इन्हें फिर राम याद आए हैं. पूछो क्या चुनाव नजदीक आए हैं. यह वो आरोप है जो विपक्ष आरएसएस और बीजेपी पर हमेशा लगाता रहा है. लेकिन पिछले एक महीने में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने चार बार राम मंदिर का नाम लेकर एक तरह से विपक्ष के आरोप की पुष्टि ही की है. आज नागपुर में एक कार्यक्रम में भागवत एक कदम आगे चले गए. उन्होंने कह दिया कि अगर सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या विवाद का फैसला नहीं हो पा रहा तो सरकार को कानून लाने पर विचार करना चाहिए.
इससे पहले भागवत कह चुके हैं कि अगर राम मंदिर बनाने का फैसला होता है तो विपक्ष भी विरोध नहीं कर पाएगा. भागवत के ये सभी बयान विश्व हिंदू परिषद के संतों की बैठक के मद्देनजर महत्वपूर्ण हैं जिसमें राम मंदिर के लिए आंदोलन की चेतावनी दी गई है. लेकिन न तो वीएचपी और न ही भागवत बता रहे हैं कि अगर मोदी सरकार अयोध्या में राम मंदिर के लिए कानून नहीं बनाती तो वे क्या करेंगे. वैसे भागवत को राम मंदिर में हो रही देरी में सियासत नजर आ रही है.
लेकिन क्या वाकई मोदी सरकार अयोध्या की विवादित भूमि मंदिर निर्माण के लिए हिंदू संगठनों को कानून के जरिए दे सकती है? इस पर कानूनविदों की राय अलग-अलग है. अयोध्या ऐक्ट 1993 के तहत वहां के कुछ क्षेत्रों का अधिग्रहण केंद्र सरकार ने किया है. इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई थी. इस्माइल फारुकी मामले में पांच जजों की पीठ ने बहुमत का फैसला देकर इसे सही ठहराया था. लेकिन इसकी धारा 4 (दो) को खारिज कर दिया गया था जिसमें कहा गया था कि इस कानून के अमल में आने के बाद किसी भी अदालत में विवादित भूमि के बारे में चल रही कार्यवाही बेमानी हो जाएगी. इसके बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित भूमि के स्वामित्व को लेकर 2010 में फैसला देकर इसे तीन हिस्सों में बांट दिया था. एक हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड को और तीसरा रामलला विराजमान को दे दिया गया था. इसी को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है जिस पर अभी तक फैसला नहीं हो सका है. लेकिन अगर मोदी सरकार अध्यादेश लाती है तो उसे छह हफ्तों के भीतर संसद से मंजूरी दिलाना जरूरी होगा. अब सरकार के मुश्किल से छह महीने बचे हैं. शीतकालीन सत्र में बिल लाने पर विपक्ष उसे संसदीय समिति को भेजने की मांग कर सकता है.
इस बीच, उस अध्यादेश को अदालत में इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि मामला पहले ही सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. किसी भी बाध्यकारी अदालती फैसले के खिलाफ विधायिका की कोई कार्रवाई संविधानसम्मत नहीं है, यह भी चुनौती का एक आधार हो सकता है. सरकार चुनाव से पहले लोगों को दिखाने के लिए अध्यादेश लाने का दांव चल सकती है. लेकिन इसकी कानूनी वैधता पर सवाल बरकरार रहेगा. एक हल आपसी बातचीत से है लेकिन उसकी संभावना दूर-दूर तक नहीं है. ऐसे में विवाद का अकेला हल सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही है. इस महीने के अंत में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होने वाली है. जाहिर है ऐसे में सरकार अदालती कार्यवाही को प्रभावित करने वाला कदम शायद ही उठाए. लेकिन सियासत अपनी जगह है. और पालमपुर अधिवेशन में 1989 में कानून या आपसी बातचीत के जरिए राम मंदिर निर्माण की बात करने वाली बीजेपी के लिए अब बीच का रास्ता निकालना या इस मसले को टालना शायद मुश्किल हो.
(अखिलेश शर्मा NDTV इंडिया के राजनीतिक संपादक हैं)
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This Article is From Oct 18, 2018
'फिर राम याद आए, क्या चुनाव नजदीक आए'?
Akhilesh Sharma
- ब्लॉग,
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Updated:अक्टूबर 18, 2018 18:35 pm IST
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Published On अक्टूबर 18, 2018 18:35 pm IST
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Last Updated On अक्टूबर 18, 2018 18:35 pm IST
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