अगस्त 1979 की बात है...यूपी के इटावा जिले के ऊसराहार थाने में आम दिनों की तरह की काम चल रहा था. तभी मुड़ा-तुड़ा और मैला कुर्ता पहना एक शख्स थाने में आता है.पहली नजर में वो किसान दिख रहा था. उसे जो पहला सिपाही मिलता है उससे वो कहता है- साहब मेरा बैल चोरी हो गया, रिपोर्ट लिख लो. सिपाही ने उसकी गुहार को अनसुना कर दिया. फिर वो शख्स दारोगा के पास पहुंचा. दारोगा ने उसकी बात तो सुनी लेकिन रिपोर्ट नहीं लिखी... निराश होकर जब वो थाने से बाहर निकलने लगा तो एक सिपाही ने कहा- बाबा कुछ चढ़ावा चढ़ाओ,काम हो जाएगा.
थोड़ा मोल-भाव करने के बाद में 35 रुपये की रिश्वत लेकर रपट लिखना तय हुआ. रपट लिख कर मुंशी ने किसान से पूछा-बाबा हस्ताक्षर करोगे कि अंगूठा लगाओगे.किसान ने कहा- हस्ताक्षर करूंगा. इसके बाद उसने न सिर्फ तहरीर पर साइन किया बल्कि जेब से एक मुहर निकाल कर कागज पर ठोंक भी दिया. उस मुहर पर लिखा था- प्रधानमंत्री, भारत सरकार. जानते हैं वो PM कौन थे...वे थे चौधरी चरण सिंह.NDTV इतिहास की नई पेशकश में बात किसानों के मसीहा भारत रत्न चौधरी चरण सिंह की...
चौधरी चरण सिंह की शख्सियत को समझने के लिए बात शुरू से शुरू करते हैं. 23 दिसंबर 1902 को यूपी के हापुड़ के भूपगढ़ी गांव के चौधरी मीर सिंह और नेत्र कौर के घर एक बालक का जन्म हुआ. जिसका नाम रखा गया चौधरी चरण सिंह. चौधरी साहब का खानदान देशभक्तों का था.उनके दादा 1857 की क्रांति में भाग ले चुके थे. लिहाजा चरण सिंह की परवरिश भी इसी माहौल में हुई. शुरू की पढ़ाई गांव के पास ही जानी खुर्द गांव के सरकारी स्कूल में . वहां उन्होंने कक्षा 4 तक ही पढ़ाई की,उसके बाद वह अपने मां-बाप के पास नूरपुर चले गए थे.
हालांकि कुछ सालों बाद उनका परिवार फिर से भूपगढ़ी वापस लौट आया. गांव भूपगढ़ी में रहने के दौरान चरण सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में हिस्सा लिया था. जिसके कारण 1941 में उन्हें जेल भी जाना पड़ा. जिला कारागार में उन्हें बैरक नंबर 9 में रखा गया था. आज इस जिला कारागार का नाम भी चौधरी चरण सिंह के नाम पर ही है. हालांकि इससे पहले चौधरी साहब ने आगरा यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई पूरी कर ली थी. उन्होंने 1928 में ही गाजियाबाद से वकालत शुरू कर दी थी. हालांकि राजनीति से उनका लगाव पैदा हो चुका था. प्रखर वक्ता तो वो थे ही.इसी माहौल में 1937 में उन्होंने पहली बार छपरौली से विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
1937 में ही वो सरकार का हिस्सा बन गए थे 1939 में उन्होंने तब की अंग्रेज सरकार से कर्जमाफी का विधेयक पास करवाया. इसके बाद अगले 30 साल तक वे तब के सयुंक्त प्रान्त और अब के उत्तर प्रदेश विधानसभा में विभिन्न महत्वपूर्ण भूमिकाओं में रहे. 1946 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत की अगुवाई वाली प्रदेश सरकार में वे संसदीय सचिव बने. इसके बाद 1951 से 1967 की लंबी अवधि में वे उत्तर प्रदेश सरकार में किसी न किसी विभाग के मंत्री रहे. इसके बाद 1967 में यूपी में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला तब चरण सिंह की अगुवाई में प्रदेश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी, जिसमें जनसंघ, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट सब शामिल थे. हालांकि ये सरकार गिर गई.
1969 के राज्य विधानसभा के मध्यावधि चुनाव में चरण सिंह के नेतृत्व वाला भारतीय क्रांतिदल मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उभरा. 1970 में चरण सिंह फिर से साझा सरकार के मुख्यमंत्री थे. पर इस बार कांग्रेस के साथ.इसके बाद 1974 में उन्होंने लोकदल का गठन किया. हालांकि इंदिरा गांधी से टकराव की वजह से आपातकाल में उन्हें जेल में जाना पड़ा. इसके बाद जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो प्रधानमंत्री मोराजी देसाई से मतभेद होने के बावजूद वे 24 मार्च 1977 को इस सरकार में वित्त मंत्री बने. हालांकि मतभेदों के चलते 1 जुलाई 1978 को मंत्रिमंडल से उनकी छुट्टी हो गई.
सरकार से बाहर होने के बाद भी चौधरी साहब की राजनीतिक जमीन मजबूत रही. अपने 76वें जन्मदिन पर 23 दिसम्बर 1978 को उन्होंने दिल्ली के बोट क्लब पर ऐतिहासिक रैली की जिसमे किसानों का सैलाब उमड़ पड़ा.इस रैली के सिर्फ एक महीने के भीतर 24 जनवरी 1979 को मोरारजी सरकार में उनकी वापसी हुई. उप प्रधान मंत्री पद के साथ इस बार उन्हें वित्त मंत्रालय मिला. वे फिर से सरकार में थे लेकिन मतभेद बढ़ते ही गए.
वे यूपी के दो बार मुख्यमंत्री रहे और एक बार देश के प्रधानमंत्री बने. इस दौरान उनसे साथ अनोखा रिकॉर्ड भी जुड़ गया. वे देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने कभी भी संसद का सामना नहीं किया. हालांकि एक और रिकॉर्ड उनके साथ जुड़ा है वो है कभी भी चुनाव न हारने का. बहरहाल ये तो थी उनकी सियासी पारी लेकिन चौधरी साहब अपने इरादे के पक्के थे. शुरू में हमने जिस घटना का जिक्र किया उस घटना से पूरे देश में सुर्खियां बटोरी थी. तब पूरा थाना एक झटके में सस्पेंड हो गया था. इसके अलावा जब वे यूपी में राजस्व तथा कृषि विभाग की जिम्मेदारी संभाल रहे थे तब भी एक वाक्या उनके पक्के इरादों को जाहिर करता है.
हुआ यूं कि उस समय यूपी में 27 हजार पटवारी हड़ताल पर थे और उन लोगों ने सामुहिक इस्तीफा दे दिया. उन्हें लगा सरकार पीछे हट जाएगी लेकिन हुआ इसका उल्टा. चौधरी साहब ने एक पल भी नहीं सोचा और सभी का इस्तीफा स्वीकार कर लिया. उन्हें किसानों को पटवारी के आतंक से आजाद दिलाने का श्रेय भी दिया जाता है. बाद में उन्होंने ही खुद नए पटवारी नियुक्त किए,जिन्हें अब लेखपाल कहा जाता है. इसमें 18 परसेंट सीट हरिजनों के लिए रिजर्व थी. चौधरी साहब की अपनी ही सियासत थी.. पंडित जवाहर लाल नेहरू से भी उनका मतभेद रहा जिसके बाद वे न सिर्फ सरकार से अलग हुए बल्कि भारतीय क्रांति दल की स्थापना भी की. अब चलते-चलते चौधरी साहब की निजी जिंदगी में भी झांक लेते हैं. उन्हें भूपगढ़ी गांव के नजदीक ही मौजूद जानी गांव के मुन्नू हलवाई का पेड़ा बेहद पसंद था.
यही वजह है कि दिल्ली में जब कोई गांव वाला उनसे मिलने आता था तो वह मुन्नूलाल हलवाई के पेड़े उनके लिए लेकर जाता था. इस गांव में आज भी उनके जन्मदिन पर हर साल हवन किया जाता है. वे एक राजनेता के साथ ही एक कुशल लेखक भी थे और अंग्रेज़ी भाषा पर अच्छी पकड़ रखते थे. उन्होंने 'अबॉलिशन ऑफ़ ज़मींदारी', 'लिजेण्ड प्रोपराइटरशिप' और 'इंडियास पॉवर्टी एण्ड इट्स सोल्यूशंस' नामक पुस्तकें भी लिखीं. उनका मानना था कि हमारे राज्य या देश की परिस्थितियों में कोई भी व्यक्ति सच्चे अर्थों में लोगों की सेवा तब तक नहीं कर सकता जब तक कि वह गांव को और ग्रामीणों की समस्याओं से वास्तविक रूप में रूबरू न हो. उन्होंने कहा था- देश की समृद्धि का रास्ता गांवों के खेतों और खलिहानों से होकर ही गुजरता है.