आ गया मुंहतोड़ जवाब देने का समय...

हां, यह सही है कि नक्सलियों के लिए हथियार उठा लेने की यह नौबत क्यों आई, इस पर विचार करना, और उस वजह को जड़ से खत्म करना भी हमारा और हमारी सरकार का ही दायित्व है...

आज सुबह उठते ही एक बार फिर, जानी-पहचानी, लेकिन फिर भी नई ख़बर से सामना हुआ... पश्चिम बंगाल के पश्चिमी मिदनापुर जिले में नक्सली एक बार फिर हरकत में आए, और रेलट्रैक की फिश प्लेटें उड़ा दीं, जिससे रात लगभग डेढ़ बजे हावड़ा-कुर्ला ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस के 13 डिब्बों के गहरी नींद में सो रहे बहुत-से यात्री काल के गाल में समा गए...

कोलकाता से लगभग 135 किलोमीटर पश्चिम में मौजूद सरदिहा में हुई इस भीषण दुर्घटना ने एक बार फिर दिखा दिया कि यह सरकार के लिए जाग जाने, और मुंहतोड़ जवाब देने का समय है, सिर्फ 'मुंहतोड़ जवाब देंगे' सरीखे बयान जारी करने का नहीं...

इसी विषय पर आज ही एक मित्र से चर्चा हुई, जिनका कहना था, 'नक्सलवाद के स्वरूप और उद्गम को जानकर उसे समाप्त करना चाहिए, क्योंकि किसी भी वाद या विवाद में हिंसा उचित नहीं...' उनका कहना था कि नक्सली और आतंकवाद के मार्ग को अपनाने वाले अन्य लोग भी चूंकि हमारे देश के ही नागरिक हैं, इसलिए हमें सोचना होगा कि वे इस मार्ग पर अचानक तो नहीं पहुंचे... हमें सोचना होगा कि क्यों नक्सलवाद मार्क्स-लेनिन से होता हुआ माओ तक आया, और इस मौजूदा स्वरूप में पहुंचा... हमें व्यापक विमर्श के जरिये यह जानने की कोशिश भी करनी होगी कि हम जैसे जागरूक नागरिकों द्वारा चुनी हुई सरकारों ने इन समस्याओं के मूल को जानने के लिए क्या किया...

उनके मुताबिक असलियत यह है कि हमारी राजनीति का मूलाधार सिर्फ हाथ में आई सत्ता को बचाए रखना बन गया है... इसी कारण देश में कुछ समस्यात्मक मुद्दे सदैव जीवित रखे जा रहे हैं, जिनमें नक्सलवाद भी शामिल है... मेरे मित्र के अनुसार इन नक्सलियों के खिलाफ कोई भी दमनात्मक कार्रवाई किया जाना वैसा ही होगा, जैसे पहले अपने ही नागरिकों को इतना सताइए, कि वे हथियार उठा लें, और फिर उन्हें हिंसक और आततायी कहकर मार डालिए...

उनके अनुसार जब कोई विचार आंदोलन बन जाता है तो उसमें स्वार्थी और कपटी लोगों का शामिल हो जाना कोई नई बात नहीं है, और इस नक्सली आंदोलन में भी यही हो रहा है। वह यहीं नहीं रुके, और आगे कहा, सरकारी तंत्र आज इस स्थिति का लाभ उठा रहा है, और ऐसे किस्से भी सामने आए हैं, जहां किसी को भी आतंकवादी या माओवादी कहकर जेल में डालकर निजी शत्रुता निभाई जा रही है... सो, उनके अनुसार किसी भी स्थिति में नक्सलियों के विरुद्ध कोई भी कड़ी कार्रवाई न की जाए, बल्कि उनके साथ बातचीत का रास्ता अपनाकर उन्हें सही रास्ते पर लाने की चेष्टा की जाए...

इस पर मेरा उत्तर रहा, "भाईसाहब, आपकी बात गलत भले ही नहीं है, और हमारी सरकारों ने सचमुच उठाए जा सकने वाले ठोस कदम पहले, या यूं कहिए, सही समय पर नहीं उठाए, और समस्या विकराल और भयावह स्वरूप लेती चली गई..."

लेकिन इसके बाद मैंने उनसे पलटकर सवाल किया कि जिस दिन तक विमर्श जारी रहेगा, और हम किसी नतीजे पर पहुंचेंगे, क्या हमें इसी तरह रोज़ हादसे होते रहने देने चाहिए... इसका कोई इलाज कैसे किया जा सकता है, क्योंकि जो देशवासी (नक्सली पढ़ें) आपकी भाषा में राह भटक चुके हैं, उन्हें बातचीत की भाषा अब समझ नहीं आ रही है... और हम उन्हें मासूमों और बेकसूरों की ज़िंदगियों से खेलने का हक सिर्फ इस आधार पर नहीं दे सकते, कि वे अपने ही देशवासी हैं...

उसी वक्त मेरे एक अन्य मित्र ने तर्क दिया कि यदि श्रीलंका आज भी ऐसा ही सोचता रहा होता, तो तमिल टाइगर्स और उनके हिंसात्मक तांडव से कभी पीछा न छूट पाया होता, क्योंकि वे भी देशवासी ही थे, जो कालांतर में विद्रोही हो गए... इस पर मैंने भी पंजाब में फैले आतंकवाद और उसके खात्मे के लिए उठाए गए कड़े कदम का उदाहरण दिया... आखिर हिंसा के रास्ते पर चलकर खालिस्तान की मांग करने वाले भी देशवासी ही थे...

इस समस्या के इलाज के लिए सरकार को अब सचमुच कोई न कोई कड़ा कदम उठाना ही होगा, क्योंकि पानी सिर के ऊपर जाने लगा है... 'देशवासियों से सिर्फ बातचीत का रास्ता अपनाना चाहिए' वाला तर्क अब चलने वाला नहीं, क्योंकि शराब पीते रहने से किसी को कैंसर हो जाने पर पहले कैंसर का इलाज करने की जुगत की जाती है, उसे शराब पीना छोड़ देने के लिए री-हैबिलिटेशन सेंटर में नहीं भेजा जाता...

हां, यह सही है कि नक्सलियों के लिए हथियार उठा लेने की यह नौबत क्यों आई, इस पर विचार करना, और उस वजह को जड़ से खत्म करना भी हमारा और हमारी सरकार का ही दायित्व है, लेकिन पहले मौजूदा समस्या का इलाज करना अनिवार्य है, ताकि निर्दोषों का बेवजह मारा जाना और परिवारों का उजड़ना बंद हो सके...

विवेक रस्तोगी Khabar.NDTV.com के संपादक हैं...

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