“कहाँ जाइएगा आप? प्रेस, पुलिस, पॉलिटिशियन के पास? लेकिन इन सब के बच्चे तो यहीं पढ़ते हैं!”. यह संवाद है एक हिंदी सिनेमा ‘हिंदी मीडियम' का. जिसमें नायक को एक तरह से धमकाते हुए स्कूल की प्रिंसिपल यह सब कहती है. आगे फिल्म का नायक इरफ़ान खान कहता है- “ये स्कूल नहीं धंधा है जी...और ये प्रिंसिपल नहीं बिज़नस-मैन है”. याद रखिये यह सिनेमा का कोई नाटकीय संवाद मात्र नहीं है- यह शिक्षा जगत की चीख मारती सच्चाई है. हम आप सब अभ्यस्त हो चुके हैं इस लूट-पाट के. या फिर इतनी ताकत नहीं कि इनके विरुद्ध कह-बोल सके. ताकत आएगी भी कैसे जब ऊपर के संवाद से साफ है कि प्रेस, पुलिस और पॉलिटिशियन सब का इनसे एक गठजोड़ जैसा है. यह गठजोड़ कोई व्यक्तिगत तरह का ही नहीं है, बल्कि संस्थागत है. यह संस्थाकरण आर्थिक उदारीकरण के दौर में मजबूती से हुआ. नब्बे के दशक के बाद खुले बाजार की नीति ने आम आदमी के सरोकारों को सदा के लिए बंद कर गया.
खुलेपन के दर्शन में खुला जैसा कुछ भी नहीं था. उदार होती अर्थव्यवस्था का आम आदमी से कोई सम्बन्ध नहीं था. तमाम उदारता निजी और बड़े फर्मों के लिए थी. इसने महज अभिभावकों की आमदनी पर ही डाका नहीं डाला, बल्कि इन सबों से ऊपर इसने छात्रों के मनोबल को कमजोर कर दिया. छात्र आत्महीन और दिशाहीन होते चले गए. और जिस कारण अन्य विसंगतियों के साथ-साथ उनमे आत्महत्या का भी तेजी से चलन हुआ. जिसे नीचे के ग्राफ से समझा जा सकता है. पिछले एक दशक से अबतक का यह ग्राफ भयावह है, जबकि आंकड़े सरकारी है. कमाल की बात है कि लगातार विकसित और संपन्न होती दुनिया में जीवन के प्रति उपेक्षा बढती ही जा रही. वर्ष 2010 में कुल सुसाइड केसों में 5.5 प्रतिशत स्टूडेंट थे, वहीं, वर्ष 2020-21 आते-आते यह आंकड़ा लगभग 8.5 प्रतिशत तक चला गया, और आनेवाले समय में इसमें कमी आएगी ऐसी सम्भावना भी नहीं दिखती, क्योंकि ग्लोबल अर्थव्यवस्था अब नव-उदार हो चुकी है. अर्थतंत्र की बदलती हुई करवटों ने समाज, राजनीति, कला, शिक्षा, संस्कृति सबका स्वरूप तेजी से बदला है, और आगे अभी और बदलाव शेष है. बदलाव स्वाभाविक है, लेकिन वह किन शर्तों पर किया जा रहा है यह जरुर विचार किया जाना चाहिए. खासकर तब जब यह आत्महत्या की एक संस्कृति का निर्माण कर रही हो.
स्रोत : NCRB
आमतौर पर शिक्षा के दो उद्देश्य माने जाते हैं. पहला मूल्य का विकास, और दूसरा रोजगार का सृजन. आधुनिक शिक्षा पद्धति इन दोनों ही मानकों पर असफल मानी जा सकती है. भारत में शिक्षा से मूल्यों के विलुप्त होने की चर्चा हाल के वर्षों में तेजी से हुई है और हो रही है. आधुनिक शिक्षा पद्धति से मूल्यों के गायब होने का सबसे अधिक फायदा धार्मिक और मजहबी तंत्रों ने ही उठाया. और उन्होंने अपने-अपने तरह से शिक्षा प्रदान करने के लिए संस्थानों को खड़ा भी किया. और मतान्धता को फिर से प्रसारित करने लगे. लोगों ने भी ऐसी संस्थाओं का स्वागत किया, बजाये इसके कि एक नयी सार्वभौमिक नैतिकता का विकास किया जाए. उन्हें भी लगा कि इससे उनके बच्चे अधिक “संस्कारवान” होंगे. लेकिन इससे छात्र शायद अधिक भ्रमित हुए. वे आधुनिक वैश्विक मूल्य और पारंपरिक धार्मिक मूल्यों के बीच सामंजस्य नहीं बना सके. जहाँ एक तरफ आधुनिक सेक्युलर मूल्य उनसे अपेक्षा कर रहा था कि वे आर्थिक दुनिया में एक तार्किक मानव की तरह जिए, तो दूसरी तरफ धार्मिक मूल्य उनसे पारंपरिक जीवन पद्धति की तरफ लौटने का दबाव बना रही है. दोनों ही मूल्यों के दर्शन एक दूसरे के विपरीत रहे हैं.
आज के दौर में आधुनिक आर्थिक मूल्य जीवन का मूर्त सत्य है, जिसे ख़ारिज किया जाना संभव नहीं. जीवन का दैहिक वजूद इसी पर टिका है. आधुनिक छात्र इसी द्वन्द में जी रहा. वह समझ नहीं पा रहा कि वह कैसे जिए- अपने दैहिक वजूद को बचाए या उस आत्मा को जिसका देह के बिना कोई वजूद नहीं. घर की नैतिकता घर से निकलते ही अनैतिक और अव्यवहारिक हो जाती है. और वह बाहर की दुनिया से बाहर हो जाता है. बाहर की नैतिकता घर में अमान्य हो जाती, जिस कारण घर के भीतर भी वह खुद को अकेला पाता है. बाहर और भीतर सब जगह वह अपने को जोड़ पाने की कोशिश करता रह जाता है.
मूल्यों के विकास और उसके व्यवहारिक जीवन में उतरने के लिए वहां के आर्थिक और सामाजिक जीवन की बनावट का महत्त्व होता है और फिर उसी अनुसार मूल्यों का निर्माण होता है. मूल्य शून्य में नहीं पैदा होते. झूठ मत बोलो- ऐसा कह देने से ऐसे जिया नहीं जा सकता. आज की आर्थिक और सामाजिक बनावट में अनगिनत बार हम अगर प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष तरीके से झूठ बोलते ही हैं- और खूब बोलते हैं. यह आश्चर्यजनक है कि आजकल मूल्य शून्य में ही पैदा किये जाने की कोशिश की जा रही. यह शायद संभव नहीं. और इसमें सरकारें और समाज दोनों ही बराबर से जिम्मेवार हैं. जीवन का दर्शन अगर स्पष्ट नहीं होगा तो जीवन का महत्त्व भी अस्पष्ट ही होगा. छात्रों में जीवन से मोह भंग इन कारणों से भी होता है. हाल के वर्षों में हमारे पास कई ऐसे छात्रों के कॉल आयें हैं जिनमें आत्मघाती प्रवृति हमने देखा. कईयों ने तो साफ़-साफ़ शब्दों में कहा कि वे जीना नहीं चाहते, क्योंकि वे घर और समाज की अपेक्षाओं पर खड़े नहीं उतर पा रहें हैं. वे अवसाद में हैं. घर में उनकी न तो सुनी जा रही और न समझा जा रहा. वह दोतरफें मूल्यों के साथ सामंजस्य नहीं बना पा रहा. बस भीतर ही भीतर घुटता है. यह सब इतने सूक्ष्म तरीके से होता है कि इसे सतही अवलोकन से नहीं समझा जा सकता. इन प्रवृतियों के पीछे इन छात्रों का एक विशेष मनोविज्ञान है. लेकिन इस मनोविज्ञान के पीछे समाज का अनुभव और उससे मिली प्रेरणा ही होती है. इसे फ्रांसीसी चिन्तक इमाइल दर्खिम ने अपने सिधान्तों में भी बताया कि ‘आत्महत्या' सामाजिक होती है न कि व्यक्तिगत. इसलिए छात्रों में ऐसे आत्मघाती प्रवृति के विकसित होने में समाज और सत्ता की भूमिका अधिक होती है.
दूसरी तरफ स्थिति ऐसी है कि शिक्षा पाने के बाद रोजगार मिल ही जायेगा ऐसा कोई दावा नहीं किया जा सकता- चाहे आपने किसी भी स्तर की पढाई की हो- तकनीकी या गैर-तकनीकी. भारत में युवाओं के बीच बेरोजगारी के आंकड़ों को देखे तो ये सुखद नहीं माने जा सकते. अधिकांश के पास रोजगार नहीं है. और अगर है भी तो वे असुरक्षित किस्म के होते हैं. उनकी नौकरी आज है तो कल छीनी भी जा सकती है. सरकारी सेवाओं में थोडा सुरक्षा बोध तो दिखता है, लेकिन बदलते हुए अर्थतंत्र में इसमें भी घनघोर अनिश्चितताओं से इंकार नहीं किया जा सकता. निजी फर्मों में भी काम का अभाव तेजी से बढ़ रहा है. खासकर जैसे-जैसे तकनीक का विकास होता जा रहा है कम्पनियों के लिए आसान हो गया है कि वे कम कर्मियों से अधिक से अधिक काम ले सके. बाहरी पूंजी का प्रवेश तेज हुआ है. रोजगार के अवसर सिमटते जा रहे हैं. ऐसे में कर्मियों का मानसिक और आर्थिक शोषण आम बात हो गई है. इस शोषण की ग्लोबल संस्कृति में छात्रों या नयी पीढ़ी का मन-मस्तिष्क शांत कैसे रह सकता है! उनमे बेचैनी होगी और फिर वह कई भयानक रूपों में प्रकट होगा.
छात्रों का उत्पीड़न उसके प्रारंभिक समय से ही शुरू हो जाता है. निजी स्कूलों की लूट से त्रस्त अभिभावक अपने बच्चों से अपनी लागत का परिणाम चाहता है. परिणाम न मिलने पर अपनी खीझ किसी न किसी रूप में बच्चों से भी निकालता है - जिसे नाना पाटेकर की एक मूवी ‘वजूद' में देखा जा सकता है. एक साथ उससे नैतिकवान और धनवान दोनों ही बनने की आशा की जाती है. सफलता-असफलता के द्वन्द में वह पीसता रहता है. बाहर की बेलगाम प्रतिस्पर्धा उसके अस्तित्व को हर दिन चुनौती देती है. दुनिया के इतिहास के किसी भी कालखंड में सफलता और असफलता जैसी कोई चीज नहीं थी- इसे आधुनिक पूंजीवाद ने रचा-गढ़ा. आज सब कुछ इसी के इर्द-गिर्द घूम रही. विकसित माने जानेवाली दुनिया में रात का खाना खाया जा सके इसके लिए भी प्रतिस्पर्धा की जा रही है. यहाँ तक की यह ‘प्रतिस्पर्धा' भी प्राचीन काल या मध्य काल में केवल खेल में ही प्रयुक्त होती थी. लेकिन आज पेट भर खा सकने के लिए ‘प्रतिस्पर्धा की संस्कृति' को वैश्विक मान्यता है. असुरक्षा, अनिश्चितता और ग्लोबल पूंजी की आक्रामकता में छात्र जी रहे हैं. बेलगाम पूंजी की दुनिया में वह छला गया महसूस करता है. छात्रों की आत्महत्या से जो मौतें हो रही हैं उसे सामान्य घटना नहीं माना जाना चाहिए. और खासकर तब जब यह लगातार बढती ही जा रही हो.
केयूर पाठक तथा सी. सतीश इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में कार्यरत हैं...
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.