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This Article is From Feb 22, 2019

कब होगी आम आदमी के मुद्दे पर राजनीति?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 22, 2019 00:22 am IST
    • Published On फ़रवरी 22, 2019 00:22 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 22, 2019 00:22 am IST

राजनीति फिर से अपने तेवर में आ गई है. तरह तरह की आवाज़ें आने लगी हैं. गठबंधन की आलोचना हो रही है, गठबंधन भी हो रहा है. सीटों का बंटवारा होने लगा है. बयानों के संघर्ष में मुद्दे अपने लिए संघर्ष का रास्ता खोजने लगे हैं. आम आदमी के मुद्दे पर राजनीति होगी या नेताओं के भाषण पर आम आदमी राजनीति करेगा. मुश्किल समय है. सैकड़ों चैनलों से प्रोपेगैंडा शुरू हो चुका है. सब कुछ टीवी है. टीवी के इस खेल में आप सिर्फ एक दर्शक हैं. टीवी को जो भोग लगेगा, वही आपके बीच प्रसाद के रूप में बंटेगा. न दर्शक जीत सकता है न आम आदमी. लेकिन इस हार को समझने का एक ही तरीका बचा है. कि आप 900 करोड़ के हीरे की चमक में खो जाएं. दिल्ली के नेशनल म्यूज़ियम में रखा यह हीरा 19वीं सदी का है. जैकब डायमंड. बिल्कुल असली प्लाट है. विक्टोरिया नंबर 203 या कालिया का नहीं. जनता के 215 करोड़ से 1995 में भारत सरकार ने निज़ाम के इस खज़ाने को ख़रीदा था. आज इसकी कीमत 900 करोड़ तक पहुंच गई है. यही एक हीरा नही है यहां. और भी हैं.

टीवी यही करता है. आपके सामने हीरा रख देता है. ताकि इसकी चमक में आप वो हकीकत न देख पाएं जो आपका मिज़ाज बदल सकती हैं. महानगर टेलिफोन नगर लिमिटेड के हज़ारों कर्मचारी जंतर मंतर पर जमा हो गए थे. इन कर्मचारियों को नेशनल म्यूज़ियम लेकर जाकर 900 करोड़ का हीरा दिखाना चाहिए ताकि इनके बीच उम्मीद पैदा हो सके.

20 फरवरी के इस प्रदर्शन को लोकतंत्र की रिपोर्टिंग से गायब कर दिया गया होगा. इन हज़ारों लोगों को भी पता चला होगा कि प्रदर्शन की संख्या बड़ी हो जाने से मीडिया में न तो मुद्दा बनते हैं और न जगह मिलती है. वीडियो में दिखने वाले ये लोग महज़ बिन्दु बनकर रह गए हैं. इनका कहना है कि तीन महीने से सैलरी समय पर नहीं मिलती है. जब प्रदर्शन करते हैं तभी सैलरी मिलती है. इस बार भी प्रदर्शन 20 फरवरी को हुआ और 21 फरवरी को सैलरी आनी शुरू हो गई. इन कर्मचारियों का भत्ता बंद हो गया है. 2016 से ही केंदीय कर्मचारियों को सातवां वेतन मिल रहा है मगर एमटीएनएल के कर्मचारियों का वेतन 1 जनवरी 2017 से पे रिवीजन लागू हो जाना चाहिए मगर लागू नहीं हुआ है. पिछली बार 18 सितंबर 2018 को एमटीएनएल कर्मचारियों ने तालकटोरा स्टेडियम में हज़ारों की संख्या में जमाहोकर प्रदर्शन किया था. जहां संचार मंत्री मनोज सिन्हा ने आश्वासन दिया था कि एमटीएनएल बंद नहीं होगा. सैलरी समय पर मिलेगी. मगर तीन महीने से सैलरी नहीं मिल रही है. इन कर्मचारियों का कहना है कि 20,000 करोड़ के घाटे में है. बैंक कई लाख करोड़ के घाटे में हैं तो सरकार लगातार पैसे दे रही है. मगर एमटीएनएल और बीएसएनएल को क्यों नहीं बचा रही है. जंतर मंतर पर यहां बीजेपी के सांसद रमेश बिधूड़ी आए तो इनकी मांग में अपनी राजनीति मिला गए यह कहते हुए कि वे राजनीति नहीं कर रहे हैं.

सांसद बिधूड़ी जिस प्रदर्शन में आए थे, वो जनसंघ और कश्मीर की समस्या को लेकर नहीं था. वैसे उन्होंने भाषण के अंत में कहा कि संचार मंत्री से मिलकर आग्रह करेंगे कि इन्हें समय पर सैलरी मिले. जनवरी की सैलरी 20 फरवरी तक खाते में नहीं आई है. प्रदर्शन के एक दिन बाद से कुछ लोगों को सैलरी आनी शुरू हो गई है. मगर एमटीएनएल के कर्मचारियों की बाकी मांगों का क्या हुआ. क्या उन पर कोई कार्रवाई हो रही है. क्या उन्हें सातवां वेतन आयोग मिलेगा.

दिल्ली महानगर में ये हालत है. हज़ारों कर्मचारी जमा होते हैं और किसी को पता नहीं चलता है. महाराष्ट्र में किसान एक बार फिर से नाशिक से मुंबई के लिए लॉन्‍ग मार्च पर निकले हैं. महाराष्ट्र सरकार उनसे बातचीत कर मार्च टलवाने का प्रयास कर रही है. पिछले साल मार्च के महीने में भी मार्च निकला था. किसानों का कहना है कि उस समय जो वादे किए गए थे वो पूरे नहीं किए गए.

सुबह 10 बजे मुंबई नाशिक हाईवे पर मुंबई नाका से यह मार्च शुरू हुआ. मगर उसके पहले ही महाराष्ट्र के जल संपदा मंत्री गिरीश महाजन ने किसानों से बात कर समझाने का प्रयास किया. दोनों तरफ से सकारात्मक बातचीत का दावा किया गया मगर किसानों को लिखित रूप से चाहिए था. जब लिखित आश्वासन नहीं आया तब 10 बजे मार्च शुरू हो गया. दोपहर तक चलने के बाद यह मार्च विल्होली नाके के पास जमा हो गया. करीब 18 किमी मार्च जारी रहा. वहां फिर से महाराष्ट्र सरकार और किसान नेताओं के बीच बातचीत जारी है. अखिल भारतीय किसान सभा ने इस मार्च को निकाला है. कई मुद्दों को लेकर मार्च निकल रहा है. कई नदियों पर बांध और बराज बनाने की मांग है ताकि बारिश और नदियों का पानी अरब सागर में जाकर न मिले. इस पानी का इस्तमाल सिंचाई के लिए हो. सूखा के कारण जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई के लिए 40,000 प्रति एकड़ के हिसाब से मुआवज़ा मिले. बिजली बिल माफ हो. सभी किसानों का कर्जा माफ हो. बेनामी ज़मीन, मंदिरों की ज़मीन को किसानों के नाम किया जाए. नौकरी, शिक्षा, स्वास्थ्य से जुड़ी मांगे हैं. 3000 रुपये मासिक पेंशन मिले. जो लोग ज़मीन जोत रहे हैं उन्हें बेदखल करने के लिए प्रशासन वन अधिकार नियम 2006 के प्रावधानों का गलत इस्तमाल कर रहा है. नियमों की गलत व्याख्या कर आदिवासी किसानों को तंग किया जा रहा है.

11 लाख से अधिक आदिवासियों को जंगल की ज़मीन और अपने गांवों से बेदखल होना होगा. क्या यह इतनी सामान्य खबर है कि किसी की नज़र नहीं है. आपने देखा कि छह सात हज़ार एमटीएनएल के कर्मचारियों की भी मीडिया में अहमियत नहीं है और न 11 लाख आदिवासियों की. चैनलों के इस जगत में संख्या कितनी बेमानी होती जा रही है. सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को एक आदेश दिया जिसका लिखित रूप जब 20 फरवरी को आया तो इस मसले को कवर करने वाले पत्रकारों की नजर पड़ गई.

नितिन सेठी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इतने अहम फैसले की सुनवाई में केंद्र सरकार ने अपना वकील ही नहीं भेजा. कई राज्य सरकारें आदिवासियों के अधिकार का बचाव भी नहीं कर सकीं. जस्टिस अरुण मिश्र, जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस इंद्राणी बनजी की पीठ ने फैसला दिया है कि वन अधिकार कानून 2006 के तहत जिन आदिवासियों के दावे रिजेक्ट हुए हैं, उन्हें जंगल की ज़मीन और घरों से बेदखल कर दिया जाए. उन्हें हटा दिया जाए. राज्यों ने रिजेक्ट किए हुए केस की जो संख्या अदालत को बताई है वह 11 लाख से कुछ अधिक है. तिस पर कई राज्यों ने अभी रिपोर्ट नहीं दी है. अगर वो सब शामिल होगी तो बेदखल होने वाले आदिवासियों की संख्या 11 लाख से भी अधिक हो सकती है. इन सबको 27 जुलाई तक जंगल की ज़मीन से हटा देना होगा, और इसकी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को देनी होगी. कोताही बरतने पर कड़ी कार्रवाई की भी चेतावनी मिली है. उम्मीद है जंगलों में चैनल नहीं आते होंगे और आदिवासियों को पता नहीं होगा कि 11 लाख से अधिक आदिवासियों को अपना घर और खेत छोड़ना पड़ेगा जिस पर वे दशकों से खेती करते आए हैं. वाइल्ड लाइफ ग्रुप ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी कि जिनके दावे रिजेक्ट हो गए हैं उन्हें हटाया जाए. यूपीए सरकार के समय 2006 में यह कानून बना था. आम तौर पर लोग समझते हैं कि इसके तहत मालिकाना हक मिल गया. जबकि ऐसा नहीं है. जो खेती करता आया था उसे खेती का अधिकार दिया गया और जो जंगलों से मध वगैरह उत्पादों को लाता था, उसे संग्रह करने का अधिकार दिया गया. इसी अधिकार के लिए कुछ दस्तावेज़ सौंपने थे. जिन लोगों ने नहीं सौंपे उनके दावे खारिज कर दिए गए.

अभी हमने आपको बताया कि महाराष्ट्र में किसानों के लॉन्‍ग मार्च में एक मुद्दा यह भी है कि अधिकारी जानबूझ कर किसानों को अधिकार नहीं दे रहे हैं, नियम की मनमानी व्याख्या कर उन्हें वंचित कर रहे हैं. हमने इस अधिकार को लागू करने वाले एक अधिकारी से बात की. नाम न बताते हुए उन्होंने कहा कि आदिवासी लोगों के पास सही से सूचना नहीं पहुंची. उन्हें दोबारा दस्तावेज़ लाने का मौका नहीं दिया गया. नहीं बताया गया कि वे अपील कर सकते हैं और अपना अधिकार ले सकते हैं. इसकी जगह अधिकारियों ने छोड़ दिया. अगर वन अधिकार देने की प्रक्रिया का पालन नहीं हुआ तो जिम्मेदार विभाग है. अधिकारी हैं. आदिवासी नहीं हैं. इस आदेश से यह नहीं समझा जाना चाहिए कि आदिवासियों ने ज़मीन का अतिक्रमण किया है. इस संबंध में इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर मिली. विवेक देशपांडे की है. 18 मार्च 2018 की. खबर का शीर्षक है कि गढ़चिरौली में कोई दावा बाकी नहीं है. गढ़चिरौली ने वन अधिकार कानून के लागू करने का रास्ता दिखाया है.

गढ़चिरौली में 31,114 किसानों के दावे स्वीकार किए गए. जिनमें से आदिवासी भी थे और गैर आदिवासी भी. इन सबका दावा वन अधिकार कानून के तहत स्वीकार किया गया. एक ऐसे राज्य में जहां 21 ज़िलों में यह कानून न के बराबर लागू हुआ था, गढ़चिरौली में 2017 की रिपोर्ट के अनुसार 66 प्रतिशत दावेदारों को वन अघिकार मिल गया. यहां मात्र 4,820 दावे ही रिजेक्ट हुए. यहां पर गांव गांव में अधिकारियों ने सभा ली थी. प्रधान को समझाया था कि कौन सा दस्तावेज लाना है. तब तक अपने दावे को अपील में डालकर वे समय ले सकते हैं.

दो तरह की धाराएं हैं. कुछ का मानना है कि अधिकार देने से जंगल नष्ट हो जाएंगे. पर क्या जंगल आदिवासियों के कारण नष्ट हुए या उन नीतियों के कारण जो आदिवासियों को बेदखल करने के लिए बनाई जाती हैं. एक धड़ा तो यह भी मानता है कि व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकार देने से जंगलों का बेहतर बचाव होता है.

आप कल्पना नहीं कर सकते हैं कि जब आदिवासी इलाकों में सुप्रीम कोर्ट के आदेश की खबर पहुंचेगी तो वे कितने परेशान होंगे. पूरा तंत्र 11 लाख लोगों को हटाने में लग जाएगा. 2002-2004 में भी देश भर में आदिवासियों को अपनी ज़मीन से बेदखल किया गया था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ही. दि वायर में पत्रकार नितिन सेठी ने सी आर बिजॉय के शोध का हवाला देते हुए लिखा है कि उस समय तीन लाख आदिवासी बेदखल हो गए थे. तब मध्य भारत के आदिवासी अंचलो में काफी हिंसा भड़क गई थी.

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