आज के दौर में सबसे बड़ी चुनौती हो गई है बोरियत से लड़ने की. हम और आप इस बोरियत से जितना हारते हैं, बाज़ार इस बोरियत से उतना ही जीतता है. आपने कब ऐसा सोचा कि किसी दिन जेल चल कर रहते हैं, कैदियों के कपड़े पहनते हैं और उनका खाना खाते हैं. एक रात गुज़ारते हैं और 500 रुपया देकर घर आ जाते हैं. यह आइडिया है तो दिलचस्प, हो सकता है इससे जेल के प्रति हमारी धारणा बदल जाए और एक पर्यटक की तरह जेल आने जाने से जेलों की हालत भी सुधरने लगे.
हमारे सहयोगी सुनील सिंह की यह रिपोर्ट है. महाराष्ट्र जेल प्रशासन एक योजना पर विचार कर रहा है कि बिना अपराध किये भी जेल की सैर की जा सकती है. 24 घंटे रहने की अनुमति होगी. सुबह जेल जाइये और कैदियों के कपड़े पहनिये और अगली सुबह बाहर आ जाइये. जेल के भीतर शाम को 5 बजे के बाद कोठरी में बंद कर दिया जाएगा. आपसे बैरक की सफाई और बागवानी का काम भी लिया जाएगा. चिंता मत कीजिए आपको कैदियों के साथ नहीं रखा जाएगा क्योंकि महाराष्ट्र के ज़्यादातर जेल भरे हुए हैं. फिलहाल कोंकण और सावंतवाडी जेल का चुनाव किया जा रहा है, क्योंकि वहां पास में ही एक नया जेल बनकर तैयार हो रहा है इसलिये सावंतवाडी जेल के कैदियों को वहां भेजकर मेहमान कैदियों को उसमे रखा जा सकता है. इस तरह की योजना तेलंगाना में भी चल रही है. योजना का नाम फील द जेल है.
आसान है ऐसी योजना बनाना लेकिन जो लोग जेल की सी ज़िंदगी जीते हैं, उनसे पूछिये कि फील द जेल क्या होता है. कितना क्रूर है ये नाम फील द जेल. हॉस्टल में रहने वाली लड़कियों से पूछिये वो कैसा फील करती हैं और लड़कों से पूछिये वो कैसा फील करते हैं. मैं भी चाहता था कि हॉस्टल में रहने का मौका मिले लेकिन नहीं मिला. कक्षा में हास्टल के छात्रों की उनिंदा आंखों को देखकर लगता था कि रात भर जागकर पढ़े हैं. इनका कितना समय बच जाता है. कॉलेज आने-जाने में, खाना बनाने खाने में वक्त नहीं लगता, दिन रात पढ़ते ही होंगे, फिर रात के बग़ैर हॉस्टल की कल्पना नहीं की जा सकती. रात हॉस्टल की दुनिया का सवेरा होता है. जो हॉस्टल में रात भर नहीं जागा, उसके छात्र जीवन का कोई इतिहास ही नहीं हो सकता है. लड़कियों के हॉस्टल में रात के अलग मायने होते हैं और लड़कों के लिए रात अलग होती है. इसी रात को लेकर हॉस्टलों में नियमों का रोज़ आविष्कार होता रहता है. हॉस्टल की दुनिया की अपनी बदमाशियां हैं. उदासियां हैं. मां-बाप की याद है. अकेलापन भी है. मैं बिल्कुल हॉस्टल की ज़िंदगी को एक रंग या एक छवि में नहीं रंगना चाहता, बस इतना कहना चाहता हूं कि हॉस्टल का नाम सुनते ही हमारी कल्पनाएं जाग जाती हैं. दिन में भी रतजगा करने लगती हैं. क्या हम जानते हैं कि कल्पनाएं सज़ा भी होती हैं.
ब्वायज़ हॉस्टल और गर्ल्स हॉस्टल. दोनों के लिए अलग नियम होते हैं और दोनों के अपने-अपने अनुभव. हिन्दी सिनेमा ने हॉस्टल को अलग-अलग तरीके से पेश किया है. मूल रूप से इनके जरिये एक किस्म का स्टीरियोटाइप ही बनाया गया है. मैंने गूगल सर्च किया तो 1962 में जॉनी वॉकर और नलिनी की एक फिल्म गर्ल्स हॉस्टल का पता चला. इस फिल्म के बारे में बहुत जानकारी तो नहीं मिली लेकिन एक गाना मिला जो गर्ल्स होस्टल के स्टीरियोटाइप को बयां करता है, अगर यह गाना ठीक वैसे ही फिल्माया गया है जैसा मैं समझ रहा हूं और पेश कर रहा हूं. इसके बोल हैं -
इधर भी हसीना उधर भी हसीना, किसी ने दिल लूटा किसी ने दिल छीना.
नीले पीले आसमानी आंचलों की हवा, बिन पीये ही बेख़ुदी है छा रहा है नशा
देखा जो इन्हें यारो तो आ गया पसीना, किसी ने दिल लूटा किसी ने दिल छीना
समाज का बड़ा हिस्सा गर्ल्स हॉस्टल को इसी तरह के स्टीरियोटाइप से देखता रहा है. जैसे हॉस्टल न हो, चिड़ियाघर का पिंजड़ा हो. लड़कियां हुनर से नहीं, आंचल के रंगों से पहचानी जाती हैं. जिन्हें देखकर नशा छा जाता है, पसीना छूट जाता है. मगर हॉस्टल की इस सत्ता को धीरे-धीरे चुनौती मिलनी शुरू हो गई है. लड़कियां बराबरी मांग रही हैं. अक्सर हम मुंबई और दिल्ली विश्वविद्यालय की बात करते हैं लेकिन ये उदाहरण मेरठ से है. चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी में लड़कों के लिए हॉस्टल का गेट 10 बजे रात को बंद होता है. लड़कियों के लिए हॉस्टल का गेट रात 9 बजे बंद कर दिया जाता है. एक घंटा पहले. इस घंटे में दुनिया लड़कियों के लिए किस तर्क से ख़तरनाक हो जाती है, समझना मुश्किल है. दो रात से ज़्यादा लेट नाइट आगमन पर माता पिता या विश्वविद्यालय को रिपोर्ट करना पड़ता है. शाम पांच बजे से लेकर रात के साढ़े ग्यारह बजे तक लड़कियों के हॉस्टल लौट आने के नियम हैं. भारत का समाज सूरज ढलते ही लड़कियों के लिए इतना भयावह क्यों हो जाता है यह वार्डन को नहीं समाज और सरकार को सोचना चाहिए. गूगल पर ऐसी ख़बरें भी मिली की तमाम जगहों पर लड़कियों ने आने जाने से लेकर मिलने तक के समय का विरोध किया है.
भोपाल के मौलाना आज़ाद नेशनल इंस्टीयूट ऑफ टेक्नोलॉजी ने जब नियम बनाया कि लड़कियों को साढ़े नौ बजे रात से पहले लौटना होगा और स्कर्ट या शार्ट्स नहीं पहनना होगा तो लड़कियों ने विरोध किया. मुंबई यूनिवर्सिटी में भी लड़कियों ने इस साल फरवरी में विरोध प्रदर्शन किया. नियम बना कि 10 बजे रात के बाद लौटने वाली लड़कियों को नाइट पास लेकर जाना होगा. पास होने पर भी वे 11.30 बजे के बाद बाहर नहीं जा सकती हैं. महीने में वे दो रात ही बाहर जा सकती हैं. लड़कों के हॉस्टल के लिए ऐसे नियम नहीं बनाए गए. लड़कियों के लिए रात के वक्त लाइब्रेरी में जाने को लेकर तरह-तरह की पाबंदी है. बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में इस सवाल को लेकर लड़कियों ने विरोध किया है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में भी पिछले साल इस तरह की आवाज़ उठी. दीवारों पर लड़कियों ने लिख दिया कि मैं रात को बाहर हूं. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार 500 लड़कियों ने इंदिरा गांधी हॉल के प्रोवोस्ट के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर दिया. दिल्ली के तमाम होस्टलों में पिंजड़ा तोड़ अभियान चलता रहता है. आज कल कई शहरों में रात के वक्त लड़कियां मार्च निकालती हैं और उस मनोवैज्ञानिक डर से खुद को और समाज को आज़ाद करने के लिए जो यह तय करता है कि शहर का यह इलाका रात में लड़कियों के लिए असुरक्षित है.
हम इन्हीं पाबंदियों के बारे में बात करना चाहते हैं. आम समाज की यही सोच है कि लड़कियों के लिए सुरक्षा ज़रूरी है और देर रात तक बाहर रहने की इजाज़त मां-बाप भी नहीं देंगे. इस तरह से यह लड़ाई सिर्फ हॉस्टल के ख़िलाफ़ नहीं है. अपने उन घरों से भी है जहां इस तरह की पाबंदी है और जो इस तरह की पाबंदियों का समर्थन करते हैं. इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हॉस्टलों में लड़कियों पर जो पाबंदी है वो सिर्फ समय को लेकर नहीं है. पहनावे को लेकर भी, खानपान को लेकर भी है. मगर वहां एक तरह की ज़िंदगी भी है. हमने गर्ल्स हॉस्टल का ज़िक्र किया तो हॉस्टल में रहने वाली लड़कियों पर एक वेब सीरीयल का भी ज़िक्र कर रहा हूं. हमारी पूर्व सहयोगी अनु सिंह चौधरी ने इसे बनाया है. नाम है द गुड गर्ल शो. दिल्ली के पीजी में रह रही चार लड़कियों की ये कहानी बताती है कि वक्त बदल रहा है, उस वक्त को लड़कियां बदल रही हैं. आप इस सीरियल को यू ट्यूब पर देख सकते हैं.
गुड गर्ल्स शो की ये चार लड़कियां पेइंग गेस्ट के तौर पर रहती हैं. दिल्ली में जहां लड़कियों को हॉस्टल नहीं मिल पाते वहां आसपास के इलाकों के लोग अपने घरों में इस तरह पीजी खोल लेते हैं. लड़कियों के पीजी में क्या नियम होंगे ये मकान मालिक तय करते हैं और कई जगह तो ये नियम हॉस्टलों को भी मात करते हैं. इसी तरह वर्किंग वीमेन हॉस्टल भी होते हैं. इनके भी अपने नियम क़ानून होते हैं. सब जगह कोशिश लड़कियों को किसी तरह नियम क़ायदों में बांधे रखने की.
This Article is From Mar 08, 2017
प्राइम टाइम इंट्रो : लड़कियों के लिए हॉस्टल टाइमिंग से लेकर पहनावे तक के नियम अलग क्यों?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:मार्च 08, 2017 21:41 pm IST
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Published On मार्च 08, 2017 21:41 pm IST
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Last Updated On मार्च 08, 2017 21:41 pm IST
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