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महाराष्ट्र की राजनीति को समझना हो, तो माढ़ा सीट के समीकरण को गौर से देखिए

Abhishek Sharma
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    April 16, 2024 13:48 IST
    • Published On April 16, 2024 13:48 IST
    • Last Updated On April 16, 2024 13:48 IST

महाराष्ट्र की राजनीति ऐसे पूरे संदेश दे रही है कि आने वाले वक्त में भी वह उलझी रहने वाली है. महाविकास अघाड़ी और महायुति दोनों में एक साथ बहुत कुछ घटित हो रहा है. कुछ दिखाई दे रहा है और कुछ अदृश्य है. पहले बात उसकी, जो दिख रहा है. महाविकास अघाड़ी में माढ़ा लोकसभा सीट शरद पवार के हिस्से में आई. उन्होंने बहुत धीरज दिखाते हुए पहले BJP उम्मीदवार का इंतजार किया. BJP ने रणजीत सिंह नाइक निंबालकर को उम्मीदवार बनाया, तो इस सीट पर सब कुछ पलटने लगा. माढ़ा से धैर्यशील मोहित पाटिल को उम्मीद थी की मैदान में वह BJP से उतारे जाएंगे. एक साल से उनका प्रचार इसी लाइन पर चल रहा था. मोहित पाटिल परिवार को आस थी कि BJP ज्वाइन की है, तो इसका लाभ मिलेगा. धैर्यशील की दावेदारी यूं ही नहीं थी. 2014 में NCP निशान पर वह जीते थे. BJP को पता था कि अगर एक मजबूत को टिकट नहीं देंगे, तो दूसरा ताकतवर पार्टी छोड़ दूसरी तरफ से चुनाव लड़ जाएगा. धैर्यशील अब शरद पवार की पार्टी से लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं.

महाराष्ट्र की राजनीति में माढ़ा एक प्रतीक है कि विपक्ष के पास अच्छे विकल्प हैं. ये विकल्प उसे BJP के अंदर की नाराजगी से भी मिल रहे हैं. कई विकल्प इसलिए भी हैं, क्योंकि एक ही इलाके में कई प्रभावशाली लोग हैं. किसी एक पार्टी के लिए सभी बड़े राजघरानों को चुनावी मैदान में जगह देना संभव नहीं है. यह एक राजनीतिक हकीकत है. महाराष्ट्र की राजनीति में बहुत कुछ अदृश्य है, उसका भी उतना ही रोल है, जितना माढ़ा जैसी सीट पर खुलकर दिखाई देने वाले कारणों का है.

महायुति के अंदर एक तबका ऐसा है, जो सवाल कर रहा है कि पार्टी के लिए अगर सब कुछ हमने दिया है तो फिर 'बाहरी' उम्मीदवारों को मौका क्यों मिल रहा है. यह सवाल दबी जुबान में हैं. BJP अपने फैसले जीतने की हैसियत रखने के आधार पर कर रही है. असल राजनीति में यही होता भी है.

एक बड़ा सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिरकार तीन दलों के कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय कैसे बिठाया जाए. जो कल तक एक दूसरे के खिलाफ सड़कों पर नारे लगा रहे थे, वे आज एक कैसे हो जाएं? सवाल सिर्फ स्टेज पर एक साथ आने का नहीं है. मामला पैसे से भी जुड़ा है. जीतने वाली पार्टी के नेता खुद और अपने करीबियों की एक अर्थव्यवस्था चलाते हैं, जिसमें दूसरी पार्टी की हिस्सेदारी नहीं होती. इस अर्थव्यवस्था का समीकरण चुनाव के बीच सबसे बड़ा सवाल है. चुनाव इस वक्त लोकसभा के हो रहे हैं, लेकिन नेताओं के सारे समीकरण आने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर चल रहे हैं.

ऐसा नहीं है कि इन हालात से सिर्फ सत्ताधारी जूझ रहे हैं. महाविकास अघाड़ी में उद्धव की सेना कांग्रेस की कीमत पर अपना वजन बढ़ा रही है, ऐसा कांग्रेसियों को लगता है. नेता से अकेले में सवाल करेंगे, तो वे बता ही देंगे कि एक बार जगह छोड़ दी, तो आने वाले वक्त में कौन सीट पर दावेदारी छोड़ेगा? आज के सारे सीट बंटवारे के पीछे यही गणित चल रहा है.

सबसे ज्यादा मुश्किल में कांग्रेस इसलिए भी दिखती है, क्योंकि उसके पास अब कोई छत्रप चेहरा नहीं बचा है. अशोक चव्हाण BJP के हो गए हैं. बाकी के बड़े नेता तो एक-एक करके BJP में पहले ही आ चुके हैं. जो बचे हैं, उनका राज्य स्तर पर बड़ा जनाधार नहीं है. ऐसे में उद्धव की सेना और शरद पवार की NCP को लगता है कि कांग्रेस को गठबंधन में ज्यादा झुकाया जा सकता है. उद्धव सेना कह रही है कि सहानभूति उनके संग है, इसलिए दांव उन पर लगाया जाए. शरद पवार भी कह रहे हैं कि उनके संग जो धोखा हुआ है, उसकी कहानी भी असरदार है.

महाराष्ट्र के मैदान में चुनावी कहानी सिर्फ कांग्रेस के पास ही नहीं है. इन कहानियों के बीच जो सबसे बड़ी पहेली है कि हर सीट पर मची मारामारी में चुनाव स्थानीय उम्मीदवार का है या मोदी के नाम का. इसकी दिलचस्प कहानी बारामती में देखने को मिली. यहां से शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले लड़ रही हैं. अजीत पवार की पार्टी से उनकी पत्नी सुनेत्रा मैदान में हैं. बड़े पवार कह रहे हैं कि चुनाव बेटी और पराये हुए भतीजे के बीच है. BJP कह रही है कि बारामती का चुनाव मोदी और राहुल गांधी के बीच है.

अभिषेक शर्मा NDTV इंडिया के मुंबई के संपादक रहे हैं... वह आपातकाल के बाद की राजनीतिक लामबंदी पर लगातार लेखन करते रहे हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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