कांग्रेस के तमाम सूत्र ख़ामोश हैं. कोई कुछ नहीं बोल रहा. कई वरिष्ठ नेता ऑन रिकार्ड तो दूर, ऑफ़ रिकार्ड बात करने से भी परहेज़ कर रहे हैं. आख़िर ऐसा क्यों है कि सूत्रधारों से भरी पार्टी के तमाम सूत्रों ने फ़िलहाल ख़ामोशी अख़्तियार कर ली है?
सोमवार को राहुल गांधी ने असम और तमिलनाडु के पार्टी नेताओं के साथ वीडियो कांफ्रेंसिंग के ज़रिए मीटिंग की. हालांकि ये किसी चुनाव से पहले संगठन की आम आंतरिक बैठक थी. पर अमूमन ऐसी आंतरिक बैठकों में क्या कुछ हुआ, किसने किसको क्या बोला, किसका रुख़ कैसा रहा, किसने किसको टोका, किसने किसे क्या समझाने की कोशिश की, कौन किसके साथ खड़ा नज़र आया, किसने किसको चुप रहने का इशारा किया, किसने किसकी बात बीच में काट दी, किसने किसका बचाव किया, किसने किसको निशाने पर लिया... ऐसी कई बातें सूत्रों के हवाले से छनकर आने की कांग्रेस की परंपरा रही है. कई का खंडन आता था, कई का नहीं. और कई को खंडन के लायक भी नहीं माना जाता था.
तो क्या ये परंपरा अब ख़त्म होने जा रही है? या इस पर तात्कालिक विराम भर लगा है? जो भी है, पार्टी के एक नेता आपसी बातचीत में इस बात की तस्दीक करते हैं कि बदली हुई परिस्थिति में सभी एक-दूसरे को नए सिरे से आंकने की कोशिश में हैं.
दरअसल अहमद पटेल की कोरोना वायरस की चपेट में आकर हुई असामयिक मृत्यु ने पार्टी नेताओं को कई स्तर पर झकझोर दिया है. भावनात्मक स्तर पर भी और राजनीतिक स्तर पर भी. पटेल के जाने के बाद पार्टी में एक शून्य पैदा हुआ है. यही शून्य पार्टी के भीतर एक तूफ़ान ला सकता है. ख़ामोशी उसकी पूर्वपीठिका हो सकती है.
अहमद पटेल की दुखद मौत के बाद पार्टी फ़िलहाल मातम में है. इस बीच ऐसी कोई बड़ी राजनीतिक बयानबाज़ी नहीं हुई है जिससे पार्टी के भीतर की धार का पता चले. वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा का एक ट्वीट ज़रूर आया जिसमें वे प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ़ करते नज़र आए. इससे ये क़यास लगाया जाने लगा कि वे बीजेपी की तरफ़ क़दम बढ़ा सकते हैं. लेकिन फिर आनन्द शर्मा ने स्वयं उस ट्वीट को डिलीट कर दूसरा ट्वीट किया. लिखा कि पहले ट्रवीट में वाक्य विन्यास संबंधी कुछ ग़लती हो गई थी सो अर्थ का अनर्थ हो गया. आनन्द शर्मा, ग़ुलाब नबी आज़ाद के साथ उन 23 चर्चित नामों में एक हैं जिन्होंने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी थी. पार्टी नेतृत्व को लेकर कुछ सवाल पूछे थे, सलाह दी थी और आगे की राह जाननी चाही थी. उसके बाद कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में उन नेताओं को कुछ जवाब भी मिला था. अहमद पटेल ने भी अपने शब्दों में समझाया था. वे न सिर्फ़ गांधी परिवार और उसके नेतृत्व की ढ़ाल बनकर सामने आए बल्कि अंदरूनी असंतोष पर मिट्टी डालकर आगे की राह भी दिखाने की कोशिश की थी.
अब अहमद पटेल नहीं हैं. वे सोनिया गांधी के ऐसे सिपहसालार थे जो पार्टी के असंतुष्टों की सुनते भी थे, उनकी बात आलाकमान के सामने रखते भी थे और दोनो पक्षों को समझाते भी थे. अब वो संबल ख़त्म हो गया है. तो अब क्या? इस सवाल पर भी तमाम सूत्र ख़ामोश हैं.
दरअसल, अहमद पटेल की असामयिक मृत्यु ने पार्टी के सामने दो स्थितियां पैदा की हैं. या तो तमाम असंतुष्ट अब गांधी परिवार की सर्वसत्ता को स्वीकार लें या फिर अपनी अपनी राह लें. क्योंकि सबों को एक सूत्र में पिरोना वाले शख़्स का साया उठ गया है. अगर किसी को राहुल गांधी के नेतृत्व से शिकायत है तो क्या अब वे सीधे सोनिया गांधी के पास जाएंगे? निश्चित रूप से नहीं.
तो समय की ज़रूरत है ख़ामोशी. असंतोष के पुराने रुख़ों और बयानों को नया धार देना अभी मुनासिब नहीं. जिन बातों को पार्टी नेतृत्व द्वारा पहले ‘दिल पर नहीं लिया गया' था, वह जख़्म कुरद सकता है. उस ज़ख्म को जड़ से मिटाने का फ़ैसला लिया जा सकता है. इसलिए पहले से चढ़ाकर रखी गई प्रत्यंचा को अभी ढ़ीला छोड़ना ही बुद्धिमानी है.
कुल मिलाकर ये कि अब असंतुष्ट कांग्रेसजन अलग राग अलापना बंद कर दें. अब जो फ़ैसला लेना है वह राहुल गांधी को ही लेना है. पहले कई सूत्र दावा करते रहे हैं कि तमाम फ़ैसले वही लेते हैं. सोनिया गांधी की अंतरिम अध्यक्षता तो एक ढाल मात्र रहा है. अब सोनिया गांधी से सबसे विश्वस्त सिपहसालार और राजनीतिक सलाहकार के न होने से कई फ़ैसलों में उनकी सलाह की कमी नज़र आ सकती है. जिन्होंने राहुल गांधी को साधने की कोशिश की थी, वे ख़ुद सध सकते हैं. इसलिए अब उनके सामने की राह यही है कि वे किसी भी तरह के बग़ावती तेवर को छोड़ें और गांधी परिवार की छत्रछाया में एकजुटता का भरोसा दिलाने की कोशिश में जुट जाएं.
हां, जिन असंतुष्टों के पास अपना जनाधार है वह तब भी अलग राह लेने की सोच सकते हैं. मतलब जिन नेताओं ने पहले कभी बड़ी चुनावी क़ामयाबी हासिल की हो और जिन नेताओं ने किसी राज्य में सत्ता चलायी हो, उनके तेवर अलग हो सकते हैं. वे गांधी परिवार की छत्रछाया से निकलकर अलग मोर्चा बनाने की सोच सकते हैं. लेकिन जो ‘पूरी तरह से राज्यसभा धारी' हैं उनके लिए फ़ैसला मुश्किल होगा. ख़ासतौर पर तब, जब राज्यसभा जाने का कोई वैकल्पिक दरवाज़ा खुला न हो. किसी दूसरी पार्टी के लिए उनकी उपादेयता न हो. और अपनी पार्टी में एकजुट दबाव समूह बनाए रखने के लिए कोई नेतृत्व न हो. ऐसे में मन मसोसकर रह जाने के अलावा कोई चारा नहीं.
49 साल कांग्रेस को देने वाले जनार्दन द्विवेदी, अहमद पटेल के चले जाने पर कहते हैं कि “यह अत्यंत दुखद और असामयिक है. अब कांग्रेस को दूसरा अहमद पटेल नहीं मिलेगा.“ उनकी कही दूसरी पंक्ति बहुत कुछ कह जाती है. न तो असंतुष्टों को ‘कारगर तरीक़े से' कंधा देने वाला कोई मिलेगा और न ही गांधी परिवार के फ़ैसलों में ‘एक हद तक' उनको आत्मसात कर चलने को प्रेरित करने वाला कोई मिलेगा. कुल मिलाकर ये कि अब पूरा दारोमदार गांधी के नेतृत्व पर है. वो भी दो चुनावों में पार्टी का चेहरा बन चुके राहुल गांधी के नेतृत्व पर. अब वे अपनी उपलब्धियों और नाक़ामियों के ख़ुद ज़िम्मेदार होंगे.
पार्टी के कुछ सूत्र इस पर सहमति जताते हैं पर ख़ामोशी अख़्तियार रखते हैं.
उमाशंकर सिंह NDTV में विदेश मामलों के संपादक हैं...
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