकती है.


(अखिलेश शर्मा एनडीटीवी इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं।)

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