राजस्थान में कौन जीता. सभी ये सवाल करने और उसके जवाब में जुट गए हैं. किसी को लगता है कि ये राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Chief Minister Ashok Gehlot) खेमे की जीत है तो किसी को लगता है कि ये असंतुष्ट खेमे के अगुवा रहे सचिन पायलट (Sachin Pilot) की जीत है. इन दो हार जीत के बीच कुछ लोग इसे राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के नए उभरकर आए नेतृत्व की जीत बता रहे हैं. लेकिन कुछ ये भी पूछ रहे हैं कि आख़िर हाईकमान की तरफ़ से जो बीचबचाव अब किया गया अगर वो पहले ही कर लिया जाता तो शायद पार्टी की इतनी फज़ीहत नहीं होती. राजस्थान में कांग्रेस की पूरी पटकथा एक लेखा-जोखा.
सचिन पायलट की बग़ावत के अध्याय का अंत हुआ. 36 दिनों से दिल्ली और इसके आसपास के इलाक़े में अपने विधायकों के साथ डेरा डाले सचिन पायलट आख़िरकार मंगलवार को जयपुर लौट गए. सवाल है कि दिल्ली से क्या लेकर गए. ख़बरों के मामले में कहा जाता है कि ग्लास आधा खाली है या आधा भरा हुआ ये आपके नज़रिए पर निर्भर करता है. सचिन पायलट के समर्थकों को लगता है कि इन 38 दिनों में पायलट ने कांग्रेस की अंदरुनी महाभारत की दो लड़ाई जीत ली है. एक तो ये कि राज्य के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व से जो उनकी शिकायतें रहीं हैं उसको देखने के लिए कांग्रेस हाई कमान ने औपचारिक तौर पर एक कमेटी के गठन का ऐलान किया है. तीन सदस्यीय ये कमेटी सचिन पायलट और उनके साथ के विधायकों की शिकायतों को सुन कर उसका निराकरण करेगी. अब तक होता ये आया था कि सचिन पायलट की शिकायतों को बंद कमरे में सुना जाता था और वो वहीं दफ़न होकर रह जाता था. इस बार हाईकमान ने जो भरोसा दिया है, पायलट ख़ुद भी उससे बहुत संतुष्ट हैं.
समर्थक सचिन पायलट की दूसरी जीत ये बता रहे हैं कि पार्टी में उनको नापसंद करने वालों की तमाम चाहतों के बावजूद पार्टी हाईकमान की चाहत सचिन के लिए कम नहीं हुई. तभी राहुल और प्रियंका की सचिन से मुलाक़ात हुई. और मुलाक़ात में बात बनी. सचिन पायलट को न तो उप मुख्यमंत्री का पद वापस किया गया और न ही प्रदेश अध्यक्ष का जहां एक नियुक्ति की जा चुकी है. इसे सचिन की हार और अपमान के तौर पर देखा और समझा जा रहा है. लेकिन सीएम बनने की ज़िद पाले बैठे सचिन अब अपनी राजनीतिक सोच को बड़ी दिखाने की कोशिश करते नज़र आ रहे हैं. शायद इस सब्र की वजह अंदरखाने बतायी गई वो विधि हो सकती है जो कड़वी घूंट को अमृत में बदलने के प्रोसेसिंग टाइम को रेखांकित करती हो. और तभी गहलोत के मुंह से अपने लिए नकारा और निकम्मा जैसा विशेषण सुनने के बाद भी पायलट सबकुछ हाईकमान पर छोड़ने की बात कर रहे हैं.
उधर सचिन के जयपुर आने की ख़बर के बीच गहलोत जैसलमेर निकल गए. कहा गया कि सचिन के लौटने के उनके समर्थक विधायकों में जो नाराज़गी है उसे दूर करने की कोशिश कर रहे हैं. इधर 19 थे तो उधर सौ से ज़्यादा हैं. तो नाराज़गी का आलम भी ज़्यादा होगा. लेकिन अब गहलोत के सामने हाईकमान के फ़ैसले और निर्देश की बाध्यता होगी और उनको उसी के हिसाब से चलना होगा. आख़िर पालयट की घर वापसी हुई है तो ख़ुशी नहीं मना सकते तो कम से कम पार्टी लाइन से बाहर जाकर असंतुष्टि भी नहीं जता सकते. नहीं तो पायलट और उनमें क्या फ़र्क रह जाएगा. लिहाज़ा उधर से भी प्रतिक्रिया सधी हुई आ रही है.
सचिन पायलट ने बीजेपी (BJP) से मदद ली या नहीं, इसे तूल देना फिलहाल बेमानी हो गया है. तादाद में 19 रहे लेकिन दांव में 20 साबित नहीं हो पाए इस पर ख़ूब चर्चा हो चुकी है. लेकिन घर में लगी असंतुष्टि की आग को समय रहते बुझाने में नाकाम रहने वाली कांग्रेस एक सच्ची राजनीतिक विरोधी की तरह ठीकरा उसके सर फोड़ती रहेगी. आज भी फोड़ा है.
राजस्थान की लड़ाई का एक सिरा दिल्ली से भी जोड़ कर देखा जाता है. वे खेमा जो युवाओं के जोश के ज़रिए पार्टी में आमूलचूल बदलाव का भरोसा पाले बैठा है और दूसरा वो खेमा को अनुभव को ही राजनीतिक मोक्ष का एक मात्र रास्ता मानता है. दोनों में एक तनाव है जिसे कई बार थामने की कोशिश होती है. किस राज्य में कौन किसके पीछे खड़ा है ये सूत्रों से निकल कर आने वाली ख़बरों में पढ़ा जा सकता है. ये सूत्र कांग्रेस के नेताओं का भरपूर चरित्र चित्रण कर देते हैं. लेकिन इन सबके बीच निगाह एक बार फिर राहुल गांधी पर जा टिकी है. राजस्थान के संकट भरे (Rajasthan Crisis) रनवे से पार्टी को जो टेकऑफ़ कराने वाले पायलट के तौर पर उन्हीं को श्रेय दिया जा रहा है. इंतज़ार रहेगा ये देखने का कि ये उड़ान किस उंचाई तक वे ले जाते हैं और फिर किस क़ाबिलियत से उसे ज़मीन पर उतारते हैं.
उमाशंकर सिंह NDTV में विदेश मामलों के संपादक हैं...
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