रफाल मामले की कहानी 360 डिग्री घूम कर फिर से वहीं पहुंच गई है. क्या ऐसा सुना था आपने कि पहले प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में रक्षा मामले की मंत्रिमंडल समिति जिन शर्तों के साथ डील को पास करे, उसके कुछ दिनों बाद रक्षा मंत्रालय की समिति उन शर्तों को हटा दे. 11 फरवरी को द हिन्दू अखबार में एन राम ने जो खुलासा किया है और उसके समर्थन में जो दस्तावेज़ छापे हैं वो बता रहे हैं कि रफाल डील में सब कुछ पाक-साफ नहीं है.
आपको याद होगा कि 8 फरवरी को भी एन राम ने रिपोर्ट की थी. उससे अलग 11 फरवरी की रिपोर्ट कई सवालों को उठाती है. रक्षा ख़रीद प्रक्रिया 2013 के तहत हर तरह की रक्षा खरीद के लिए तय किया गया कि इंटेग्रिटी क्लाज़ होगा. यानी अगर डील में शामिल कंपनी बाहर से दबाव डलवाएगी, एजेंट या एजेंसी को या उसके ज़रिए रिश्वत देगी तो उसे दंड दिया जाएगा. एन राम की रिपोर्ट बताती है कि रफाल डील से इस क्लाज़ को हटा दिया गया. सवाल उठता है कि कोई भी सरकार इस तरह की शर्त को क्यों हटवाना चाहेगी. एन राम ने लिखा है कि भारत सरकार ने फ्रांस की दोनों कंपनियों दास्सो और एमबीडीए फ्रांस को इस शर्त से छूट दे दी. इस बात को लेकर इंडियन नेगोशिएटिंग टीम के तीन बड़े अधिकारी एम पी सिंह, ए आर सुले और राजीव वर्ना ने कड़ी आपत्ति जताई और लिखा कि भ्रष्टाचार विरोधी प्रावधान हटा देने से जो कमर्शियल सप्लायर हैं उनसे सीधे बिजनेस का रास्ता खुल जाता है. जब खरीद दो सरकारों के बीच हो रही है तब फिर फ्रांस सरकार अपनी जवाबदेही इन कंपनियों पर कैसे टाल सकती है. जब फ्रांस सरकार जवाबदेही नहीं लेगी तब फिर दो सरकारों के बीच डील का क्या मतलब रह जाता है. यही नहीं तीनों अधिकारी लिखते हैं कि ऐसा करना वित्तीय ईमानदारी की बुनियादी शर्तों से समझौता करना है जो उचित नहीं होगा.
भारतीय बातचीत दल के तीन अधिकारी सदस्य लिखते हैं कि ऐसा करना वित्तीय ईमानदारी की बुनियादी शर्तो से समझौता करना होगा. ये कैसी डील है कि रक्षा सचिव से लेकर भारतीय बातचीत दल के अधिकारी अलग अलग स्तर पर सवाल उठा रहे हैं. 8 फरवरी की रिपोर्ट में आपने देखा था कि रक्षा सचिव सहित कई अधिकारी फाइल पर लिख रहे हैं कि प्रधानमंत्री का कार्यालय अपने स्तर पर शामिल हो गया है. रक्षा मंत्रालय को बिना बताए फ्रांस से बातचीत करने लगा है जिसके कारण उनके मोलभाव की क्षमता पर असर पड़ रहा है. अब 11 फरवरी की रिपोर्ट और भी गंभीर सवाल खड़े करती है.
24 अगस्त 2016 को रक्षा मामलों की मंत्रिमंडल समिति की बैठक होती है. इस बैठक की अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेंद मोदी करते हैं. इसके बाद सितंबर 2016 में रक्षा ख़रीद परिषद की बैठक होती है. इसकी अध्यक्षता रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर करते हैं. इस बैठक में आठ शर्तों को हटा दिया जाता है. जिसमें भ्रष्टाचार निरोधक प्रावधान को भी हटाया जाता है. 23 सितंबर 2016 को भारत और फ्रांस के बीच समझौते पर दस्तखत होता है.
अजय शुक्ला ने अभी साफ किया कि ऐसा कब होता है कि जिन शर्तों पर प्रधानमंत्री की कमेटी डील को मंज़ूरी देती है, उसे रक्षा मंत्रालय की कमेटी हटा देती है. क्या इसके बाद भी सरकार पारदर्शिता का दावा करना चाहेगी, क्या उसे बताना नहीं चाहिए कि रफाल डील से भ्रष्टाचार न करने की शर्तें क्यों हटाई गईं. क्या ऐसा किसी तरह से लेन-देन का रास्ता बनाने के लिए किया गया था. आखिर दास्सो कंपनी और हथियारों की सप्लाई करने वाली कंपनी को एमबीडीए फ्रांस को भ्रष्टाचार विरोधी शर्तों से रियायत क्यों दी गई.
एन राम ने इसके साथ ही एक और खुलासा किया है. फ्रांस की सरकार अपनी तरफ से गारंटी नहीं देना चाहती थी. बैंक गारंटी भी नहीं देना चाहती थी. तब रक्षा मंत्रालय की तरफ से सुझाव दिया गया कि एक एस्क्रो अकाउंट बनाया जाए. मतलब फ्रांस सरकार के पास खाता हो, भारत सरकार उस खाते में पैसा डालेगी और फ्रांस की कंपनियों को पैसे का भुगतान किया जाएगा. मगर इस प्रस्ताव को भी किनारे लगा दिया गया. कोई भी सरकार क्यों इस तरह की डील करना चाहेगी कि हमारा पैसा आप ले लें मगर हमें आपसे कोई गारंटी नहीं चाहिए. लेटर ऑफ कंफर्ट मिला लेकिन उसे कानूनी हैसियत हासिल नहीं है. एन राम ने सुधांशु मोहंती का एक नोट छापा है. सुधांशु मोहंती उस वक्त डिफेंस सर्विस के वित्तीय सलाहकार थे. अखबार ने सुधांशु मोहंती के नोट की कॉपी भी छाप दी है. जिसमें वे लिखते हैं कि काश मेरे पास पूरी फाइलें और तमाम मसलों पर विचार करने के लिए पर्याप्त समय होता. अब चूंकि रक्षा मंत्री को फाइल तुरंत ही चाहिए इसलिए मैं वित्तीय नज़रिए से कुछ बातें रखना चाहता हूं.
अब आप 8 फरवरी की रिपोर्ट याद करें. जो नोट द हिन्दू ने प्रकाशित किया था उस पर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर के हस्ताक्षर 11 जनवरी 2016 के हैं. पहली बार तीन अधिकारी 24 नंवबर 2015 को एतराज़ जताते हैं. एक महीने से अधिक समय के बाद रक्षा मंत्री लिखते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय डील की मॉनिटरिंग कर रहा है. आप लोग उनके प्रधान सचिव से बात कर मामले को सुलझा लें. रक्षा मंत्री यह नहीं लिखते हैं, आपके उठाए सवाल गलत हैं. सुधांशु मोहंती का नोट 14 जनवरी का है यानी तीन दिन बाद. रक्षा मंत्री जिस फाइल पर साइन करने में एक महीने से अधिक समय लगा देते हैं, तीन दिन में ऐसा क्या हो गया कि सुधांशु मोहंती जो कि वित्तीय सलाहकार हैं उन्हें फाइल पढ़ने का पूरा वक्त ही नहीं मिला. सुधांशु मोहंती खैर जल्दी में सुझाव देते हैं कि अब जब न बैंक गारंटी आ रही है और न सरकार की गारंटी आ रही है तब ऐसी स्थिति में सरकार के हितों की रक्षा कैसे होगी. सरकार के खाते से किसी भी अग्रिम भुगतान को बैंक गारंटी मिलनी चाहिए. हमें इस बात को लेकर सतर्क रहना चाहिए कि इससे लागत बढ़ सकती है. इसलिए बैंक गारंटी के साथ लागत और बिना बैंक गांरटी के साथ लागत का प्रस्ताव मांगना चाहिए.
सुधांशु मोहंती साफ साफ लिख रहे हैं कि पैसा देने के मामले में फ्रांस की सरकार को शामिल करना चाहिए. यह भी हो सकता है कि एक एस्क्रो अकाउंट बने. यह खाता फ्रांस सरकार के नियंत्रण में है. भारत सरकार उस खाते में पैसा जमा करे और वहां से पैसा इन कंपनियों को दिया जाए. ऐसा करने से इस डील में फ्रांस की सरकार नैतिक रूप जवाबदेह हो जाती है. उस पर सप्लाई सुनिश्चित कराने में भी जवाबदेही आ जाती है. इस तरह के सलाहों को नज़रअंदाज़ करने से किसे लाभ पहुंचा, सवाल उठता है. क्यों ऐसी व्यवस्था जिसमें भारत का पैसा सुरक्षित रहे, हटा दी गई. हमने सुधांशु मोहंती से बात की, जो लगातार इस मामले पर लिख भी रहे हैं मगर अपनी नोटिंग के बारे में बात बाहर आ जाने के बाद उन्होंने बताया कि उनका पक्ष क्या था और क्या होना चाहिए था.
सुधांशु मोहंती भी कह रहे हैं कि जब देश के भीतर की कंपनी से सरकार ख़रीदती है तो भी बैंक गारंटी लेती है, फिर बाहर के मुल्क से जब समझौता होता है तो बिना बैंक गारंटी के कैसे हो सकता है. एन राम के इस पर्दाफाश पर वैसी हलचल नहीं हुई जैसी 8 फरवरी की रिपोर्ट से हुई थी. तब रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण लोकसभा में भी बोलीं और बाहर भी बोलीं. मीडिया से भी अलग से बात की. 11 फरवरी की रिपोर्ट फिर से बड़ा सवाल उठाती है कि इस डील से भ्रष्टाचार की स्थिति में सज़ा नहीं दी जाएगी, ये किसके फायदे के लिए सुनिश्चित किया गया. क्या आपने ऐसी डील कभी सुनी है जिसमें ये शर्त हटा दी जाए कि रिश्वत देने का मामला पकड़ाया तो दंड दिया जाएगा.
इस बीच द हिंदू अख़बार के एसोसिएट एडिटर वर्गीज़ के जॉर्ज ने शुक्रवार को अपने अख़बार में रफ़ाल सौदे से जुड़ी स्टोरी को सही ठहराया है. द हिंदू अख़बार में रफ़ाल सौदे से जुड़े नोट में तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर का हाथ से लिखित नोट ना छापने के पीछे उन्होंने अपना तर्क भी दिया.