इन सबके ब्यौरे में कुछ खास चीज़ें बार बार मिलेंगी. जैसे, अकबर का तंग रास्तों वाला कमरा, लेदर कुर्सी, उसका पीछे से आकर कंधे को पकड़ लेना, बात करते समय छाती घूरते रहना, पकड़ कर चूम लेना और अपनी जीभ मुंह में ज़बरन डाल देना, लंदन ब्यूरो में पोस्टिंग का प्रलोभन, पत्रकारिता में करियर चमका देने का प्रस्ताव या बर्बाद कर देने की धमकी. इन सबको पढ़ते हुए लगता है कि अकबर एक बीमार शिकारी है. चौदह महिला पत्रकारों ने आरोप लगाए हैं, प्रसंग और संदर्भ के साथ.
इन आरोपों के बारे में प्रतिक्रिया देते हुए बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा है कि वे अकबर पर लगे आरोपों की जांच करेंगे. जो पोस्ट किया है उन्हें चेक करेंगे, सत्यता का पता लगाएंगे, किस व्यक्ति ने लिखा है यह भी देखेंगे. क्या अमित शाह इन सभी 14 महिला पत्रकारों को बुलाकर अकबर के सामने जनसुनवाई करने वाले हैं? अमित शाह कैसे चेक करेंगे? क्या वो संकेत दे रहे हैं कि अकबर को बचाने के तरीके निकाल लिए जाएंगे. जांच के नाम पर कमेटी. क्या वे कोर्ट हैं, जज हैं, क्या हैं जो वे चेक करेंगे? एक बार बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी पर आरोप लगे थे. बीजेपी ने आंतरिक लोकपाल का गठन किया था जिन्हें इन दिनों रिज़र्व बैंक का सदस्य बना दिया गया है. बीजेपी सरकार के पांच साल होने को आ रहे हैं, असली लोकपाल का अभी तक पता नहीं चल पाया है.
अकबर वापस आ गए हैं. कहा है कि जल्दी ही बयान आएगा. अकबर की प्रतिक्रिया का इंतज़ार सभी को है. कई मीडिया संस्थानों ने उनसे प्रतिक्रिया मांगी है. उनका भी पक्ष सुना जाना चाहिए मगर इस्तीफा देने की भी अपनी नैतिकता होती है. बहुत से छोटे बड़े नेताओं ने मामूली आरोप पर जांच से पहले इस्तीफा दिया है. टाइम्स ऑफ इंडिया के रेज़िडेंट एडिटर के एस श्रीनिवास ने इस्तीफा दे दिया. इन पर सात महिला पत्रकारों ने आरोप लगाए हैं. हिन्दुस्तान टाइम्स के राजनीतिक संपादक प्रशांत झा ने भी इस्तीफा दिया है.
अब मैं एक दूसरे मामले पर आता हूं. अकबर की ख़बर को अंग्रेज़ी और हिन्दी के कई अख़बारों ने क्यों नहीं छापा? एक्सप्रेस और टेलिग्राफ ने विस्तार और प्रमुखता से छापा है. बाकी अंग्रेज़ी अख़बार भी हिन्दी अख़बार की तरह डरपोक निकले. हिन्दी अख़बारों में जहां ये ख़बर छपी है उनका विश्लेषण करना चाहिए. दैनिक भास्कर और नवभारत टाइम्स ने इस खबर को छापा है. मगर क्या उनमें यौन शोषण के आरोपों के डिटेल हैं? या इन्हें विवाद की शक्ल में ही छापा है. हिन्दी के कई बड़े अख़बारों ने इस ख़बर को छापा ही नहीं. करोड़ों पाठकों तक यह ख़बर नहीं पहुंची है. जहां छपी है वहां सिर्फ औपचारिकता पूरी की गई है. भीतर के पन्नों पर तीन चार लाइन की ख़बर छपी है. इनमें इसका ज़िक्र ही नहीं है कि 14 महिला पत्रकारों ने जो आरोप लगाए हैं उनके डिटेल क्या हैं.
“वह कुर्सी से उठा और अपनी मेज़ का चक्कर लगाते हुए मेरी तरफ आया, जहां मैं बैठी थी. मैं भी उठ गई और उससे हाथ मिलाया. उसने मेरे कंधों के नीचे हाथों को दबोच लिया और अपनी तरफ खींच लिया. मेरे मुंह में अपनी जीभ डाल दी. मैं वहां खड़ी रह गई. अकबर ने जो किया वह बहुत भद्दा था. मेरी सीमाओं का अतिक्रमण किया और मेरा, मेरे मां बाप के भरोसे को तार-तार कर दिया.''
यह प्रसंग CNN की खोजी पत्रकार दू पू कांप का है. मुझसे नाम के उच्चारण में ग़लती हो सकती है. कांप ने लिखा है कि मैं 18 साल की थी, अकबर 56 साल का. भारत में विदेशी संवाददाता के तौर पर काम कर रहे अपने माता-पिता के ज़रिए अकबर से मिली थीं. महिला पत्रकार के पिता ने इस मामले को लेकर अकबर को ईमेल भी किया था जिसे हफिंगटन पोस्ट की बेतवा शर्मा और अमन सेठी ने छापा है. अकबर ने ईमेल का जवाब दिया है कि ''इन बातों को लेकर ग़लतफ़हमी हो जाती है. इन बातों को लेकर बहस से कोई लाभ नहीं है. अगर कुछ भी अनुचित हुआ है तो मैं माफी मांगता हूं.''
सुपर्णा शर्मा जो फिल्म क्रिटिक हैं, उन्होंने भी आरोप लगाए हैं. न्यू क्राप की संस्थापक संपादक हैं सुतपा पॉल उन्होंने तो 10 अक्तूबर को 32 ट्वीट किए और बताया है कि कैसे इंडिया टुडे के कोलकाता ब्यूरो में काम करने के दौरान अकबर ने संबंध बनाने के प्रयास किए. यह सारी बातें 2010-11 की हैं. क्या एक महिला पत्रकार सुतपा पॉल ने अकबर पर लगाए यौन प्रताड़ना के आरोप लिख देने से हिन्दी का पाठक जान पाएगा? क्या आपने एक विदेशी महिला पत्रकार दू पू कांप के विवरण को अपने हिन्दी अख़बार में शब्दश: छपा देखा है? तभी मैं कहता हूं कि हिन्दी के अख़बार हिन्दी के पाठकों की हत्या कर रहे हैं. जब सूचना ही नहीं होगी तो समझिए वो नागरिक क्या होगा, वोटर क्या होगा? हिन्दी की एक महिला पत्रकार ने अपना संस्मरण लिखा है. फेसबुक पर. क्या कोई हिन्दी का अख़बार उनका संस्मरण छापेगा?
शशि पांडे मिश्रा ने लिखा है कि "बात 2010 की है. तब मैं आईनेक्स्ट अखबार (दैनिक जागरण) में रिपोर्टर थी. हमारे यहां एक नया इंचार्ज आया मुशाहिद. महिला रिपोर्टस के साथ गंदी-गंदी बातें करता था पर किसी की हिम्मत नहीं होती थी उसके ख़िलाफ़ कुछ भी बोले. एक दिन मुझे बुलाकर बोला कॉन्डम पर एक स्टोरी करो कि आजकल लड़कियों को किस फ्लेवर के कॉन्डम पसंद हैं? मैंने पूछा कि सर क्या यह ख़बर आप छापेंगे? बोला ख़ैर छोड़ो, तुम किस फ्लेवर के कॉन्डम पसंद हैं? मैं उसके केबिन से गालियां देते हुए बाहर आ गई." हिन्दी के अखबार हिन्दी की महिला पत्रकारों के मी टू प्रसंग नहीं छाप रहे हैं. इससे धारणा बनाई जा रही है कि यह सारा मामला अंग्रेज़ी की महिला पत्रकारों का है. जबकि ग़लत है. मुशाहिद का पक्ष मिलेगा तो ज़रूर छापेंगे. बल्कि इसी लेख में जोड़ दूंगा.
“अकबर अपनी किताब की प्रूफरीडिंग करने के लिए कहने लगा. मेरी कुर्सी के करीब आकर खड़ा हो जाता, मुझे तनाव में देखकर मसाज कर देने की पेशकश करने लगता. मेरे मना कर देने पर वह मुझे चूमने की कोशिश करने लगता. मैं घबराहट दिखाकर घूम जाती थी.''
यह विवरण रूथ डेविड नाम की महिला पत्रकार का है. उन्होंने मीडियम नाम की वेबसाइट पर आपबीती लिखी है. अंग्रेज़ी में. हिन्दी के संपादक यौन प्रताड़ना के सारे प्रसंग और शब्द ग़ायब कर दे रहे हैं. बहुत से बहुत चूमने की बात छाप देंगे मगर अंधेरे में स्तन या छाती दबा देने की बात नहीं लिखेंगे जो अकबर के बारे में कई महिला पत्रकारों ने लिखा है. ज़बरन खींच कर अकबर अपनी जीभ उनके गले में ढूंस देता था इसका ब्यौरा नहीं छापेंगे. जबकि हिन्दी की औरतें ठीक इसी तरह की यौन प्रताड़ना झेल रही हैं. लेकिन जब वे अपनी वेबसाइट पर पाठकों को लुभाने के लिए सेक्स संबंधी ख़बरें छापेंगे तब वे अंग्रेज़ी के अख़बारों से भी आगे निकल जाते हैं.
किसी रिसर्चर को शोध करना चाहिए कि हिन्दी की महिला पत्रकार जब अपने साथ हुए इन प्रसंगों को लिखती हैं तो क्या उनका विवरण उतना स्पष्ट होता है, शब्दश: होता है जैसा अंग्रेज़ी की महिला पत्रकार लिख रही हैं? रिसर्चर को इन हिन्दी पत्रकारों से बात भी करना चाहिए तभी पता चलेगा कि जो घटा है, वो उन्होंने हू-ब-हू लिखा है या बहुत कुछ सोच कर संपादित कर दिया है और बारीक विवरण की जगह जनरल बात लिख दी है. यह भी देखना चाहिए कि अकबर के मामले में मी टू का डिटेल कैसा है और बाकी फिल्म जगत के लोगों पर लगे आरोपों का डिटेल किस तरह से छपा है. मैंने सबका विवरण नहीं पढ़ा है और मैं ऐसी बातों को प्रमाणिक तरीके से कहने के लिए योग्य नहीं हूं. रिसर्च औऱ अकादमिक काम की प्रक्रिया पत्रकारीय काम से काफी अलग होती है.
ग़ज़ाला वहाब ने अपनी आपबीती अंग्रेज़ी में लिखी. दि वायर में. काफी देर बाद जब दि वायर में उनका हिन्दी अनुवाद आया तो मैं यही देखने गया कि क्या हिन्दी अनुवाद के समय उनके ब्यौरे को छोड़ दिया गया है या फिर ठीक ठीक वो बात नहीं है जैसा ग़ज़ाला ने अंग्रेज़ी में कहा है. दि वायर हिन्दी के लेख को और करीब से देखने की ज़रूरत है मगर सरसरी तौर पर लगा कि अनुवाद करने वाले ने किसी ब्यौरे से समझौता नहीं किया है. उसने अपने पाठकों को चुनौती दी है कि वह हिन्दी की झूठी नैतिकता को छोड़ ग़ज़ाला वहाब के साथ अकबर ने जो किया है उसे हू-ब-हू पढ़ें.
“कभी-कभी जब उन्हें अपना साप्ताहिक कॉलम लिखना होता, वे मुझे अपने सामने बैठाते. इसके पीछे विचार यह था कि अगर उन्हें लिखते वक्त एक मोटी डिक्शनरी, जो उनके केबिन के दूसरे कोने पर एक कम ऊंचाई की तिपाई पर रखी होती था, से कोई शब्द देखना हो, तो वे वहां तक जाने की जहमत उठाने की जगह मुझे यह काम करने के लिए कह सकें. यह डिक्शनरी इतनी कम ऊंचाई पर रखी गई थी कि उसमें से कुछ खोजने के लिए किसी को या तो पूरी तरह से झुकना या उकड़ूं होकर (घुटने मोड़कर) बैठना पड़ता और ऐसे में पीठ अकबर की तरफ होती. 1997 को एक रोज़ जब मैं आधा उकड़ूं होकर डिक्शनरी पर झुकी हुई थी, वे दबे पांव पीछे से आए और मुझे कमर से पकड़ लिया. मैं डर के मारे खड़े होने की कोशिश में लड़खड़ा गई. वे अपने हाथ मेरे स्तन से फिराते हुए मेरे नितंब पर ले आए. मैंने उनका हाथ झटकने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने मजबूती से मेरी कमर पकड़ रखी थी और अपने अंगूठे मेरे स्तनों से रगड़ रहे थे. दरवाजा न सिर्फ बंद था, बल्कि उनकी पीठ भी उसमें अड़ी थी. ख़ौफ के उन चंद लम्हों में हर तरह के ख्याल मेरे दिमाग में दौड़ गए. आखिर उन्होंने मुझे छोड़ दिया. इस बीच लगातार एक धूर्त मुस्कराहट उनके चेहरे पर तैरती रही. मैं उनके केबिन से भागते हुए निकली और वॉशरूम में जाकर रोने लगी. मुझे खौफ ने मुझे घेर लिया था. मैंने खुद से कहा कि यह फिर नहीं होगा और मेरे प्रतिरोध ने उन्हें यह बता दिया होगा कि मैं उनकी ‘एक और गर्लफ्रेंड’ नहीं बनना चाहती. लेकिन यह इस बुरे सपने की शुरुआत भर थी. अगली शाम उन्होंने मुझे अपने केबिन में बुलाया. मैंने दरवाजा खटखटाया और भीतर दाखिल हुई. वे दरवाजे के सामने ही खड़े थे और इससे पहले कि मैं कोई प्रतिक्रिया दे पाती, उन्होंने दरवाजा बंद कर दिया और मुझे अपने शरीर और दरवाजे के बीच जकड़ लिया. मैंने खुद को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने मुझे पकड़े रखा और मुझे चूमने के लिए झुके. मैंने पूरी ताकत से अपना मुंह बंद किए हुए, अपने चेहरे को एक तरफ घुमाने के लिए जूझ रही थी. ये खींचातानी चलती रही, मुझे कामयाबी नहीं मिली. मेरे पास बच निकलने के लिए कोई जगह नहीं थी. डर ने मेरी आवाज छीन ली थी. चूंकि मेरा शरीर दरवाजे को धकेल रहा था, इसलिए थोड़ी देर बाद उन्होंने मुझे जाने दिया. आंखों में आंसू लिए मैं वहां से भागी. भागते हुए मैं दफ्तर से बाहर निकली और सूर्य किरण बिल्डिंग से बाहर आकर पार्किंग लॉट में पहुंची. आखिरकार मुझे एक अकेली जगह मिली, मैं वहां बैठी और रोती रही.”
आपने जो हिस्सा पढ़ा वो दि वायर हिन्दी की साइट पर ग़ज़ाला वहाब का अनुवाद है. ग़ज़ाला फोर्स न्यूज़ मैगज़ीन की एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं. ड्रैगन ऑन योर डोरस्टेप: मैनेजिंग चाइना थ्रू मिलिट्री पॉवर की सह लेखिका हैं. कादंबरी ने ट्विटर पर लिखा है कि उन्होंने अकबर से साफ-साफ कह दिया था कि “सर, मुझे अच्छा लगेगा जब आप मुझसे बात करें तो चेहरे की तरफ देखें, छाती न घूरें.''
अगर हिन्दी के अखबार यह सब छाप कर अपने करोड़ों पाठकों तक पहुंचाते तो वे महिला पाठकों का ज़्यादा सशक्तिकरण करते. उन्हें नए शब्द देते और साहस देते कि अपने साथ हुई यौन प्रताड़ना को इस तरह से बयान करना है. आखिर हिन्दी या अन्य भाषाई अखबारों के पास नैतिकता की कौन सी चादर है जिसके नीचे ये यौन प्रताड़ना के सारे प्रसंग पाठकों से छिपा देते हैं.
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