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This Article is From Jul 30, 2015

अफ़शां अंजुम : जन्नत का टिकट

Reported By Afshan Anjum
  • Blogs,
  • Updated:
    जुलाई 30, 2015 19:23 pm IST
    • Published On जुलाई 30, 2015 00:22 am IST
    • Last Updated On जुलाई 30, 2015 19:23 pm IST
कश्मीर की वादियों में बेइंतेहा ख़ूबसूरती के बीच बड़ी ख़ामोशी से बसने वाली दास्तानें डल झील को और भी गहरा बना देती हैं। छुट्टियों में टूरिस्टों से खचाखच भरी रहने वाली घाटी के आम लोगों की कहानियां सुनीं तो मालूम हुआ कि जन्नत में पैदा होने की इन्हें बहुत बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी है।

श्रीनगर के बुलेवर्ड पर बरसों से खड़े दरख्तों के बीच अगर हर शाम आपको एक धीमी ड्राइव करने का मौक़ा मिले तो यक़ीन मानिए आप इन पलों के लिए अपने सारे ग़म भुला सकते हैं। उसपर अगर आपने शिकारा की एक राइड भी कर ली तो आपको शायद ये पता चलेगा कि डल लेक पर तैरते कमल को इस वक़्त कैसा महसूस हो रहा है। लेकिन अगर वाक़ई आप श्रीनगर के लोगों से बात करते हुए उनकी कहानियां सुनेंगे तो ये सुकून बेमानी हो जाएगा।

कश्मीर की कहानी एक बेहद उलझी हुई लव स्टोरी से कम नहीं है। आज भी हरेक की ज़ुबान पर यहां कश्मीर की आज़ादी का ज़िक्र ज़रूर आ जाता है, शिकायत रहती है उन तमाम सीआरपीएफ़ के जवानों से जो चौबीसों घंटे हर घर, हर दुकान यहां तक कि खेतों के बीच भी तैनात हैं। आम लोगों का दम घुटता है एक ऐसे राज्य में रहते हुए जिसे हर वक़्त दुनिया के सबसे अहम राजनीतिक मुद्दों में से एक होने का दर्जा हासिल है।

कम ही लोगों को एहसास है कि आज के कश्मीर की लगभग 70 फ़ीसदी आबादी युवाओं की है। ये युवा दिल्ली, मुंबई या बैंगलोर में पढ़ने या काम करने वाले चेहरों से ज़्यादा अलग नहीं हैं। हां इनके तजुर्बे शायद काफ़ी अलग रहे हैं। ये बड़े हुए हैं ह्यूमन राइट्स वायलेशन बनाम जिहाद की बहस के बीच। पाकिस्तान और भारत की दुश्मनी के बीच अपनी जगह तलाशते हुए। हरेक को दोनों में से एक देश थोड़ा ज़्यादा पसंद भी है, वजह अपनी-अपनी है। लेकिन परंपरा और संस्‍कृति के साथ-साथ बरसों से चली आ रही राजनीति के मद्देनज़र ये भारत से एक बड़ा फ़ासला ज़रूर महसूस करते हैं। आप अगर टूरिस्ट होने के साथ-साथ एक दोस्त बनकर बात करें तो एहसास होगा।

इस श्रीनगर दौरे पर कुछ लोगों की कही हुई बातें मेरे दिमाग़ में बस गईं।

'नहीं चाहिए सस्ते टमाटर और प्याज़, सरहद पार मेरा भाई रहता है। हम बीस साल से नहीं मिले हैं। कोई हमें मिलवा दे।'
'कैसे नहीं बन जाएगा कोई मिलिटेंट? जब आपके पूरे परिवार को आपकी आंखों के सामने कोई मार जाए तो और क्या करेंगे?'
'पूरे भारत को लगता है यहां सब मिलिटेंट हैं। हां ठीक है, हैं मिलिटेंट - अब ख़ुश?'
'मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं, मुझे नहीं पता सियासत कैसे होती है। लेकिन जो पढ़े लिखे हैं वो क्यों ग़लत काम करते हैं'


कश्मीर को लेकर चाहे कितनी ही बातें कही गई हों, टूरिस्ट के लिए ये सुरक्षित है। सच पूछें तो टूरिस्ट से प्यारा यहां शायद कोई नहीं। लेकिन ज़रा सा कंधा आगे बढ़ाते ही सिस्कियों के लिए तैयार रहिए। बाक़ी बातें समझने कि लिए आप कश्मीर का इतिहास गूगल कर सकते हैं।

कहते हैं जब किसी का दुख बहुत बड़ा हो या चोट गहरी हो तो उसे गले लगाने की ज़रूरत होती है। कश्मीर को भी ज़रूरत है गले लगाने की। ग़रीबी, बेरोज़गारी और ख़राब इमेज से जूझ रहे राज्य में बदलाव के लिए किसी को तो बीड़ा उठाना ही होगा। वरना जन्नत का ये टिकट वक़्त बेवक्त बहुत महंगा साबित होता रहेगा।

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