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This Article is From Jul 06, 2021

फादर स्टैनस्वामी को क्यों देनी पड़ी जान?

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 06, 2021 21:49 pm IST
    • Published On जुलाई 06, 2021 21:49 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 06, 2021 21:49 pm IST

कोई संवेदनशील सरकार होती तो 84 साल के फ़ादर स्टैनस्वामी की न्यायिक हिरासत में मौत पर जांच बिठाती. वह एनआइए के अधिकारियों से पूछती कि जिस शख़्स से उन्हें एक बार भी पूछताछ करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई, उसे उन्होंने इस कोविड काल में क़रीब आठ महीने जेल में क्यों डाले रखा. वह यह सवाल पूछती कि जब फादर स्टैनस्वामी बार-बार अपनी बीमारी का हवाला देकर ज़मानत मांग रहे थे, तब एनआइए ने उनकी ज़मानत का विरोध क्यों किया. क्यों उसने कहा कि वे कोविड के संकट को अपनी ढाल बना रहे हैं. कोविड के जिस दौर में बुज़ुर्गों के घर से निकलने पर सरकार ने पाबंदी लगा रखी थी तब स्टैनस्वामी को क्यों जबरन रांची से मुंबई लाया गया? अगर वे इतने ख़तरनाक मुजरिम थे तो क्या उन्हें रांची में ही नज़रबंद नहीं किया जा सकता था? वे पार्किंसन से पीड़ित थे. वे चल नहीं पा रहे थे, अपने काम नहीं कर पा रहे थे, खाने में भी उन्हें दूसरों की मदद चाहिए थी, उन्होंने कहा था कि इन हालात में उनकी मौत हो जाएगी.

लेकिन उनकी बात किसी ने नहीं सुनी. न सरकार ने, न एजेंसियों ने और न ही अदालत ने. जाहिर है, उनके साथ न्याय नहीं हो रहा था, एक तरह का प्रतिशोध लिया जा रहा था. लेकिन किस बात का प्रतिशोध? क्या इस बात का कि वे झारखंड में जनजातीय समूहों के लिए 'बगइचा' जैसा संगठन बनाकर काम कर रहे थे? क्या इसलिए कि उनकी हमदर्दी इस देश के गरीबों, दलितों और वंचितों को लेकर थी?

बताया जा रहा है कि स्टैनस्वामी बहुत ख़तरनाक आदमी थे. वे माओवादियों की मदद कर रहे थे, प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश कर रहे थे, सरकार पलटना चाहते थे और देश में अशांति फैलाना चाहते थे. लेकिन स्टैनस्वामी ने इतनी ख़तरनाक साज़िशें उम्र के इस पड़ाव में क्यों शुरू कीं? वे कोई बाहर से आए पादरी नहीं थे, तमिलनाडु में पैदा हुए थे, बेंगलुरु में रहे और फिर झारखंड को घर बनाया. 50 साल से ज़्यादा समय से वे झारखंड में रहे. इन तमाम वर्षों में उन पर एक ही आरोप सही ठहरता है- वंचितों और आदिवासियों की हिमायत का.

लेकिन स्टैनस्वामी का कहना था कि उनके कंप्यूटर की जिस सामग्री के आधार पर उन्हें गिरफ़्तार किया गया है, वह उनमें प्लांट की गई है. क्या इत्तिफ़ाक है कि यलगार परिषद और भीमा कोरेगांव के जिस मामले में स्टैनस्वामी को गिरफ़्तार किया गया, उनमें गिरफ़्तार दूसरे लोग भी स्टैनस्वामी जैसे हैं और उनकी कैफियत भी यही है- कि उनके कंप्यूटर में फ़र्ज़ी चिट्ठियां डाली गई हैं. लेकिन इत्तिफ़ाक़ बस यही नहीं है. इस मामले में स्टैनस्वामी के साथ जिन दूसरे लोगों को गिरफ़्तार किया गया है और जेलों में सड़ाया जा रहा है, उनमें से सबके सबका इतिहास यही है कि वे अपने यहां के कमज़ोर और वंचित समुदायों के लिए काम करते रहे हैं, दलितों-आदिवासियों की आवाज़ बनते रहे हैं, सरकारी तंत्र द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन पर सवाल खड़े करते रहे हैं, सरकारी और सार्वजनिक संपत्तियों को निजी हाथों में बेचे जाने का विरोध करते रहे हैं और एक चमचमाते-शक्तिशाली भारत का जो मिथ बनाने की कोशिश हो रही है, उसमें पिन चुभोते रहे हैं. दरअसल ये वे लोग हैं जो खा-पीकर अघाए हुए और मंदिर निर्माण के लिए चंदा देने वाले भारत को चुभते रहे हैं. यह दमदमाता हुआ भारत अपनी कंप्यूटर क्रांति पर इतराता है और इसका अधिकतम इस्तेमाल आइटी सेल के फ़र्जी वाट्सऐप संदेशों के निर्माण में करता रहा है. किसी के कंप्यूटर में फ़र्जी ईमेल डालने का कमाल भी इसी भारत का कमाल हो सकता है.

इस ढंग से देखें तो चिंता का सबब दूसरा है. जाने-अनजाने हमने दो भारत बना डाले हैं. या पहले से मौजूद इन दो तरह के भारतों का फ़र्क कुछ और बड़ा कर दिया है. हमारे संविधान ने, हमारी आज़ादी के संघर्ष ने हमें यह ज़िम्मेदारी दी कि भारत के बीच का फ़ासला मिटाएं, सबको बराबरी पर ले आएं, लेकिन हमने इसकी जगह जाति और धर्म के नए और कहीं ज़्यादा खौलते हुए पिंजड़े बनाए और इससे भी बदतर यह किया कि अपनी बहुत बड़ी आबादी को गरीबी रेखा से बाहर लाने की बहुत कोशिश नहीं की. बल्कि पिछले कुछ वर्षों में हमने जैसे उनकी परवाह छोड़ दी है. वे इस देश की सबसे बड़ी विस्थापित आबादी हैं- गांव से शहर और महानगर जाते हुए और हर जगह कूड़ा बीनते, जूठा धोते, गाड़ियां साफ़ करते, अख़बार बेचते और इसी तरह के बहुत सारे छोटे-छोटे लेकिन बेहद ज़रूरी काम करते हुए वे अपना जीवन भी जी रहे हैं और सच्चे अर्थों में इस देश को चला भी रहे हैं. 

लेकिन नोटबंदी हो या कोविड प्रबंधन- हमने जैसे उनकी कभी परवाह ही नहीं की. सामाजिक दूरी बरतने और बार-बार हाथ धोने की नसीहत देते रहे जो हमारी वर्गीय हैसियत के अनुकूल थी. इस गरीब आबादी की अगर सामाजिक नापजोख की जाए तो पता चलेगा कि इसमें बहुत बड़ी तादाद दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों की है. उनके अधिकार लगातार छीने जाते रहे हैं, उनका हर तरह का उत्पीड़न जारी है और सज़ावार भी वही हैं- भारतीय जेलें सबसे ज़्यादा इन्हीं लोगों से भरी हैं. ये हिरासत में मारे जाते हैं, ये मामूली आरोपों में बरसों विचाराधीन क़ैदी बने रहते हैं और उनका मुक़दमा तक शुरू नहीं होता, उन पर झूठे आरोप लगाए जाते हैं और उन्हें बिल्कुल उपनिवेश की तरह इस्तेमाल किया जाता है.

दरअसल स्टैनस्वामी, आनंद तेलतुंबडे, सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, सुरेंद्र गाडलिंग, रोना विल्सन जैसे लोग इन्हीं लोगों की आवाज़ बनने की कोशिश करते हैं और इन्हीं के हक़ की लड़ाई लड़ते हैं. इसलिए पहले वे बाज़ार विरोधी कहलाते हैं, फिर सरकार विरोधी और अंत में देशविरोधी करार दिए जाते हैं, पहले नक्सली और फिर आतंकवादी बताए जाते हैं. अब तो हालत ये है कि इनके प्रति हमदर्दी दिखाना भी गुनाह बना दिया गया है- ऐसे हमदर्दों को बड़ी आसानी से 'अरबन नक्सल' करार दिया जाता है.

तो स्टैनस्वामी के साथ जो कुछ हुआ, वह दरअसल इसी वंचित और हाशिए पर पड़े भारत को सबक सिखाने का, उसकी हैसियत बताने का मामला है. ख़तरा ये है कि भीमा कोरेगांव के अन्य आरोपियों की ज़मानत अर्ज़ी भी बार-बार खारिज की जा रही है. कोविड भी सर पर है और सरकारों का दमन भी. तो ऐसा न हो कि शोक का यह सिलसिला कुछ और आगे बढ़ जाए. वैसे भी संसद में रो पड़ने वाले प्रधानमंत्री के कानों तक 84 साल के एक ख़तरनाक बुजुर्ग की आख़िरी सांसों की प्रतिध्वनि पहुंचेगी, इसमें संदेह है.

क्या उम्मीद करें कि भारतीय गणतंत्र अपने होने की गरिमा का मान रखेगा और जो काम सरकार नहीं कर पा रही, वे कुछ दूसरी संवैधानिक संस्थाएं करेंगी? क्या इस देश की अदालतें अपने से बची-खुची उम्मीद पर खरी उतरते हुए जल्दी से जल्दी इन आरोपियों को ज़मानत देगी? यह एक मायूस करने वाला सवाल है जिसके जवाब और ज़्यादा मायूस करने वाले हो सकते हैं.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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