ना हो इसके 'आस की सांझ'

कुंदन को आइएएस बनने की चाह थी तो ससुर ने पैसे का जुगाड़ कर अपनी क्षमता के मुताबिक पैसे देकर दिल्ली भेजा.

ना हो इसके 'आस की सांझ'

एक फिल्म का डॉयलॉग है कि अगर किसी चीज़ को शिद्दत से चाहो तो सारी कायनात उसे आपको मिलाने को मजबूर हो जाती है. शायद ऐसी कहानी ही है कुंदन की. बिहार से ताल्लुक रखने वाला ये लड़का पिछले साल अपने ख़्वाबों को दबाए दिल्ली में दाख़िल हुआ. ख़्वाब जो बिहार-यूपी से आए तक़रीबन हर क़ाबिल, नाकाबिल नौजवान का होता है. यूपीएससी की परीक्षा पास कर आइएएस बनने की. सिविल सर्विसेज़ की इस परीक्षा के लिए हरेक साल क़रीब 10 लाख की तादाद में लोग फ़ार्म भरते हैं. 5-6 लाख प्री में बैठते हैं. तक़रीबन 20 हज़ार प्री क्रैक करते हैं. इसमें से 3.5 हज़ार के आस-पास मेंस की बाधा पारकर इंटरव्यू से मुख़ातिब होते हैं. तब जाकर हज़ार के क़रीब ऑफ़िसर चुने जाते हैं. 

कुंदन दिल्ली आया.  यहां वज़ीराबाद में रहने लगा. पढ़ाई करने लगा. इसकी शादी हो रखी है. 2 बेटियां भी हैं. बीवी बिहार में रहकर बच्चों की देखभाल कर रही है. पिता आर्थिक तंगी से जूझ रहे हैं. काफ़ी बीमार भी रहते हैं. कुंदन को आइएएस बनने की चाह थी तो ससुर ने पैसे का जुगाड़ कर अपनी क्षमता के मुताबिक पैसे देकर दिल्ली भेजा. लेकिन महंगाई के इस दौर में इतने से हो क्या पाता है. तो कुंदन ने एक बड़ा फ़ैसला लिया. जैसा इन पंक्तियों से झलकता है.

गौरव की भाषा नई सीख,
भीखमंगों की आवाज़ बदल,
सिमटी बाँहों को खोल गरूड़ उड़ने का अंदाज बदल.


वज़ीराबाद को गांधी विहार और मुखर्जी नगर से जोड़ने वाले फ़्लाईओवर के बनाने का काम चल रहा था. हालांकि ये काम अब भी चल रहा है. कुंदन ने इसमें श्रम-दान दिया. श्रमिक बन गया. रोज़ का मेहनताना लेकर करने लगा अपनी पढ़ाई. बुनता रहा अपने ख़्वाब. बढ़ता रहा उम्मीदों के साथ. वो कहते हैं ना

ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है 
मुर्दा-दिल क्या ख़ाक जिया करते हैं (ग़ालिब)


मार्च से जून तक गर्मी में पसीना बहाता रहा बाहर भी और घर पर भी. दोस्तों ने देखा तो ख़रीदकर एक सीलिंग फ़ैन दे दिया.

परीक्षा की तारीख़ नज़दीक आ रही थी. कुंदन के क़दम भी बढ़ रहे थे. प्री की परीक्षा हुई और परिणाम भी आया. कुंदन सफल हो चुका था. उसके शर्मीले चेहरे पर मुस्कान मुग्ध करने वाली थी. उसके दोस्तों की आंखें नम थी. 

इसी महीने 28 से उसकी मेंस की परीक्षा है. वो तैयार है. आम आदमी की तरह एक ख़ास आदमी बनने की चाह लिए. वो कहते हैं ना

ओ मेरे अहबाब क्या कारे नुमायां कर गए
बीए हुए, नौकर हुए, पेंशन मिली और मर गए. (अकबर इलाहाबादी)


इससे ज़्यादा की ज़िंदगी जीने के लिए.

ये इसकी लगन का ही नतीजा था. हां एक बात और. इस बार अगर वो सफल नहीं हो पाया तो शायद घर लौट जाएगा. हमेशा-हमेशा के लिए. इस खुद्दार लड़के को किसी से मदद भी नहीं चाहिए. पता नहीं क्यूं. हां इसने कहा है कि टॉप करने पर पहला इंटरव्यू मुझे ही देगा. हाहाहाहा. 

ऐसे हज़ारों कुंदन को सलाम जो इतनी क़ुर्बानी देकर, समझौते करके आसमां को छूने की ज़िद रखते हैं.

चलिए इसी उम्मीद के साथ कि इसके ख़्वाब को पंख लगें और इसकी आस की सांझ ना हो इंतज़ार करते हैं परिणाम का... क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.(बच्चन).

उत्कर्ष कुमार NDTV इंडिया में असिस्टेंट आउटपुट एडिटर हैं.

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