एम.एस. धोनी के बारे में साल 2003 के आसपास तब सुना था, जब वह जून के महीने में शिमला के रोहड़ू में पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के पिता महाराज पदम सिंह मेमोरियल क्रिकेट टूर्नामेंट में खेल रहे थे. इस मैच में उन्होंने UP के खिलाफ 'धमाका' किया! तब मैटिंग पिच (हरे रंग की कृत्रिम चटाई) पर खेलते हुए UP टीम करीब 150 के आसपास आउट हो गई थी. झारखंड की टीम ने आसानी से मैच जीत लिया, लेकिन यहां एक बहुत चौंकाने वाली बात थी. धोनी ओपनिंग करने आए और 14-15 छक्कों के साथ एक छोर पर करीब 110 रन बनाकर नाबाद रहे, दूसरे छोर पर बल्लेबाज़ का स्कोर 20 के आसपास था. छक्के ऐसे कि बाउंड्री पर खड़ी कई कारों के शीशे टूट गए. यहीं से एम.एस. धोनी को फॉलो करना शुरू किया!
अख़बार के उनके प्रदर्शन पर नियमित अंतराल पर नज़र रखते रहे, और फिर 2004 में दलीप ट्रॉफी मैच के सीधे प्रसारण के दौरान उन पर नज़र पड़ी. उत्तर क्षेत्र के खिलाफ चार-दिनी मुकाबले में दोपहर में पारी की शुरुआत करने उतरे धोनी ने आशीष नेहरा के पहले ओवर की शुरुआती दो गेंदों पर चौके जड़े. तीसरी पर बोल्ड हो गए! सवाल कौंधने लगे - इनिंग क्रिकेट में यह कैसी बल्लेबाजी, आखिर इस तरह कैसे खेल सकते हैं धोनी, आखिर यह कैसी सोच है...? वगैरह-वगैरह, लेकिन यह अलग ही सोच थी और अगले ही साल 2004 में केन्या में आयोजित 'ए' टीमों की त्रिकोणीय सीरीज़ में भारत 'ए' के लिए खेलते हुए पाकिस्तान 'ए' के खिलाफ उनकी बैटिंग ने अभिभूत कर दिया! वास्तव में इसी सीरीज़ के प्रदर्शन से एम.एस. धोनी सेलेक्टरों और मीडिया के मन में घर कर गए. ठसक के साथ नई तरह की बैटिंग, मिडऑफ के ऊपर से तेज़ गेंदबाज़ों के खिलाफ इन-साइड-आउट लंबे-लंबे छक्के! बड़ी-ब़ड़ी लहराती जुल्फों के साथ भारतीय क्रिकेट में यह अलग तरह की एप्रोच थी, जो पहले कभी नहीं देखी गई. बेझिझक अंग्रेज़ी बोलते हुए कॉन्फिडेंस से भरपूर, पर ठहरे हुए पानी की तरह एकदम शांत बॉडी लैंग्वेज! नर्वसनेस का दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं... और करियर के आखिर तक धोनी की इस एप्रोच का स्तर ऊंचा होता गया. फिर बात चाहे मैदान की हो, या मैदान से बाहर की.
साल 2005 में संयोगवश मेरठ में खेल उत्पाद बनाने वाली कंपनी में उनसे मुलाकात हुई, तो गज़ब के एथलीट-जैसे शरीर और आम आदमी वाली बॉडी लैंग्वेज और बातचीत का अंदाज़ दिल में उतर गया. और फिर कुछ ही साल के भीतर धोनी पूरे देश की नहीं, क्रिकेट खेलने वाले सभी देशों की मीडिया और प्रशंसकों की आंखों का तारा बन चुके थे. सचिन को पीछे छोड़ देश के तमाम न्यूज़ चैनलों के आकर्षण का केंद्र बन गए. जहां बाकी खिलाड़ी मीडिया से बचते थे, वहीं मीडिया से बातचीत का उनका अंदाज़ ही निराला था! मीडिया ने उन्हें पलकों पर बिठा लिया, और देखते ही देखते वह बाज़ार के बाज़ीगर बन गए! धोनी ऐसे राज्य से आते थे, जिसकी टीम नॉकआउट दौर में भी नहीं पहुंच पाती थी. ऐसे में सवाल लगातार मन में कौंधता रहा कि क्या उनके मन में अपने सीनियर सबा करीम की तरह राज्य बदलने का विचार नहीं आया...? सालों पहले एक निजी चैनल को दिए धोनी के एक इंटरव्यू में ऐसे सवालों का जवाब या 'धोनी मैनेजमेंट' का पता चलता है :
"मैंने कभी टीम इंडिया खेलने का लक्ष्य नहीं बनाया था, मैं इस सोच के साथ खेला कि मैं आने वाले कल में जो भी और जिस भी टीम के लिए मैच खेलना है, मुझे उसमें बेहतर करना है..."
यह 'माही मैनेजमेंट' का अपना नज़रिया था और वर्तमान में जीने के नज़रिये से माही सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते गए. ऐसा मैनेजमेंट, जिसे बाद में साल 2011 में बेंगलुरू के IFIM बिज़नेस स्कूल में पाठ्यक्रम में शामिल किया गया. इसे पाठ्यक्रम में धोनी की नेतृत्व क्षमता के बारे में एक अनिवार्य पेपर के रूप में शामिल किया गया, तो रांची IIM ने उनकी ब्रेन मैपिंग करने का फैसला किया. और कौन जानता है कि आने वाले समय में 'माही मैनेजमेंट' देश के अग्रणी शिक्षण संस्थान IIM के पाठ्यक्रम में शामिल हो जाए! वास्तव में यह मैनेजमेंट का कॉन्फिडेंस ही था, जिसके बूते इस निम्न-मध्यमवर्गीय घर के लड़के ने रेलवे की सरकारी नौकरी छोड़कर अपने सपने को अमली जामा पहनाने की ठानी. ऐसे देश में जहां आज भी सैकड़ों की संख्या में दलीप ट्रॉफी क्रिकेट खेल चुके प्रथम श्रेणी क्रिकेटर रेलवे की नौकरी हासिल करने के लिए जूझते हैं या जूझ रहे हैं, धोनी का यह फैसला उस 'माही मैनेजमेंट' का आधार बना, जिसमें उन्होंने कई नए और सुनहरे अध्याय जोड़ डाले.
मसलन क्रिकेट के तमाम तर्कों से ऊपर उठकर साल 2007 में दक्षिण अफ्रीका में खेले गए पहले टी-20 वर्ल्ड कप में पाकिस्तान के खिलाफ फाइनल में आखिरी ओवर जोगिंदर शर्मा को थमाकर सभी को हैरान कर देना, साल 2011 विश्व कप के फाइनल में युवराज से पहले खुद को प्रोन्नत कर चुनौती को स्वीकार करना. और जब नाराज़ होकर सेलेक्टरों को मैसेज देना हो, तो विकेटकीपिंग पैड उतारकर गेंदबाज़ी (लॉर्ड्स, 2011, पहला टेस्ट) शुरू कर देना. यह 'माही मैनेजमेंट' था कि कप्तानी संभालने के कुछ साल के बाद ही 'इंडिया (बड़े व मेट्रो शहर)' की टीम 'भारत (छोटे शहर)' की टीम में बदल गई!
माही की टीम में 'इंडिया' के बड़े और क्रिकेट-केंद्रित शहरों के बजाय छोटे शहरों या कस्बों के लड़कों को जगह मिलनी शुरू हो गई. मसलन मुरादनगर से सुरेश रैना, रायबरेली से रुद्रप्रताप सिंह, अलीगढ़ से पीयूष चावला, राजकोट से रवीद्र जडेजा वगरैह-वगैरह. यह 'भारत' की टीम थी, जिसका मिजाज़ और 'चरित्र' बदल चुका था. छोटे शहरों के लड़के बल्ले और गेंद से आग उगल रहे थे! और यह 'माही मैनेजमेंट' के इसी 'बीजारोपण' का असर है कि आज बात छोटे शहरों से आगे निकलकर कस्बों तक पहुंच गई है! मेरठ जिले के छोटे से कस्बे किला परीक्षतगढ़ के इंडिया अंडर-19 के कप्तान प्रियम गर्ग और हापुड़ जैसे जिलों से कार्तिक त्यागी जैसे सीम गेंदबाज़ इसका जीता-जागता उदाहरण हैं.
लेकिन करियर खत्म होते-होते 'माही मैनेजमेंट' ने पूरे देश के युवाओं के सामने एक अलग और बहुत बड़ी नज़ीर स्थापित कर दी, जिसका अध्ययन कर वे सार्वजनिक जीवन में आगे बढ़ सकते हैं. क्रिकेट में खुद को न संभालने के चलते अनेक क्रिकेटर देश, राज्य स्तर पर ही बिखरकर रह गए, कई बेहतरीन क्रिकेटरों का करियर खुद को सही तरह मैनेज न कर पाने के कारण असामयिक रूप से खत्म हो गया, लेकिन दिन की समाप्ति पर करीब डेढ़ हजार करोड़ रुपये की नेटवर्थ (शुद्ध संपत्ति = कुल संपत्ति - कुल देनदारी) होने, करीब 25 महंगी मोटरबाइक, करीब 12 चौपहिया वाहनों का मालिक होने के बावजूद धोनी ने हमेशा अपने पैर ज़मीन पर बहुत मज़बूती से टिकाए रखे. यह अपनी तरह का अलग वैचारिक फेवीकॉल था! धोनी ने उस स्टारडम से खुद को रत्ती भर भी नहीं बहकने दिया, जिसमें खोकर अनगिनत खिलाड़ियों का करियर खत्म हो गया. रांची की सड़कों पर बाइक चलाने, दोस्तों के साथ सड़कों पर चाट खाने, बचपन के दोस्तों को अपनी कंपनी से जोड़ने आदि तमाम बातों से उनके जीवन के प्रति दृष्टिकोण का पता चलता है. एम.एस. के मैनेजमेंट की फिलॉसफी का पता - "मैं पल दो पल का शायर हूं..." से भी अच्छी तरह समझा जा सकता है.
एक ऐसा व्यक्तित्व, जो साथियों के कंधों पर दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच खेल से अलग होने के बजाय चुपचाप बिना किसी शोर-शराबे के खेल को अलविदा कह देता है. फिर चाहे बात टेस्ट से अलग होने की हो या वन-डे से. विश्वास कीजिए, IPL में भी कुछ ऐसा ही होगा! यही एम.एस. की पर्सनैलिटी है! ऐसा कप्तान, जो ट्रॉफी जीतने के बाद स्टेज पर इसे युवाओं को सौंपकर पीछे चला जाता है. यही 'माही मैनेजमेंट' है, जो क्रिकेट में ही नहीं, सभी व्यवसायों के युवाओं को विचार देता है कि यही जीवन जीने का सही तरीका है.
...और इसी 'माही मैनेजमेंट' की कमी आने वाले कई सालों तक टीम इंडिया को खलेगी! भरपाई कब होगी, होगी या नहीं होगी, ईश्वर ही जानता है.
मनीष शर्मा Khabar.Ndtv.com में बतौर डिप्टी न्यूज एडिटर कार्यरत हैं
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