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This Article is From Feb 21, 2018

प्राइम टाइम : हमारे बैंक कर्मचारियों का हाल क्या है?

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 21, 2018 22:24 pm IST
    • Published On फ़रवरी 21, 2018 22:24 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 21, 2018 22:24 pm IST
जब नोटबंदी के लिए बैंक के कर्मचारी रात रात भर जाग रहे थे तब किसी ने नहीं कहा कि सरकारी बैंकों को प्राइवेट हाथों में बेच दो. जब लाखों बैंक कर्मचारी अपने काम से अतिरिक्त समय निकाल कर जनधन के लाखों खाते खोल रहे थे तब किसी ने नहीं कहा कि ये नकारे हैं, बोझ हैं, इन बैंकों को प्राइवेट हाथों में बेच दो. जब कई प्रकार की प्रधानमंत्री बीमा योजनाएं, मनरेगा से लेकर वृद्धा पेंशन के खातों में 200 से 1000 रुपये खाते में जमा किए जा रहे थे तब किसी ने नहीं कहा कि सरकार बैंक के कर्मचारी नकारे हैं, इन बैंकों को बेच दो. 

नीरव मोदी और मेहुल चौकसी जैसों ने सत्ता की यारी से 11 हज़ार करोड़ से ज्यादा की रकम गबन क्या की, बहुत से विशेषज्ञ चीटीं की तरह निकल आए हैं, कहने के लिए कि इन सरकारी बैंकों को बेच दो. सरकारी बैंकों के चेयरमैन की ज़ुबान से हर वक्त मिसरी टपकती है, वे अर्थव्यवस्था का बखान ऐसे करेंगे जैसे 'बागों में बहार हो'. मगर लाखों कर्मचारी उन्हीं बैंकों के भीतर क्या सब भुगत रहे हैं, क्या सब देख रहे हैं, अगर उनके अनुभवों और बातों को सरकार और जनता के सामने फीडबैक के तौर पर रख दिया जाए तो बहुतों की बोलती बंद हो जाएगी. आज कल सैंकड़ों की संख्या में बैंक कर्मचारियों की भेजी हुई चिट्ठियां पढ़ रहा हूं. उन चिट्ठियों में जो हाल बयां किया जा रहा है, उससे जो तस्वीरें बन रही है वो भयानक है. 

2012 से सैलरी बढ़ने का इंतज़ार उनके भीतर अवसाद तो भर ही रहा है ऊपर से काम के घंटे बढ़ गए, छुट्टियां नदारद हो गईं. उन लक्ष्यों को पूरा करने की डांट और दबाव ने बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों को तोड़कर रख दिया है. हम इन चिट्ठियों से निकली बातों को बैंकों की अपनी एकतरफा जनसुनवाई में रखेंगे. आईडीबीआई के कर्मचारी और अधिकारी चाहते हैं कि हम प्राइम टाइम में ज़िक्र कर दें कि 2012 के बाद सैलरी नहीं बढ़ी. 2016 में रिटायर कर गए. पेंशन से लेकर सब कुछ अटक गया. समाज के भीतर कितना शोषण है. स्वर्ग सिर्फ स्लोगन में है. बैंकों की शाखाओं में महिलाओं के लिए उपलब्ध शौचालयों को एक दिन में ऑडिट किया जा सकता है. शौचालय की हालत ख़राब है. डिजिटल इंडिया के कई बैंक मैनेजरों ने लिखा है कि हमें जो इंटरनेट की स्पीड दी जाती है वो केबीपीस में होती है, एमबीपीएस में नहीं. यानी बहुत धीमी होती है. आज हम बीमा पॉलिसी बेचने से जो समस्या आ रही है, सिर्फ उसी पर बात करेंगे. बैंकों की भाषा में इसे क्रॉस सेलिंग कहते हैं. पहले सारे पत्रों का सार पेश करता हूं.

बैंकर का काम है पैसे की आवाजाही को सुनिश्चित करना. अब बैंकर को बीमा बेचने के लिए उन पर दबाव डाला जा रहा है. ऋण देने के साथ साथ उसका बीमा भी बिकवाया जा रहा है. दो तीन प्रतिशत ऊपर के कर्मचारी को विदेश यात्राएं और मोटा कमीशन मिलता है. इसका नतीजा यह होता है कि बैंकर इंश्योरेंस एजेंट बन गया है. आप जानते हैं कि बीमा में विदेशी कंपनियों का पैसा लगा होता है. प्राइवेट कंपनियों की हिस्सेदारी वाला बीमा जनता के पैसे से वेतन पाने वाले बेच रहे हैं. इसके लिए बीमा कंपनियों को अपनी तरफ से कर्मचारी रखने पड़ते हैं, मगर बैंकों के मौजूदा कर्मचारियों से ही बीमा कंपनियों ने अपना काम निकाल लिया. ज़ाहिर है बीमा कंपनियों को बिना लागत के ही ज़्यादा मुनाफा हो गया. 

क्रॉस सेलिंग का यही मतलब हुआ कि बैंक में जब उपभोक्ता आए तो उसे बीमा की पॉलिसी बेच दो. म्यूचुअल फंड में उसका पैसा डाल दो. कई बार तो उसकी मंज़ूरी के बिना ही. यह विश्वास के साथ धोखा है. जैसे कई बार बैंक आपके खाते से पैसे काट लेते हैं. किसानों के लोन के पैसे से बिना उनकी जानकारी के बीमा के पैसे ले लिए जाते हैं. बैंकिंग सिस्टम को न समझने के कारण ही हम इसे सामान्य या अपवाद मानकर भूल जाते हैं. हमने अमेरिका की स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी का एक रिसर्च पेपर पढ़ा, जिसे ब्रायन तयान ने दिसंबर 2016 में लिखा था. वहां पर एक बैंक है वेल्स फारगो. इस बैंक ने भी ठीक वही किया जो इस वक्त भारतीय बैंकों के कर्मचारियों से करवाया जा रहा है. 

वेल्स फारगो के चेयरमैन और बड़े अधिकारियों को खूब इनाम मिलते थे. वाहवाही होती थी. बैंकर ऑफ द ईयर का पुरस्कार मिलता था, मगर सब कुछ दिनों की बात थी. जल्दी ही भांडा फूट गया कि वेल्स फारगो अपने कर्मचारियों से बैंकिंग के काम के अलावा ज़बरन क्रॉस सेलिंग करवा रहा है. यानी उन्हें बीमा पॉलिसी, क्रेडिट कार्ड बेचने के टारगेट दिए जा रहे हैं. जब लॉस एंजिलिस सिटी और बैंकिंग रेगुलेटर ने वेल्स फारगो पर केस किया तो जुर्माने से बचने के लिए सितंबर 2016 में बैंक को एलान करना पड़ा कि मामले को सेटल करने के लिए 185 मिलियन डॉलर दिया जा रहा है. बैंक ने माना कि 5 साल में उसके कर्मचारियों ने 20 लाख से अधिक खाते बिना उपभोक्ताओं की मंज़ूरी के खोल दिए. ठीक जैसा कि जन धन खाते में हुआ या किसानों से बीमा का पैसा काट लिया गया. मगर अमेरिका में इसके उजागर होने पर तूफान मच गया. बैंक को उपभोक्ताओं को 16 करोड़ रुपये लौटाने पड़े. उसका असर ये हुआ कि 5 साल में 5300 कर्मचारियों को निकालना पड़ा और जितने भी सीनियर अफ़सरों को बैंकर ऑफ द ईयर टाइप के फ़र्ज़ी पुरस्कार मिलते थे उन सब को बैंक छोड़कर बाहर जाना पड़ा. 

क्रॉस सेलिंग के मामले में वेल्स फारगो का उदाहरण दिया जाता है. आपको कोई बैंक अपना ही उत्पादन लेने के लिए मजबूर नहीं कर सकता. क्या पता बाज़ार में उससे अच्छा प्रोडक्ट हो. एकतरह से बैंक अपना ही प्रोडक्ट खरीदने के लिए मजबूर कर आपको गुलाम बनाता है. बैंक और उपभोक्ता का रिश्ता भरोसे पर चलता है जो क्रॉस सेलिंग में टूट जाता है. एक अमेरिकी बैंकर रिज़्ज़ी जेवी का लेख मिला. इसने भी वेल्स फारगो का उदाहरण देते हुए क्रॉस सेलिंग पर सवाल उठाए हैं. इनका कहना है कि क्रॉस सेलिंग के लिए बहुत बड़े ढांचे की ज़रूरत होती है जो आमतौर पर बैंकों के पास नहीं होता. 
भारत में भी बीमा पॉलिसी बेचने के लिए बैंकर पर दबाव है. लोग कम हैं और काम ज्यादा. ऐसे में औसत दर्जे की पॉलिसी बेच दी जाती है और उसकी सर्विस बहुत खराब होती है. आप भरोसे के कारण और ज्यादातर नहीं समझने के कारण मजबूरी में बैंक की पॉलिसी खरीद लेते हैं. जबकि हो सकता है कि दूसरे बैंक का प्रोडक्ट ज्यादा अच्छा हो. वेल्स फारगो का अनुभव अगर आप ज़बरन जनधन खाते खुलवाने के अनुभव से देखेंगे तो आप देख पाएंगे कि आपके सरकारी बैंक किसी ढलान से तेज़ी से नीचे गिरते हुए आ रहे है. वेल्स फारगो क्रॉस सेलिंग घोटाला में भी यह बात सामने आई थी कि बड़े स्तर के अधिकारियों को इंसेंटिंव यानी कमीशन दिए गए, सभी को नहीं मिला. बेच रहा था ब्रांच लेवल का अधिकारी मगर कमीशन मिल रहा था वरिष्ठ अधिकारी को. 

अब आइये भारत के बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों की शिकायतों पर. उन्हें बीमा पॉलिसी बेचने का टारगेट क्यों दिया जा रहा है. क्यों कुछ खास स्तर के अधिकारियों को कमीशन दिया जा रहा है. जबकि बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट इसके लिए मना करता है. 31 अक्तूबर 2014 को भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों को निर्देश जारी किया कि बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट 1949 के sec 10(1) b(11) के अनुसार कोई भी बैंक ऐसे व्यक्ति को नियुक्त नहीं करेगा, जिसे किसी खास काम के बदले कमीशन जाएगा या मुनाफे में हिस्सेदारी दी जाएगी. बीमा बेचने के लिए बैंक के स्टाफ को कमीशन देना बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट का उल्लंघन है.

भारत में बैंकों में डीजीएम से ऊपर के अधिकारियों को खूब कमीशन मिल रहा है. यही कारण है कि वह नीचे के अधिकारियों और कर्मचारियों की सैलरी को लेकर लापरवाह हैं. 2012 से बैंकों की सैलरी नहीं बढ़ी है. बैंकों की शाखाओं की सुविधाओं में कोई सुधार नहीं है. मगर 2 प्रतिशत उच्च अधिकारियों की अमीरी के लिए कुर्बानी दे रहा है. आम गरीब उपभोक्ता और दोनों की चक्की में पिस रहे हैं लाखों कर्मचारी. हिन्दी में ऐसी बातों की चर्चा न होने से आम पाठकों और दर्शकों को पता भी नहीं चलता है कि चूना नोचते-नोचते पूरी दीवार निकलने जा रही है. हम ट्राई करते हैं. पूरे बैंकों में केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के आदेश से हड़कंप मचा हुआ है. आयोग सोता रहा और जब जागा तो आदेश दे दिया कि सभी कर्मचारियों का तबादला हो. किसी का स्कूल है किसी का कुछ है. क्या इस तरह तबादले की तलवार चलाना ठीक है. जैसा कि खबर मिल रही है कि पंजाब नेशनल बैंक ने 18 हजार कर्मचारियों का तबादला एक सप्ताह के भीतर कर दिया है सीवीसी के निर्देश के बाद. गाइडलाइन बनावाने के चक्कर में सीवीसी ने कैसा हड़कंप मचा दिया है. 

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