भारत की बदनामी से किसे डर लगता है?

निर्भया केस के बाद आंदोलन करते युवा (फाइल फोटो)

नई दिल्ली:

निर्भया पर बनी डाक्यूमेंट्री का मकसद पूरा हो चुका है। हर डाक्यूमेंट्री की कोशिश होती है कि लोग उस पर बात करें। उसके बहाने मूल विषय की ओर लौटें। यहां तो बिना देखे ही कई लोगों ने अलग-अलग तरीके से इसे देख लिया और कई एंगल से लेख तक लिख डाले। मैं इन लेखों को खारिज नहीं कर रहा, बल्कि उनमें उठाए गए सवाल एक तरह से निर्भया आंदोलन की स्मृतियों की तरफ ही ले चलते हैं। आंदोलन को देखने के नज़रिये को लेकर सतर्क करते हैं और नए नज़रिये की गुज़ाइश भी पैदा करते हैं। कानूनी, अभिव्यक्ति की आज़ादी से लेकर नैतिक सवाल खड़े किए गए हैं। फिल्म मेकर, दर्शक, सरकार, सांसद, वकील, नारीवादी कार्यकर्ता, पत्रकार सब इस बहस के अलग अलग किरदार हैं। इस लिहाज़ से डाक्यूमेंट्री ने हर किसी को मजबूर किया है कि वह देखे, नहीं देखे जाने के बाद भी अपनी राय ज़ाहिर करे। पोज़िटिव और निगेटिव हर तरह की राय आई है।

शायद इसी मकसद से निर्भया पर डाक्यूमेंट्री बनाई गई होगी। डाक्यूमेंट्री कैसी बनी है, इस पर भी अलग स्तर पर बहस चल रही है। कुछ को बेहद पंसद आई है तो कुछ को बेहद सामान्य लगी है। कई लोगों ने यह भी लिखा है कि डाक्यूमेंट्री कैसी होनी चाहिए थी। इसमें और क्या-क्या शामिल किया जा सकता था। हर एंगल से कुछ न कुछ नया देखने और सीखने को मिला है। इसलिए डाक्यूमेंट्री बनाने वालों को बधाई देनी चाहिए कि उन्होंने एक बार फिर से सबको निर्भया आंदोलन के तेवर में ला दिया है। हर कोई सोलह दिसंबर के आस पास घूमने लगा है। कुछ लोग उन यादों के ज़रिये फिर से उत्तेजित हो गए हैं तो कुछ हताश भी कि बदला क्यों नहीं। बस प्रयास यह होना चाहिए कि विरोध या समर्थन में बहस करते समय हमारी उत्तेजना इस स्तर तक न पहुंच जाए कि दीमापुर जैसी घटना हो जाए। सब भीड़ बनकर बलात्कार के कथित आरोपी को पीट-पीटकर मार डाले।

मैं बार-बार इस बहस में एक एंगल देख रहा हूं कि इस डाक्यूमेंट्री से भारत की विदेशों में बदनामी हो रही है। यह एक प्रयास है कि विदेशों में भारत खासकर उसके सभी मर्दों को बलात्कारी ब्रैंड कर दिया जाए। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि एक डाक्यूमेंट्री से भारत की बदनामी कैसे हो रही है। क्या किसी डाक्यूमेंट्री या फिल्म को दिखाने या न दिखाने का यह आधार होना चाहिए कि इससे भारत की बदनामी होगी या नहीं। यह दलील उसी फिज़ूल सोच से आती है कि ग़रीबी दिखाकर कई लोग विदेशों में पुरस्कार ले जाते हैं। पर इसी दलील से आप उन नेताओं और राजनीतिक दलों के बारे में क्या सोचते हैं जो ग़रीबी दूर करने के नाम पर झूठा वादा कर देते हैं और सत्ता हासिल कर जाते हैं। ज़रा कोई बताएगा इस देश में ग़रीबी कहां दूर हुई है। ग़रीबी बेचकर अगर कोई सबसे ज्यादा इनाम हासिल करता है तो वह हमारे नेता हैं। जो ग़रीबों के बीच हेलिकॉप्टर से उतरते हैं, करोड़ रुपये की कार से जाते हैं और उन्हें सपने बेचकर अपने लिए सत्ता हासिल कर लेते हैं। कई अमीर नेता तो चुनाव में ख़ुद को ग़रीबी रेखा से नीचे का ऐसे बताने लगते हैं कि ग़रीब भी हैरान हो जाता होगा कि अभी अभी जो चार्टड प्लेन से आया है वह भी ग़रीब है तो हम क्या हैं।

निर्भया डाक्यूमेंट्री में जो दो वकील एपी सिंह और एमएल शर्मा भारतीय औरतों और अपनी बेटी के बारे में सांस्कृतिक ज्ञान दे रहे हैं उसे हम क्यों न दिखाएं। मेरी राय में अगर भारत की बदनामी होती है तब भी ऐसे वकीलों के बारे में दिखाया जाना चाहिए। क्या हम उन ख़बरों को इसलिए दिखाना बंद कर दें जिनके दिखाने से भारत की बदनामी होगी। क्या हम नेताओं के झूठ न पकड़े नारी पर अत्याचार की ख़बरें न दिखाएं, भ्रष्टाचार की ख़बरें न दिखायें क्योंकि इससे भारत की बदनामी हो जाएगी। कई नेता बोलते रहते हैं कि बार-बार बलात्कार की ख़बरें दिखाने से पर्यटन पर असर पड़ता है।

क्या मीडिया बलात्कार की ख़बरें इसलिए न दिखाए। एक-दो दिखा दे, मगर चार-पांच न दिखाये क्योंकि पर्यटन पर असर पड़ेगा। तो फिर सरकार मीडिया को भी टूरिज़्म अडवाइज़री जारी कर दे कि आप बलात्कार की ख़बरें या वैसी ख़बरें न दिखाएं जिससे पर्यटन को नुकसान हो। हम भी जनता से कह दें कि देखिए हमारा काम देश की अर्थव्यवस्था में योगदान करना है न कि आपके इलाके में हुए बलात्कार की रिपोर्टिंग करना।

बेतुकी बातों की भी हद होती है। भारत की बदनामी क्या देशभक्त होने की नई कैटगरी है। अगर इसी पर आम सहमति है तो फिर बताइये कि आपके लिए ये हेडलाइन कैसी रहेगी। आज भी हमारे मंत्री ने बारिश से बर्बाद गेंहूं के खेतों में चार सोने की चिड़िया उड़ते देखी है। लेकिन इससे भारत की बदनामी हो गई तो। ठीक है इस हेडलाइन को दूसरे तरीके से लिखते हैं। भारत में सारी चिड़िया सोने की हो गई हैं। खेतों में सोना लहलहा रहा है। अनाज यूरोप में उगते हैं और कौए पेंगुइन की ससुराल में होते हैं, भारत में तो सब सोने के होते हैं।

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हम क्या बात कर रहे हैं और क्यों बात कर रहे हैं इस पर गौर करना चाहिए। आप डाक्यूमेंट्री को बेशक खराब और बेहतर के हिसाब से देखिए, लेकिन प्लीज इसलिए न देखिये कि इससे भातर की बदनामी तो नहीं हो रही है। अगर आपको लगता है कि इन सब बातों से भारत की बदनामी हो रही है तो आप पहले उस मानसिकता को बदल दीजिए, जिसने शर्मा और सिंह जैसे वकीलों को जकड़ लिया है। उस मानसिकता को बदल दीजिए जिसकी ज़मीन पर कोई मुकेश कुमार पैदा होता है। उस मानसिकता को बदल दीजिए जो भीड़ बनकर किसी आरोपी पर वहशी की तरह टूट पड़ती है। अगर भारत की बदनामी ही नई शर्त है तो सेंसर बोर्ड का नाम बदल कर भारतीय बदनामी निवारण बोर्ड रख दीजिए, जहां पहलाज निहलानी साहब हर उस सीन को काटते रहेंगे जिससे भारत की बदनामी होगी।