'कुशासन करने वाले शासक को सहयोग देने से इंकार करने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है।'-महात्मा गांधी
'यदि सरकार भ्रष्टाचार को रोक पाने में नाकाम रहती है, तो उसे टैक्स देने से इंकार करके असहयोग आंदोलन शुरू कर दें।'-हाईकोर्ट
इन दोनों कथनों में 96 वर्षों का फर्क है, लेकिन अर्थ की दृष्टि से दोनों में कोई अंतर नहीं है। पहले वाक्य में 'कुशासन करने वाले' से मतलब है- अंग्रेजी शासकों से तो दूसरे कथन में जो 'सरकार' है, वह आजाद हिंदुस्तान की अपनी सरकार है। पहले वाक्य के शब्द उस नोटिस से लिए गये हैं, जो महात्मा गांधी ने 22 जून 1920 को वायसराय को दिया था। और इसके बाद ही पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन सूखी घास पर लगी आग की तरह फैल गया था।
यह दूसरा कथन महाराष्ट्र हाईकोर्ट की नागपुर बेंच का है, जो उसने महाराष्ट्र सरकार और बैंक ऑफ महाराष्ट्र के एक मामले की सुनवाई करते हुए कहे। जाहिर है कि जनहित याचिकाओं की लगातार बढ़ती जा रही संख्याओं ने कोर्ट के सामने प्रशासन का जो चरित्र और लोगों की जिन परेशानियों को प्रस्तुत किया है, उसने कोर्ट को यह कहने के लिए प्रेरित किया होगा। निःसंदेह रूप से इसमें कहीं न कहीं कुछ विशेष न कर पाने की कोर्ट की बेबसी भी झलक रही है। बेबसी यह कि 'अब जो करना है, लोग खुद करें।' ऊपर से शांत और सहज दिखने वाले इस कथन के गर्भ में आक्रोश का जो लावा उबल रहा है, उसकी अनदेखी किया जाना हितकर नहीं होगा।
यह एक बहुत ही व्यावहारिक सवाल है कि 'मुझसे जिस काम के नाम पर पैसा वसूला जा रहा है, वह काम होना ही चाहिए। यदि काम नहीं, तो दाम भी नहीं।' नगर निगम, नगर पालिकायें सम्पत्ति कर लेती हैं, लेकिन कचरों के ढेरों का साम्राज्य फैला हुआ मिलता है। रोड नहीं है, लेकिन रोड टैक्स है। सच यही है कि ऐसे में लोग टैक्स दें तो क्यों दें। वे किस पर भरोसा करके दें। ब्रिटेन में काउंटियां टैक्स लेती हैं। उस रकम की पाई-पाई का हिसाब जनता के लिए डिस्प्ले किया जाता है। वे जितना देते हैं, उससे अधिक वे पाते है। जब मैं न्यूजर्सी के एक स्कूल में गया, तो उसे देखकर विश्वास करना मुश्किल था कि यह कोई सरकारी स्कूल होगा। वहां अलग से शिक्षा कर लिया जाता और वह पूरी राशि उसी पर खर्च की जाती है। हम यह तो जानते हैं कि हमसे कौन-कौन से टैक्स किस-किस काम के लिए लिए जा रहे हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि उसका होता क्या है। कोर्ट ने इशारा किया है- भ्रष्टाचार।
पिछले साल जुलाई में दिल्ली से जयपुर जाने वाले राजमार्ग पर लगे टोल टैक्स पर लोगों ने टैक्स देने से इसलिए इंकार कर दिया था क्योंकि उस राजमार्ग का कुछ हिस्सा बहुत खराब था। इस पर भी कोर्ट ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण से पूछा था कि 'जब रोड ही नहीं है, तो फिर टोल टैक्स किस बात का।' प्राधिकरण मौन रहा। कहता भी क्या। फर्क नजरिये और समय का है। उस समय गांधी जी के साथ पूरा देश था। आज यही बात अगर केजरीवाल कहें, तो वह अराजकता होगी। किंतु क्या यह सही होगा? सच यह है कि कोर्ट ने असहयोग आंदोलन की बात कहकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को व्यावहारिक रूप से परिभाषित किया है। पहले कहा जाता था 'यथा राजा तथा प्रजा।' आज यह कहावत उलटकर हो गई है 'यथा प्रजा तथा राजा।' जिस दिन लोग अपले अधिकारों के प्रति जागरूक तथा कर्तव्यों के प्रति कटिबद्ध हो जायेंगे, देश कुछ और ही हो जाएगा।
डॉ. विजय अग्रवाल वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं...
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This Article is From Feb 04, 2016
एक और असहयोग आंदोलन की ओर बढ़ता देश
Dr Vijay Agrawal
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 04, 2016 16:51 pm IST
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Published On फ़रवरी 04, 2016 16:34 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 04, 2016 16:51 pm IST
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