देश में कहीं भी जाओ, अक्सर सुनने को मिलता है कि अख़बार पढ़कर क्या फायदा, रोज़ वही-वही हत्या और बलात्कार की ख़बरें...? और छपता ही क्या है इनमें...? हद से हद नेताओं की तूतू-मैंमैं... दिमाग पहले ही अपनी समस्याओं से परेशान रहता है, ऊपर से यह सब पढ़कर और खराब क्यों करें, सुबह बर्बाद क्यों करें...?
सच है कि रोज़-रोज़ हत्या और बलात्कार की ख़बरें पढ़कर किसे खुशी होती है, शायद किसी को भी नहीं, मगर यह भी सही है कि हमारे क्रूर दैनिक यथार्थ का यह भी अनिवार्य हिस्सा है। इसकी अनेदेखी करते-करते हम पाते हैं कि किसी मौके पर यह चाहे-अनचाहे, किसी न किसी रूप में हमें भी घेर लेता है। वैसे, अख़बार और टीवी वाले कुछ पैसे वालों की हत्या या किसी समृद्ध वर्ग की लड़की या औरत के बलात्कार की घटना की हफ्तों बाल की खाल ही नहीं, मांस-मज्जा सब निकालकर पेश करते रहते हैं, ऐसे-ऐसे मनमाने फैसले सुनाते रहते हैं, सनसनी-भरे निष्कर्ष पेश करते रहते हैं कि ऊब होती है, सिर धुनने को मन करता है। ये तथाकथित चर्चित तथा बड़ी हस्तियों की हत्या-आत्महत्या या बलात्कार की घटना को इतना ज़्यादा महत्व देते हैं कि कई बार लगता है कि इस विशाल, विविध और जटिल देश में बस साल में एक-दो ही हत्याएं और बलात्कार हुए हैं, बाकी तो रूटीन है, एवैं है, होता ही रहता है।
अतः पाठकों-दर्शकों के मन में जो छवि बनती है, उसे बनाने में मीडिया का कोई योगदान नहीं होता, यह नहीं कहा जा सकता। कुछ पत्र-पत्रिकाएं और कुछ टीवी कार्यक्रम हत्या-बलात्कार की ख़बरों के दम पर ही चल रहे हैं, चलते रहे हैं। इनका भी एक पाठक-दर्शक वर्ग तो है ही, यह अलग बात है कि उसकी इस दिलचस्पी का कभी कोई सामाजिक-आर्थिक-मानसिक मनोदशा का विश्लेषण शायद आज तक नहीं हुआ।
अगर मीडिया एक तरह का अतिरेक करता है तो हम साधारणजन दूसरी तरह का अतिरेक करते हैं, पत्र-पत्रिकाओं को हत्या और बलात्कार या नेताओं की तूतू-मैंमैं तक महदूद करके देखते हैं, जबकि यह अर्द्धसत्य ही नहीं, लगभग असत्य है। इसके अलावा सच यह भी है कि 2012 की अपराध अन्वेषण ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार देश में रोज़ 92 महिलाओं के बलात्कार होते हैं और हर साल 43,000 से ज्यादा हत्याएं होती हैं।
ठीक है कि हत्या और बलात्कार का शिकार अधिकतर मामलों में गरीबवर्ग ही होता है, मध्यवर्ग व उच्च मध्यवर्ग तुलनात्मक रूप से काफी सीमा तक सुरक्षित रहता है, मगर ऐसा भी नहीं है कि उस वर्ग के लोगों के साथ कभी कुछ नहीं होता। हां, इतना अधिक नहीं होता कि मीडिया अंततः इसकी भी उपेक्षा करना शुरू कर दे। दरअसल, मध्यवर्ग-उच्चवर्ग के साथ होने वाले ऐसे मामलों को इतने धूमधड़ाके से उठाने का एक अप्रकट उद्देश्य यह भी है कि इसकी आंच में वे ही तपते-जलते-भस्म होते रहें, जो बहुत पहले से शिकार हो रहे हैं, वरना 'चर्चित बलात्कार कांड' या 'चर्चित हत्याकांड' जैसी शब्दावली का मतलब क्या है और क्या हर साल होने वाले करीब 34,000 बलात्कार और 43,000 से अधिक हत्याएं गौर करने लायक नहीं हैं...?
...यानी जो अचर्चित रहता है, रखा जाता है, उसे पुलिस और जांच एजेंसियां गड्ढे में डालें और जो 'चर्चित' है, उन्हीं की तरफ ध्यान दें...? यह एक सोचा-समझा षड्यंत्र नहीं है तो क्या है...? क्या जो वर्ग हत्या-बलात्कार के अलावा और सैकड़ों किस्म के अपराधों का रोज़ शिकार होता है, तरह-तरह से होता है, किया जाता है, उसे न्याय पाने का कोई हक नहीं होना चाहिए, यह अधिकार उन्हें कभी नहीं मिलना चाहिए...? और मिलेगा भी कैसे, जब उनका कोई भी मामला आएगा तो हम हद से हद उसके बारे में एक दिन पढ़कर-सुनकर आगे बढ़ना पसंद करेंगे। हम बहाने बनाएंगे कि क्या मीडिया सिर्फ यही करता रहे...? सबके साथ होने वाली ऐसी घटनाएं ही छापें-दिखाएं तो फिर रोज़ इसके अलावा कुछ और नहीं छपेगा-दिखेगा...? इतना ही यहां कहना काफी होगा कि ज़रा जनाब, यह याद करके बताइए कि आपने साल में कितने ऐसे मामलों पर उसी तरह रोशनी डाली है, जैसे शीना बोरा हत्याकांड पर डाल-डालकर आप हैरान हुए हैं...? क्या एक भी है ऐसा मामला, केवल एक, सिर्फ एक...?
दूसरी ओर यह भी सत्य नहीं है कि खासकर अख़बार हत्या–बलात्कार, तूतू-मैं मैं के अलावा कुछ नहीं छापते। यह हास्यास्पद सरलीकरण है। किसी भी दिन का कोई भी हिन्दी-अंग्रेजी का ढंग का अख़बार उठा लीजिए, आधी-अधूरी-चौथाई ही सही, तमाम दुनिया की ख़बरें उसमें मिलती हैं - बेहद मानवीय भी और बेहद परेशान करने वाली भी। कभी मानवीय ख़बरें ऐसी कि हम जैसे साधारण इंसानों को बेहद विचलित कर दें, क्योंकि हममें वह साहस, वह जज़्बा, वह समर्पण नहीं है, जो किसी और ने दिखाया, जो हम नहीं हैं, जो हम नहीं हो सके कभी, होंगे भी नहीं। और ज्यादातर बार यह हौसला इसलिए नहीं दिखाया कि अख़बार या टीवी में वाहवाही हो जाएगी, जबकि एक वर्ग सिर्फ इसी की तुकतान में दिन-रात लगा रहता है।
हमें हमारी सुरक्षित दुनिया से निकालकर अगर अख़बार उन तमाम असुरक्षित दुनियाओं में ले जाते हैं, जहां अन्याय है, दमन है, नागरिक और मानवीय अधिकार की रोज़-रोज़ बलपूर्वक की जाती अवहेलना है, बेकसूरों की हत्या या उनकी प्रताड़ना है, उनकी स्त्रियों के साथ शोषण और बलात्कार की कथाएं हैं, रंग, जाति या गाय के नाम पर संगठित हत्यारे समूह हैं, देशविरोधी घोषित करने की कवायदे हैं, तो क्या ऐसे विचलनों से अपने को बचाकर रखना हमारे मनुष्य होने का प्रमाण है...? वे भी इस देश के नागरिक हैं या नहीं हैं, इस देश के गरीब भी हमारी तरह के ही नागरिक हैं या नहीं हैं...? जब वे आपकी पसंद की सरकार देश या प्रदेश में नहीं लाते हैं, तब तो आपको बुरा लगता है, उन्हें गालियां देते हैं, मगर आपको उनके दुख-दर्द से, उनके साथ हुए अन्यायों से कोई लेना-देना नहीं है, तो कब तक चलेगा यह...? कितनी देर तक...?
विष्णु नागर वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक हैं...
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This Article is From Apr 04, 2016
मीडिया - दर्शकों-पाठकों के मन में छवियां, और कवरेज का सच...
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Updated:अप्रैल 04, 2016 15:44 pm IST
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Published On अप्रैल 04, 2016 15:12 pm IST
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Last Updated On अप्रैल 04, 2016 15:44 pm IST
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