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This Article is From Sep 21, 2016

प्राइम टाइम इंट्रो : मराठा समाज किस बात से हुआ नाराज़?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    सितंबर 21, 2016 21:47 pm IST
    • Published On सितंबर 21, 2016 21:47 pm IST
    • Last Updated On सितंबर 21, 2016 21:47 pm IST
जब भी हम यह मानने लगते हैं कि भारत की राजनीति अब ईवेंट मैनेजमेंट से ही चलेगी तभी भारत की जनता ग़लत साबित कर देती है. लगता है वो जिद पर अड़ी हुई है कि लोकतंत्र में राजनीति को प्रबंधन से नहीं चलने देंगे. राजनीति चलेगी तो सिर्फ और सिर्फ उसके बुनियादी मुद्दों से.

आपने राहुल गांधी की खाट चर्चा शुरू की तो सब खाट को लेकर ही बात करते रहे. किसानों के मुद्दे को मीडिया में कम ही जगह मिली. शायद इसलिए भी कि मीडिया में भी किसानों के मुद्दे को लेकर न तो धीरज बचा है और न ही नेताओं की बातों पर भरोसा कि वाकई ये ईमानदार तरीके से किसानों को लेकर चिंतित हैं. लोकसभा चुनाव के पहले महिलाओं और किसानों के साथ चाय पे चर्चा प्रधानमंत्री मोदी का ब्रांड बन गया. अन्ना आंदोलन के बाद से भारतीय राजनीति में चुनावी रणनीति पर ईवेंट की रणनीति हावी होने लगी. सोशल मीडिया के ज़रिये उस ईवेंट को और बड़ा किया जाने लगा. हैशटैग को आंदोलन में बदलकर न्यूज़ चैनलों पर बहस की जगह बनाई जाने लगी. कहा जाने लगा कि फलां नेता या पार्टी के पास टीम नहीं है. टीम से ही नेता पैदा हो सकता है. प्रधानमंत्री ने तो विदेश यात्राओं के समय स्टेडियम को नए मंच के रूप में इस्तेमाल किया जहां वक्ता और उसकी आवाज़ को भव्य रूप दिया जा सके, इसलिए राजनीतिक दल भी चुनावी प्रबंधकों की टीम के बग़ैर चुनाव में जाने से घबराने लगे हैं.

राजनीतिक दलों का यह विश्वास गहरा होता जा रहा है कि सोशल मीडिया और मीडिया के ज़रिये जो हवा बांधी जाएगी, जनता अपना सवाल छोड़कर उस हवा को कूलर और एयरकंडीशन की हवा समझने लगेगी. लेकिन आज भी राजनीति तय करने का अधिकार और अवसर अभी भी जनता के पास है. मीडिया न हो, राजनीतिक दल उन मुद्दों पर ईमानदार न रहें तब भी जनआंदोलन खड़े हो सकते हैं.

गुजरात में जब गौरक्षकों ने दलित युवकों को मारा तो उनके ख़िलाफ़ गुस्सा चैनलों की बहस से नहीं भड़का. राजनीतिक दलों को लगा कि मीडिया दिखा नहीं रहा है और सारे दल चुप हैं तो जनता चुप रहेगी. लेकिन हुआ उल्टा. गुजरात के दलितों ने खाट सभा और चाय पे चर्चा से भी आक्रामक आइडिया निकाला और मरी हुई गाय की खाल उतारने से मना कर दिया. बिना किसी स्थापित नेता के अहमदाबाद और उना में लोग जमा हो गए. वही हाल पटेल आंदोलन का भी था. जब तक मीडिया की नज़र पड़ती यह आंदोलन आक्रामक हो चुका था. आरक्षण की मांग के साथ-साथ इसका एक मुख्य आधार यह भी था कि फीस महंगी होती जा रही है और नौकरी जो मिलती है वो फीस के अनुपात में काफी कम सैलरी वाली होती है. नेताओं और चर्चाकारों ने आरक्षण को तो मुख्य मुद्दा बना दिया लेकिन बाकी मुद्दों पर सब चुप रह गए. अब महाराष्ट्र में एक ऐसा ही आंदोलन चल रहा है जिसे किसी ईंवेट कंपनी ने नहीं रचा है. इस आंदोलन का कोई नेता नहीं है. इस आंदोलन में कोई भाषण नहीं होता है. कोई मंच नहीं बनता है. लाखों की संख्या में मराठा समाज के लोग निकलते हैं और लंबी रैली कर अपने घर लौट जाते हैं. हम इसी रैली के बारे में बात करेंगे.

14 जुलाई को महाराष्ट्र के कोल्हापुर के रेजिडेंसी क्लब में मराठा समाज से जुड़े संगठनों की एक गोलमेज परिषद हो रही थी, तभी 13 जुलाई की एक घटना की ख़बर पहुंची जिसमें एक मराठा लड़की के साथ कथित रूप से तीन दलित लड़कों ने बलात्कार किया है और लड़कों ने एससी एसटी एट्रोसिटी एक्ट में फंसाने की धमकी दी थी. इस खबर ने गोलमेज परिषद की दिशा ही बदल दी.

उस बैठक में मराठा समाज के लिए काम करने वाले पूरे प्रदेश भर से कोई तीस संगठन बुलाए गए थे. समाजशास्त्री, इतिहासकार और पत्रकार भी थे. वहां समाज से जुड़े बीस मुद्दे पर चर्चा हो रही थी. गोलमेज परिषद को बुलाने वाले बहुजन आंदोलन और फूले शाहू अंबेडकर विचारधारा के लोग हैं. इनका मकसद यही था कि मराठा समाज में ब्राह्मणवादी कर्मकांडों का असर बढ़ता जा रहा है. लोग टीवी के ज़रिये पोपुलर होने वाले बाबाओं के प्रभाव में आ रहे हैं. इससे समाज को बचाना होगा. इसके अलावा वहां दो सबसे बड़े मुद्दे थे. एक यह कि आत्महत्या करने वाला 90 फीसदी किसान मराठा है. गांवों से दूसरी जातियां पलायन कर रही हैं मगर मराठा किसान गांव में मरने के लिए मजबूर हैं. मराठा के वोट लेकर मराठा नेता इन किसानों की समस्या का हल नहीं करते हैं. इसी के साथ मराठा युवाओं का मुद्दा था कि इंजीनियरिंग, मेडिकल और अन्य प्रोफेशनल कोर्स की फीस बहुत महंगी होती जा रही है. ओबीसी और अनुसूचित जाति को फीस माफी और छात्रवृत्ति मिलती है. मराठा युवकों के ग़रीब तबके को छात्रवृत्ति तो मिलती है लेकिन बाकी युवाओं को नहीं मिलती है. इस कारण ये युवा आरक्षण को दोषी मानने लगे हैं. युवाओं का गुस्सा इस बात को लेकर भी है कि कोई भी राजनीतिक दल महंगी शिक्षा को आवाज़ नहीं दे रहा है.

अगर यह बात सही है तो गुजरात के पटेल आंदोलन से लेकर महाराष्ट्र के मराठा आंदोलन तक यही बता रहे हैं कि हमारे राजनीतिक सिर्फ युवा-युवा करते हैं मगर महंगी शिक्षा पर चुप्पी साध जाते हैं. युवाओं का राजनीतिक दलों को छोड़ सामाजिक संगठनों की तरफ जाना यह बता रहा है कि राजनीतिक दलों में उनका भरोसा कितना कम हुआ है. वो यह मानने लगे हैं कि महंगी फीस पर कोई दल या नेता ईमानदार हो ही नहीं सकता है. मराठा आंदोलन ज़रूर आरक्षण मांगने और एससी एसटी अट्रोसिटी एक्ट के दुरुपयोग को लेकर मुखर है या इसे ही उभारा जा रहा है. इस आंदोलन से जुड़े एक सज्जन से मैंने बात की तो उन्होंने बताया कि आंदोलन की तरफ से जो मांग पत्र कलेक्टर को दिया जा रहा है, उसमें एससी एसटी अट्रोसिटी एक्ट समाप्त करने की बात नहीं है, बल्कि दुरुपयोग रोकने की बात है.

इन मांगों और कोपराडीह बलात्कार कांड को लेकर अहमदनगर में कोई 10-12 संगठनों ने मार्च निकाला. 10-12 हज़ार लोग ही शामिल हुए. उसे मीडिया ने नोटिस नहीं लिया. उसके बाद औरंगाबाद में मार्च निकला. मीडिया ने हल्का-फुल्का नोटिस लिया, लेकिन इस बात को लेकर मराठा समाज गुस्से में आ गया कि लाखों लोगों की रैली हुई और मीडिया ने अनदेखा कर दिया. लिहाज़ा तय हुआ कि अब मीडिया पर निर्भर नहीं रहेंगे बल्कि सोशल मीडिया के ज़रिये बात फैलाई जाएगी. जलगांव के मूक मार्च को ड्रोन से शूट किया गया, इसलिए आप मूक मार्च से संबधित जितनी भी तस्वीरें देखेंगे ज़्यादातर ऊंचाई से ली गई हैं. इन तस्वीरों से संख्या और उसकी ताकत का भाव भरने लगा. मराठा समाज को लगा कि बिना नेता के भी उनकी रैली सफल हो रही है. मीडिया चुप रहा मगर लोग बातें करने लगे. जलगांव के बाद बीड और परभणी में मूक मोर्चा निकला, जिसमें लाखों लोग आए.

औरंगाबाद की रैली में इस आंदोलन की रूपरेखा तय हो गई कि कोई नेता मंच पर नहीं होगा. होगा भी तो सबसे पीछे चलेगा. भाषण नहीं होगा, नारा नहीं लगेगा. इसके लिए कोई ईवेंट मैनेजमेंट की कंपनी नहीं बुलाई गई बल्कि लोगों ने आपस में ही विचार-विमर्श कर तय किया. यही कि घर से काले टी शर्ट या कपड़े में आना है. अब तो ये टीशर्ट बिकने भी लगी है. डेढ़ सौ से दो सौ का टी शर्ट लॉन्च हो गया है. सर पर काले रिबन बांध कर निकलना है ताकि लगे कि विरोध मार्च में आए हैं. सबसे कहा गया कि वे हाथ में भगवा झंडा लेकर आए. शिवाजी से जुड़ा हुआ झंडा. आप कई तस्वीरों में देखेंगे कि मूक मार्च में भगवा झंडे की भरमार है. इन झंडों की तस्वीर खास एंगल से ली गई है, ताकि एक ताकतवर समूह होने का संदेश जाए. मूक मोर्चा में सिर्फ अधिकृत पोस्टर होगा. कोई अपनी तरफ से बैनर लेकर नहीं जा सकता. मोर्चे में कौन कहां होगा यह यब तय होता है. सबसे पहले छात्राएं, उसके बाद महिलाएं, महिला नेता, युवा, पुरुष, पुरुषों का भी क्रम तय है, वकील, शिक्षक, इंजीनियर, व्यापारी, फिर राजकीय नेता, स्वच्छता कार्यकर्ता और आयोजक. कचरा उठाने के लिए पूरी टीम होती है. यह मोर्चा खत्म होने के बाद काले कपड़ों में लड़कियां कलेक्टर को अपना मांगपत्र सौंपती हैं. अब तो मूक मोर्टा के नाम से पानी की बोतल भी आ गई है. आप इन तस्वीरों में देख सकते हैं.

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री फडणवीस कह रहे हैं कि आरक्षण के प्रति सरकार गंभीर है, लेकिन आरक्षण से भी आगे जाकर समाज की समस्याओं के हल के लिए साथ हूं. गांवों में रोज़गार पैदा करने का प्रयास कर रहा हूं. आरोप है कि मूक मोर्चा को कांग्रेस एन सी पी बढ़ावा दे रहे हैं. शरद पवार ने एट्रोसिटी एक्ट समाप्त करने की मांग की है लेकिन इन दलों को भी पता है कि मूक मोर्चा का राजनीतिक इस्तमाल कैसे करें, यह बात समझ नहीं आ रही है. क्या यह मोर्चा मराठा समाज और दलित समाज को आमने सामने खड़ा कर देगा. यह सबसे बड़ा सवाल है, महाराष्ट्र की राजनीति में मूक मोर्चा ने आशंका और कौतूहल दोनों पैदा कर दिया है. भारिप बहुजन महासंघ के प्रकाश अंबेडकर ने कहा कि

मूक मोर्चा दलितों के ख़िलाफ नहीं है. यह उनकी सरकार से अपनी लड़ाई है. मूक मोर्चा के ख़िलाफ़ कोई विरोधी मार्च नहीं निकलेगा. दलितों को इस मामले में नहीं पड़ना चाहिए. केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने शुरू में आक्रामक स्टैंड लिया था मगर अब आरपीआई टकराव नहीं चाहती. अठावले और प्रकाश अंबेडकर का कहना है एससी एसटी अट्रोसिटी एक्ट समाप्त करने की मांग सही नहीं है और न होगा. प्रकाश अंबेडकर ने कहा है कि कांग्रेस, एनसीपी को अगर समस्या है तो अट्रोसिटी एक्ट में संशोधन का प्रस्ताव संसद में पेश कर दिखाए.

बुधवार को नवी मुंबई में भी मूक मोर्चा निकला. सोलापुर में भी बड़ी संख्या में लोग मार्च में आए. हर जगह स्थानीय मराठा समाज ही इसमें शिरकत रहा है. मध्य जुलाई से मूक मोर्चा निकल रहा है और अभी अक्टूबर के आखिर तक निकलेगा. पुणे, वाशिम, बुलढाणा, बारामती, कई शहरों में मूक मोर्चा निकलेगा. सबसे बड़ा मोर्चा सातारा में निकलेगा जिसे शिवाजी महाराज की राजधानी माना जाता है. 'एक मराठा लाख मराठा' का नारा दिया गया है. हर जगह भीड़ का टारगेट व्हाट्स अप के ज़रिये लोगों तक भेजा जा रहा है. मराठा समाज पूछ रहा है कि महाराष्ट्र में इतने सालों तक मराठा नेताओं का ही राज रहा फिर भी उनकी हालत खराब क्यों हैं. मूक मोर्चा की एक मांग यह भी है कि खेती को लेकर स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों के हिसाब से उन्हें हक दिया जाए. यानी किसान को लागत में पचास फीसदी जोड़कर मुनाफा देने की गारंटी. बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में वादा किया था. राहुल गांधी इस मांग को यूपी में उठा रहे हैं मगर वहां ज़ोर नहीं पकड़ पा रहा है, महाराष्ट्र में सब चुप हैं लेकिन वहां यह मांग सामाजिक संगठनों के मंच पर जगह पा रही है.

चूंकि तय हुआ है कि संगठन की तरफ से कोई नहीं बोलेगा इसलिए कोई आयोजक बोल ही नहीं रहा है। सरकार भी हैरान है किससे बात करे। 'प्राइम टाइम' में दो सवाल हैं. आरक्षण और अट्रोसिटी एक्ट का सवाल महत्वपूर्ण तो है ही लेकिन क्या ये बड़ा सवाल नहीं है कि जिन मुद्दों पर राजनीतिक दलों को ईमानदार होना चाहिए वो अब सामाजिक मंचों से उठाये जा रहे हैं. क्या यह संकेत नहीं है कि राजनीतिक दलों के प्रति जनता का भरोसा कम होता जा रहा है.

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