महाराष्ट्र एटीएस को मीडिया से क्यों डर लगता है?

सवाल है कि मुंबई की मीडिया को आखिर ये कदम क्यों उठाना पड़ा? और हमारी एजेंसियां ऐसा क्यों सोचती हैं कि वो जितना और जो बताएं वही खबर है?

महाराष्ट्र एटीएस को मीडिया से क्यों डर लगता है?

पत्रकार ATS मुख्यालय गए, लेकिन ब्रीफिंग में जाने की बजाय मुंह पर काली पट्टी बांध कर बाहर खड़े रहे.

शुक्रवार 10 अगस्त को मुंबई में जो हुआ वो मुंबई में बहुत कम होता है. अपनी व्यवसायिक प्रतिद्वंदिता के चलते पत्रकारों में एक राय कम ही बन पाती है जिसका फायदा नेता और पुलिस अक्सर उठाते हैं. लेकिन महाराष्ट्र एटीएस के बेरुखी भरे रवैये ने शुक्रवार को एटीएस प्रमुख अतुल चंद्र कुलकर्णी की प्रेस ब्रीफिंग का बहिष्कार करने को मजबूर कर दिया. खास बात है कि ज़्यादातर पत्रकार एटीएस मुख्यालय गये लेकिन ब्रीफिंग में जाने की बजाय मुंह पर काली पट्टी बांध कर बाहर खड़े रहे और उस फ़ोटो को ट्वीट कर राज्य के मुखिया तक अपनी बात भी पहुंचाई और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का सकारात्मक जवाब भी आया. कुछ ही देर में उसका असर भी दिखा. एटीएस से बुलावा आया लेकिन पत्रकार बहिष्कार के फैसले पर अड़े रहे. ये अलग बात है कि कुछ गिनती के पत्रकार विरोध के बावजूद ब्रीफिंग में शामिल हुए. लेकिन नाराजगी दर्ज होनी जरूरी थी और वो दर्ज हो चुकी थी. एटीएस की प्रेस ब्रीफिंग में मोबाइल फोन ना ले जाने देने का तुगलकी फरमान भी अजब है. आखिर इतनी असुरक्षा का भाव क्यों? सूचना पर प्रतिबंध ही शक की पहली सीढ़ी होती है.

सवाल है कि मुंबई की मीडिया को आखिर ये कदम क्यों उठाना पड़ा? और हमारी एजेंसियां ऐसा क्यों सोचती हैं कि वो जितना और जो बताएं वही खबर है? खबरें देर से आ सकती हैं लेकिन रुकती नहीं और जिस कार्रवाई की तस्वीरें मिल चुकी हों वो तो बिल्कुल नहीं रुक सकती. फिर उस पर 12 से 15 घंटे तक चुप्पी साधे बैठे रहने का क्या फायदा?
और तो और ऊपर से डमी आरोपियों को बुर्के में लाकर गाड़ी में बैठाना और गली-गली घुमाकर फिर वापस लाना. इससे क्या हासिल होता है? सड़क दुर्घटना होने का खतरा बना रहता है वो अलग. गनीमत रही कि एटीएस की ऐसी ही हरकत की वजह से शुक्रवार को विक्रोली में दुर्घटना होते-होते बच गई.

महाराष्ट्र एटीएस की गोपनीयता बरतने की कला तो कमाल की है. पिछले कुछ सालों में दिल्ली स्पेशल सेल, गुजरात एटीएस और उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने महाराष्ट्र एटीएस के साथ मिलकर महाराष्ट्र और मुंबई में कई ऑपरेशन किये और गिरफ्तारियां भी कीं.  लेकिन एकबार भी खबरें महाराष्ट्र एटीएस से नहीं मिलीं. उल्टे मना करते रहे, जबकि दूसरे राज्यों की एजेंसियां विस्तृत जानकारी के साथ बाकायदा प्रेस नोट जारी कर चुकी होती थीं. महाराष्ट्र एटीएस का रटा रटाया जवाब होता है कि मीडिया की वजह से जांच प्रभावित होती है. तो क्या खबरों को दबाकर, डमी आरोपियों को मीडिया के सामने लाकर आधी अधूरी और अपुष्ट जनाकारी पर कयास भरी खबरें चलाने से जांच प्रभावित नहीं होती? इससे तो बचाव पक्ष को आरोप लगाने का मौका मिल जाता है और जांच एजेंसी की ईमानदारी पर भी सवाल उठने लगता है. आतंकी साजिश को उजागर करने के उसके दावों पर शक भी होने लगता है.

रही बात मीडिया से जांच के प्रभावित होने की तो यहां ये याद दिलाना जरूरी है कि कई बार मीडिया की वजह से ही पुलिस का केस मजबूत हुआ है और आरोपी को दोषी साबित करने में मदद मिली है. पत्रकार जेडे हत्याकांड का मुकदमा सामने है जिसमें अंडरवर्ल्ड डॉन छोटा राजन के दोषी साबित होने में मीडिया की अहम भूमिका रही.

शुक्रवार को भी यही हुआ जब नालासोपारा से गिरफ़्तार वैभव राऊत और बाकी के दो आरोपियों को अदालत में पेश किया गया तो आरोपियों ने एटीएस पर उन्हें मारने पीटने का आरोप लगाया. आरोपियों के वकील संजीव पुनालेकर ने समय और पंचनामे का मुद्दा उठाकर साजिश को फर्जी कहानी बताया. हमें भी पता है कि चोर कभी नहीं मानता कि उसने चोरी की है. लेकिन उसके आरोपों को आधार देने का मौका ही क्यों दिया जाए? एटीएस ने अदालत को बताया कि 7 अगस्त को उनकी विक्रोली यूनिट को गुप्त सूचना मिली थी कि मुंबई, पुणे, सतारा, सोलापुर और नालासोपारा में बम धमाका करने की साजिश रच रहे थे. इसके लिये उन्होंने बम बनाने की ट्रेनिंग भी ली है और उनके पास से 20 देसी बम के साथ और भी बम बनाने के लिए जरूरी साहित्य मिले हैं. हालांकि अंदर खाने से खबरें आ रही हैं कि कर्नाटक में गौरी लंकेश की हत्या के आरोप में गिरफ्तार आरोपी अमोल काले से पूछताछ के बाद कुछ संदिग्धों के नाम सामने आए थे, उसी सूचना पर ये गिरफ्तारियां हुई हैं!

(सुनील सिंह एनडीटीवी के मुंबई ब्यूरो में कार्यरत हैं)

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