प्रदूषण सर्टिफिकेट की अंतिम तारीख़ याद दिलाने का दिल्ली के एक स्कूल का नायाब आइडिया - रवीश कुमार


हमारे पेशे की ख़ूबी है कि आप हर दिन कुछ होते हुए और कुछ न होते हुए किस्सों से टकराते रहते हैं। यही वे किस्से हैं, जो आपको इस पेशे में होने का अहसास कराते रहते हैं। आज दिल्ली के एक ऐसे स्कूल में जाने का मौका मिला, जिसका अपना एक इतिहास है। अब इतिहास है तो उसके अपने अंतर्विरोध भी होंगे, मगर रामजस फाउंडेशन के 16 स्कूलों में से एक रामजस सीनियर सेकेंड्री ब्वायज़ स्कूल नंबर 4 गया था। करोलबाग के आर के आश्रम के पास चित्रगुप्त रोड पर यह स्कूल है। गया तो किसी और काम से था, जिसका ज़िक्र यहां करना महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन जो किस्सा मिल गया, उसे आपसे साझा करना चाहता हूं।

यह स्कूल ग़ैर-सरकारी है, मगर सरकारी सहायता से चलता है। दिल्ली सरकार के पास सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त दो प्रकार के स्कूल हैं। निगम और प्राइवेट स्कूलों की अलग कैटगरी है। सरकारी अनुदान पर चलने के कारण यहां पढ़ने वाले सभी हज़ार बच्चे मुफ्त शिक्षा पाते हैं। शिक्षकों की तनख्वाह का 90 फीसदी से ज़्यादा हिस्सा सरकार देती है और बाकी स्कूल का ट्रस्ट इंतज़ाम करता है। ट्रस्ट की अपनी दिक्कतें होती हैं, क्योंकि स्कूल दावा करता है कि वह न तो किसी एडमिशन के लिए डोनेशन लेता है न दान। यह जानना ज़रूरी है तभी आप समझ पायेंगे कि जो किस्सा सुना रहा हूं वो क्यों महत्वपूर्ण है। दिल्ली में रामजस फाउंडेशन सौ साल से शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहा है। रामजस कॉलेज सहित सोलह स्कूल चलते हैं।

इन दिनों पर्यावरण की खूब चर्चा होती है। सभी प्राइवेट और सरकारी स्कूलों में इको क्लब चलते हैं। मगर जब भी यह मुद्दा सार्वजनिक मंचों पर आता है, उसमें प्राइवेट स्कूल ही हिस्सेदार नज़र आते हैं। सरकारी स्कूल तो कहीं नज़र भी नहीं आते। हो सकता है कि हम मीडिया वाले भी देखने नहीं जाते होंगे कि किसी सरकारी स्कूल में क्या होता है।

रामजस स्कूल के वाइस प्रिंसिपल ने बताया कि उन्होंने इको-क्लब को लेकर एक योजना शुरू की है। स्कूल के सभी छात्रों से कहा गया कि आप अपने घर और पड़ोस से प्रदूषण सर्टिफिकेट की फोटोकॉपी और उसका नंबर लाइये। हर छात्र को तीन-तीन फोटोकॉपी लाने के लिए कहा गया। अभिभावकों को झुंझलाहट भी हुई कि उनके पास गाड़ी नहीं है, तो कहां से सर्टिफिकेट की कॉपी लाएं। फिर भी चार-पांच सौ छात्र सर्टिफिकेट की कॉपी और नंबर लाने में सफल रहे। स्कूल ने कहा कि हर सर्टिफिकेट की अंतिम तिथि से कुछ दिन पहले पड़ोसी या अपने घर के लोगों को याद दिलाना है कि नया सर्टिफिकेट लेने का टाइम आ गया है।

हम सब भूल जाते हैं। ज्यादातर लोग सर्टिफिकेट की तारीख निकल जाने के बाद भी गाड़ी चलाते रहते हैं। अचानक ध्यान आता है कि नया सर्टिफिकेट नहीं लिया, तो जुर्माना भरना पड़ सकता है। स्कूल ने बच्चों से कहा कि इसके लिए आप स्कूल के फोन का इस्तेमाल कर सकते हैं। वाइस प्रिंसिपल ने कहा कि हम सोच रहे हैं कि इस आइडिया को और बेहतर तरीके से लागू करें। अगर सभी बच्चे लेकर आएंगे, तो हमारे पास तीन हज़ार सर्टिफिकेट का डेटा जमा हो जाएगा। स्कूल ने छात्रों से कहा है कि इस काम का नंबर अतिरिक्त गतिविधियों के विषय में जोड़ा जाएगा।

वाइस प्रिंसिपल ने बताया कि हमारे बच्चे सभी ग़रीब परिवार से आते हैं। इस काम के लिए फोन का इस्तेमाल करना आसान नहीं है। इसलिए उन्हें कहा गया है कि वे ज़ुबानी अपने पापा या पड़ोसी को याद दिला दें कि कुछ ही दिनों में प्रदूषण का सर्टिफिकेट अमान्य होने वाला है। नया ले लें। अच्छी बात है कि किसी ने इसके बारे में सोचा और स्कूली बच्चों को पर्यावरण के मसले पर सक्रिय भागीदारी का मौका दिया। इस काम को करते हुए ये बच्चे प्रदूषण और पर्यावरण को लेकर कितने ज़िम्मेदार हो जाएंगे।

कितना अच्छा होता कि दिल्ली सरकार या इलाके के सांसद या विधायक अपने फंड से स्कूल में एक सरकारी फोन लगा देते, जिसका खर्चा स्कूल को न उठाना पड़े। बच्चे उस मुफ्त के फोन से लोगों को याद दिलाते रहें कि आपकी गाड़ी की प्रदूषण जांच का समय आ गया है। कई बार अच्छे विचार संसाधन और प्रोत्साहन के कारण दम तोड़ देते हैं। वाइस प्रिंसिपल भी मेरे उत्साह से उत्साहित हो गए और कहने लगे कि इसे और बेहतर तरीके से करेंगे। मैं भी सुझाव देने लगा कि छात्रों का बैच बना दिया जाए और हर बैच को हफ्ते में एक क्लास का वक्त दिया जाए, जिसमें ये काम करें। इससे उनके भीतर नागरिक बोध का ज़बरदस्त विकास होगा। मुझे नहीं मालूम कि मेरा सुझाव कितना व्यावहारिक है लेकिन एक अच्छे काम के असर में मैं बोलने से खुद को नहीं रोक पाया।

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जो भी हो एक आइडिया का जन्म हो चुका है। वो भी एक ऐसे स्कूल में जिसके बच्चे पर्यावरण और प्रदूषण के सबसे ज्यादा शिकार हैं। शहर में पानी का स्तर नीचे गिरता है तो ग़रीबों को पानी कम मिलता है। उन्हें पानी के लिए घंटों लाइन में लगना पड़ता है। हवा ख़राब होती है तो बीमारी उन्हें पहले पकड़ती है और आर्थिक दबाव का सामना करना पड़ता है। हो सकता है कि यह काम बड़े पैमाने पर भी संभव हो सके। दिल्ली के सारे बच्चे फोन पर बैठकर हमें प्रदूषण सर्टिफिकेट की तारीख ही याद नहीं दिलायेंगे बल्कि हमें ज़िम्मेदार भी बना सकते हैं। हर स्कूल में एक अच्छा खासा कॉल सेंटर बन जाएगा। ऐसे ही अनेक स्कूलों में कुछ न कुछ नया हो रहा होगा।