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This Article is From Nov 13, 2015

प्रियदर्शन की कलम से : गर्दन पर तलवार लटकाने वाली सहिष्णुता

Priyadarshan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 13, 2015 21:18 pm IST
    • Published On नवंबर 13, 2015 19:15 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 13, 2015 21:18 pm IST
लंदन में पत्रकारों से बातचीत के दौरान भारत में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर पूछे गए प्रश्न पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिल्कुल ठीक कहा कि यह देश बुद्ध और गांधी का है, यहां किसी भी तरह की छोटी-बड़ी घटना बर्दाश्त नहीं की जाएगी।

मगर इस उत्तर का ठीक से विश्लेषण करने की ज़रूरत है क्योंकि इससे असहिष्णुता को लेकर प्रधानमंत्री के अवचेतन में बसी कुछ धारणाओं का सुराग मिलता है। ऐसा लगता है, जैसे प्रधानमंत्री असहिष्णुता की शुरुआत तब मानते हैं, जब कोई ‘घटना’ होती है, मसलन कहीं किसी दादरी से साठ साल की उम्र को छूते एक बूढ़े को सिर्फ गोमांस रखने के शक में मार दिया जाता है, या फिर कहीं धारवाड़ में 78 साल के एक लेखक को घर में दस्तक देकर गोली मार दी जाती है। इस निगाह से अचानक ‘असहिष्णुता’ का मामला बड़ा सरल हो जाता है- तब यह वैध आंकड़ा दिया जा सकता है कि सवा अरब की आबादी वाले देश में अगर एक-दो या चार-पांच ऐसी घटनाएं हो भी जाती हैं तो यह बिल्कुल नगण्य है और हमारी सहिष्णुता का सूचकांक अब भी बहुत ऊपर है, तरह-तरह की दहशतगर्दी से घिरे मुल्क तो हमारे आसपास भी खड़े नहीं होते।

मानसिकता की जगह घटनाओं के ज़रिए सहिष्णुता मापने का यह पैमाना प्रधानमंत्री से पहले अटाली गांव के दंगाइयों ने भी अपनाया था, जब उन्होंने याद दिलाया कि अल्पसंख्यकों का उनका विरोध कितना अहिंसक रहा है, कि उसमें एक भी अल्पसंख्यक मारा नहीं गया, किसी महिला के साथ बलात्कार नहीं हुआ, बस उनके घर जलाए गए और उन्हें गांव छोड़कर भागना पड़ा। इसी तरह शिवसेना ने महाराष्ट्र में सुधींद्र कुलकर्णी का मुंह काला कर इसे भी अपना अहिंसक और सहिष्णु प्रतिरोध बताया था, क्योंकि इसमें भी हिंसा नहीं हुई।

सहिष्णुता और अहिंसा का यह भाजपाई भाष्य दरअसल सर किसी का नहीं काटता, मगर गर्दन पर सबकी तलवार लटकाए रखता है। परंपरा के किसी घिसे-पिटे संस्करण के विरुद्ध, अंधविश्वास के किसी सतही स्वरूप के ख़िलाफ़ अगर आपने कुछ कहा तो किसी की भी भावना आहत हो सकती है और मौत की धमकी देने से लेकर उस पर अमल तक किया जा सकता है। इस सहिष्णुता का शिकार अक्सर इतिहास भी होता है जिसकी आधी-अधूरी समझ से लैस अतिवादी आपके इतिहास-बोध को लानत भेजते हैं, उसके लिए विदेशियों द्वारा दिए गए ज्ञान को ज़िम्मेदार बताते हैं और कल्पना करते हैं कि किसी दिन वे इतिहास का अपना और भारतीय भाष्य पेश करेंगे।

बहरहाल, ब्रिटिश पत्रकार ने भारतीय प्रधानमंत्री से बढ़ती असहिष्णुता पर सवाल पूछा था, यह नहीं पूछा था कि भारत में सहिष्णुता की परंपरा है या नहीं। यह परंपरा है और इतनी गहरी, विस्तृत और सर्वविदित है कि इसको किसी नरेंद्र मोदी की गवाही की ज़रूरत नहीं। संघ परिवार को भी इस परंपरा के आगे सिर झुकाना पड़ता है और नरेंद्र मोदी भी गांधी और बुद्ध के हवाले से अपना बचाव कर पाते हैं। सवाल गांधी और बुद्ध की परंपरा पर नहीं, इस परंपरा को चोट पहुंचाने की कोशिश पर था। जिस विचारधारा ने गांधी की हत्या की और जो इन दिनों गोडसे की मूर्तियां लगवाने में लगी हुई है, वह मौजूदा हुकूमत के साथ है और मौजूदा हुकूमत भी उसके साथ है- इसमें किसी को संदेह नहीं है। बुद्ध का दर्शन जिस करुणा की मांग करता है, वह इस अतिवाद में संभव ही नहीं।

कायदे से ब्रिटिश पत्रकार की बात का जवाब वही होता जो नरेंद्र मोदी ने दिया- भारत में सहिष्णुता की परंपरा बनी रहेगी। लेकिन इसलिए नहीं कि मौजूदा सत्ता उसे बनाए रखने की पक्षधर है, बल्कि इसलिए कि यह परंपरा इतनी मज़बूत है, इतने गहरे धंसी हुई है कि उसे खत्म करना संभव नहीं है। लोग उसके लिए शहादत देने को तैयार हैं। गोविंद पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर या एमएम कलबुर्गी जैसे लेखकों और विचारकों ने इसी परंपरा को बचाने के लिए शहादत दी। जिन लेखकों, वैज्ञानिकों, कलाकारों और फिल्मकारों ने अपने सम्मान लौटाए, अपनी ओर से प्रदर्शन किए, दरअसल वे इसी सहिष्णु और बहुलतावादी परंपरा का बचाव कर रहे थे। बेशक, जो असहिष्णुता की परंपरा है वह इसका इम्तिहान लेती रहती है और इन दिनों भी ले रही है। लेकिन सहिष्णुता मोदी का पीछा छोड़ती ही नहीं, वह एक सवाल की शक्ल में लंदन तक जा पहुंचती है और उन्हें याद करने को विवश करती है कि यह गांधी और बुद्ध का देश है।

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