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This Article is From Oct 05, 2015

कादम्बिनी शर्मा : दादरी पूछता है आप कौन हैं?

Reported By Kadambini Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 05, 2015 21:24 pm IST
    • Published On अक्टूबर 05, 2015 21:19 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 05, 2015 21:24 pm IST
ग्रेटर नोएडा के दादरी में अख़लाक़ का मारा जाना महज़ हादसा था या साज़िश या कुछ और इस पर अभी जांच चलेगी और उससे भी लंबी और उससे परे बहस। लेकिन ये एक ऐसी घटना है जिसके बाद आपको, हमें खुद से पूछना चाहिए कि हम आखिर हैं कौन...पहचान क्या है हमारी...

क्या आप वो भीड़ हैं जो किसी अकेले को टोह कर मारती है। इसलिए कि भीड़ में आपको ताकतवर महसूस होता है, जो अकेले में नहीं होता। आपके अंदर के उस जानवर को खुली छूट मिल जाती है नफरत का, क्रूरता का नंगा नाच नाचने के लिए जिसे सभ्यता इंसान बनाने की कोशिश करती रही है। मन के किसी कोने में कोई छोटी सी आवाज़ आपको बताती है कि जो आप कर रहे हैं ग़लत है लेकिन भीड़ कुछ और कह रही है और इस भीड़ से अलग आप में हिम्मत नहीं है, बौना पाते हैं आप खुद को और इस आवाज़ को दबा देते हैं। या आप भीड़ के साथ इसलिए खड़े होते हैं कि आपको लगता है कि भीड़ के साथ नहीं हुए तो उसका निशाना बन जाएंगे। आप भीड़ की क्रूरता में इसलिए भी शामिल हैं क्योंकि भीड़ में किसी एक की ज़िम्मेदारी तय करना मुश्किल होता है और आपको लगता है कि जो भी ग़लत आप करेंगे उसकी कोई जवाबदेही नहीं होगी।

या फिर आप इस भीड़ की क्रीड़ास्थली में एक दर्शक हैं, किसी खूनी खेल के लिए उकसाते हुए- शब्दों से, तालियों से तारीफ से... असल में आप भीड़ से भी ज्यादा डरपोक हैं... मन आपका भी उसी क्रूरता को छटपटाता है लेकिन आप किसी और को ये करता देख खुश हो लेते हैं। क्योंकि आप सिर्फ भीड़ की करनी नहीं देखते, आप कनखियों से सुरक्षित दुबक लेने के रास्तों को भी देखते हैं। आप शायद उन लोगों में से हैं जो आते जाते सड़क पर किसी आवारा कुत्ते को लात मार कर संतुष्टि से मुस्करा लेते होंगे। आप सिर्फ और सिर्फ डर से बमुश्किल इंसान होने का ढोंग रचा रहे हैं।

आप मूक दर्शक भी हो सकते हैं... सब देख कर चुप रह जाने वाले। पता नहीं भीड़ के कारनामे को आप सही मानते हैं या ग़लत क्योंकि आप कुछ कहते नहीं तो किसी को पता नहीं। आप भी निश्चिंत हैं क्योंकि हर चीज़ का जवाब होगा आपके पास कि हमने तो कुछ कहा तक नहीं। यही तो बात है, कहा तक नहीं। सही मान रहे हैं तो भी डर, ग़लत मान रहे हैं तो भी डर। एक कदम आगे तो भी डर, एक कदम पीछे तो भी डर। ध्यान रखिएगा कहीं डर से ही किसी दिन जान ना चली जाए, वो जान जिसे इतना सहेज रहे हैं।

लेकिन रुकिए...आप सब की और भी तो पहचान होगी... अलग अलग कौम होंगे, अलग अलग जातियां भी होंगी, छात्र भी होंगे, नेता भी होंगे, पार्टी कार्यकर्ता, कोई दुकादार, कोई खेतिहर होगा, कोई इंजीनियर तो कोई तथाकथित पत्रकार भी होगा। इन पहचानों पर खतरा मंडराता लगता होगा कभी, तो कभी भीड़ बन कर, कभी उकसाते दर्शक बनकर, कभी मूक दर्शक बन कर खतरे को खत्म करते होंगे।

नहीं, महिलाओं को नहीं भूली हूं। आप भी हैं इन सब में। वो जिनका दर्द से पुराना गाढ़ा रिश्ता है..अक्सर मर्दों के हाथों ही मिलता है ये दर्द... पिता, पति, बेटा... लेकिन इन्हीं के लिए आप अपनी नैसर्गिक सौम्यता को तिलांजलि दे देती हैं। या आपका खुद का स्वार्थ है, डर है... कि इनका साथ नहीं दिया तो कौन उठाएगा खाना-खर्चा, कहीं घर से तो बाहर नहीं कर दिए जाएंगे, अकेले तो नहीं रह जाएंगे।

वैसे एक खूनी खेल सोशल मीडिया में भी चलता है... भूमिकाएं ऐसी ही होती हैं... कोई छिप कर, कोई खुल कर हमले करता है आवाज़ दबाने के लिए। जानते हैं आप। कहने की भी ज़रूरत नहीं।

पूछिए न खुद से कौन हैं आप इनमें से?

अब भी इंसान पाते हैं खुद को?

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