सबसे पहले तो यह कि नए नाम क्या हो सकते हैं, बल्लेबाज़ के लिए बल्लेबाज़िन, बैट्सवूमैन, विकेटकीपरनी, गेंदबाज़िन...? फेसबुक पर यह सवाल डाला, तो लोगों ने और भी क्रिएटिव जवाब भेजे. जैसे वूमैन ऑफ द मैच और अंपायरनी. और लगा कि यह सिलसिला लंबा चलेगा. होना भी चाहिए, क्योंकि इस साल के महिला विश्वकप पर लोगों का जितना ध्यान गया, उतना पहले कभी नहीं गया था. पिछली बार 2005 में टीम फाइनल में गई थी. तब भी कैप्टन मिताली राज ही थीं. मैं भी उस वक्त न्यूज़ चैनल में ही था. उस टूर्नामेंट को लेकर मुझे तो कुछ याद नहीं आता कि इस कदर उत्सुकता थी.
मेरे लिए इस बार का टूर्नामेंट शुरू हुआ मिताली राज के बयान के साथ. एक जवाब में इस खिलाड़ी ने हमारी सोच को ऐसा उघाड़ा कि सभी चौंक गए. एक रिपोर्टर ने मिताली राज से पूछा कि आपके फेवरेट पुरुष क्रिकेटर कौन हैं, इस पर मिताली राज ने पलटकर प्रश्न किया कि क्या आप पुरुष क्रिकटरों से भी यह सवाल पूछते हैं...? इस सीधे-से जवाबी-सवाल ने काफी तारीफ तो बटोरी ही, हम सबके भीतर की मर्दवादी सोच को आईना भी दिखाया. महिला खिलाड़ियों से लिए जाने वाले इंटरव्यू से आदतन अब एक सामान्य उम्मीद हो गई है कि ऐसे ही किसी मेल खिलाड़ी या फिल्म स्टार के बारे में सवाल पूछा जाएगा और खिलाड़ी लजाते-सकुचाते हुए कुछ जवाब देंगी और वही हेडलाइन बन जाएगा, साउंडबाइट बन जाएगा. एक ऐसे भाव का शक होता है, जो कहता है कि इतने सालों तक इतनी मेहनत करने वाली खिलाड़ियों की पूरी कोशिश 'बाई द वे' ही है, जिनका असल प्रारब्ध 'सुल्तान की अनुष्का शर्मा' हो जाना है.
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मैंने मिताली राज की ख़बर सर्च करने के लिए गूगल पर टाइप किया तो सबसे पहला सर्च, जो ट्रेंड कर रहा था, वह था 'मिताली राज हसबैंड'. सबसे पहले उनके पति की खोज की गई है. यही आमतौर पर होता है. अवचेतन, यानी सबकॉन्शस लेवल पर हमें इतनी आदत है, और यही अहमियत है महिला की पहचान की, कि उसके वजूद को पास के मेल फिगर से जोड़कर देखना. इस सर्च से मुझे आश्चर्य नहीं हुआ. सानिया मिर्ज़ा के मामले में देख चुके हैं हम, कि कैसे सानिया की उपलब्धियों से ज़्यादा उनके पति का ज़िक्र किया जाता है. मेरी क्रिकेट में जानकारी बहुत नहीं है, लेकिन इतना तो लगता है कि शोएब मलिक क्रिकेट के इतने बड़े खिलाड़ी तो नहीं हैं कि सानिया के ज़िक्र से पहले उनकी चर्चा हो. इसमें भले ही भारत-पाकिस्तान का एंगल कम और मर्दवादी सोच का एंगल ज़्यादा लगता है. वहीं मिताली राज की तुलना करनी थी, तो 'लेडी विराट' के नाम से की गई.
मैं यह सब इसलिए नहीं लिख रहा, क्योंकि मुझे लगता है कि मैं इस सोच से मुक्त हूं. मैं इसलिए लिख रहा हूं, क्योंकि मैं स्वीकारता हूं कि सूक्ष्म स्तर पर मर्दवादी सोच कैसे-कैसे छिपकर बैठी हुई है हममें. क्योंकि प्रभावित होने और खुश होने से पहले मैं भी चौंका था मिताली राज के जवाब से. मिताली ने मुझ जैसों को भी झकझोरा था. उनके जवाब ने खुद से सवाल करने पर मजबूर किया था कि क्या मैं भी इससे पहले तक, तमाम रिपोर्टरों के ऐसे सवालों को स्वीकार नहीं करता रहा हूं. फोगाट बहनों के साथ कपिल शर्मा के शो का कुछ हिस्सा देखकर मैं भी तो हंसा था. विराट कोहली के प्रदर्शन पर अनुष्का शर्मा को लेकर बने चुटकुले भेजने वालों को मैंने भी नहीं रोका था. देश के लिए मेडल जीतने वालियों के संघर्ष की कहानी की बजाय उनके फेवरेट बॉलीवुड हीरो की ख़बर पर क्लिक करने से पहले मैं भी नहीं हिचका था. और मैं अकेला नहीं था, जिन्हें रोज़ अपनी सोच को बदलने के सिलसिले को शुरू करना होगा.
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यह सोच वैसी बिल्कुल नहीं है, जो ऋषि कपूर की तरह ट्वीट करें कि सौरव गांगुली जैसा सेलिब्रेशन होने वाला है या नहीं. यह वह सोच है, जिस पर हज़ारों सालों की धूल जमी है, जिससे साफ दिखना बंद हो जाता है, आसपास के माहौल में यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल हो जाता है कि हमारी धारणाएं कितनी पुरातन हैं और उन्हें झाड़ने-पोंछने का वक्त आ गया है, बदलने का वक्त आ गया है. क्योंकि भविष्य 'बेटर हाफ' या 'देवी' जैसे जुमलों और नारेबाज़ी का नहीं है. भविष्य असल बराबरी का है, सोच में बराबरी का है और भविष्य महिलाओं का ही है. केवल खिलाड़ी नहीं. घरों में, बोर्ड ऑफ डायरेक्टरों में, अस्पतालों में, राजनीति में. वैसे भी पुरुषों ने दुनिया चलाकर क्या दुर्गति की है, वह तो दिखता ही रहता है.
...तो 'हार गए, पर दिल जीता' जैसी पंचलाइन जब थोड़ी बसिया जाएंगी, तो उसके बाद भी हमें इस मुद्दे पर सोचना होगा, नई शब्दावलियों पर काम करना होगा. हम शब्दावलियां बदलने के युग में प्रवेश कर चुके हैं.
क्रांति संभव NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर और एंकर हैं...
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