विज्ञापन
This Article is From May 28, 2017

मोदी सरकार, 3 साल और कश्मीर का हाल

Umashankar Singh
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 28, 2017 21:10 pm IST
    • Published On मई 28, 2017 20:37 pm IST
    • Last Updated On मई 28, 2017 21:10 pm IST
अप्रैल, 2016 में कटरा के मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाजपेयी जी की याद दिलाते हुए कहा था कि रियासत के लोगों को वाजपेयी से बहुत प्यार और सम्मान है, जिन्होंने जम्मू और कश्मीर को इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत के रास्ते आगे बढ़ाने की बात की थी. पीएम मोदी ने सबको साथ लेकर विकास के वादे के साथ वाजपेयी जी के सपने को पूरा करने का वादा किया था. प्रधानमंत्री के इस ऐलान को राज्य में बड़ी उम्मीद के साथ देखा गया था.

प्रधानमंत्री मोदी के इस बयान को साल भर से कुछ ज़्यादा हुए हैं. राज्य में पीडीपी और बीजेपी की गठबंधन सरकार की सरकार को दो साल से कुछ ज़्यादा हुए हैं. केंद्र में बीजेपी सरकार के तीन साल पूरे हो गए हैं, लेकिन कश्मीर लगातार सुलग रहा है. इस क़दर कि 1989 जैसे हालात की वापसी की आशंका सताने लगी हैं. हालांकि तब से अब तक झेलम में बहुत पानी बह चुका है. लाइन ऑफ कंट्रोल पर सुरक्षा घेरे को तारबंदी के ज़रिए भी मज़बूत करने की कोशिश हुई है. सीमा पार से आने वाले आतंकवादियों का उस तरह से बेरोकटोक आना और कश्मीरियों को बहला कर ट्रेनिंग के लिए ले जाना अब संभव नहीं है. लेकिन घाटी के भीतर असंतोष और गुस्से का उबाल सीमापार बैठे आतंक के आकाओं के लिए मुफ़ीद ज़मीन मुहैया करा रहा है.

कश्मीर पहले भी सुलगा है. सुलगता रहा है. वहां आतंकवाद का इतिहास क़रीब तीन दशक पुराना है. लेकिन हर बार उसे शांत करने की कोशिश भी होती रही है. कोशिश इस बार भी हो रही है. और बहुत अलग तरह की कोशिश हो रही है. लेकिन क्या कोशिश हो रही है किसी को पता नहीं. मैं मान के चल रहा हूं कि मोदी सरकार अंदरखाने ज़रूर कोई न कोई कोशिश कर रही होगी. जैसे हर दौर की सरकार की तरफ से कोशिशें की जाती रही हैं. वाजपेयी सरकार हो या मनमोहन सरकार, वादी में सेना की मुस्तैदी के बावजूद बातचीत के नए-नए तरीक़े निकाले जाते रहे. वक्त के हिसाब से हालात को क़ाबू में रखने में क़ामयाबी भी हासिल होती रही है.

1999-2004 के वाजपेयी के कार्यकाल में पहली बार ऐसा हुआ कि आतंकवादी संगठन हिज़्बुल मुजाहिदीन को भी बातचीत की टेबल पर लाया गया. हिज़्बुल स्थानीय कश्मीरियों की नुमाइंदगी का दावा करता रहा है, हालांकि उसके सरगना सैय्यद सलाहुउद्दीन कश्मीर से भागने के बाद से ही पाकिस्तान के प्रभाव में है. दिसंबर 1999 में आईसी 814 के अपहरण के बाद पैदा हुई सुरक्षा चुनौतियां कहीं से भी किसी भी आतंकवादी संगठन से बातचीत की इजाज़त नहीं देता था, लेकिन कश्मीर के हालात को सुधारने के लिए इसे ज़रूरी माना गया. वो भी तब जब भारतीय सेना आतंकवादियों के मंसूबों को नेस्तनाबूद करने में कोई क़सर नहीं छोड़ रही थी. एक तरफ़ वो आतंकवादियों के पैर उखाड़ रही थी तो दूसरी तरफ सरकार भटके हुए नौजवानों को राह पर लाने के लिए बातचीत के नए-नए दरवाज़े खोल रही थी.

ये वाजपेयी सरकार ही थी जिन्होंने केसी पंत को मुख्य वार्ताकार नियुक्त कर कश्मीर भेजा. हालांकि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस उनसे बात करने नहीं आयी लेकिन हुर्रियत को बातचीत का न्यौता भेजकर कश्मीर समस्या का एक फरीक (पक्ष) होने के उसके अहम को तुष्ट करने की कोशिश की गई. वैसे बातचीत के लिए शिकारावाला और हाउसबोट वाला से लेकर व्यापारियों तक और न सिर्फ कश्मीर घाटी बल्कि जम्मू से लेकर कारगिल, लेह लद्दाख तक के नुमाइंदों को बुलाया गया. रणनीति सभी की बात सुनने की थी. उनको भरोसा देने का था. सबको साथ लेकर चलने का था. और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसों को उसकी हद का एहसास कराने का भी था. तब बातचीत के न्यौते के पत्र के जवाब में शब्बीर शाह ने केंद्र को लिखा था और उन्होंने केसी पंत से मुलाकात भी की थी. इसके लिए शब्बीर शाह को जम्मू-कश्मीर में आलोचना भी झेलनी पड़ी, लेकिन केंद्र ने उनके कदम को सकारात्मक माना. यह अलग बात है कि आतंकवाद के पुराने दौर में लंबे समय तक जेल में रह चुके शब्बीर शाह मोदी सरकार के आने के बाद से लगातार नजरबंद हैं.

संवाद का ये सिलसिला वाजपेयी जी ने पाकिस्तान के साथ भी क़ायम किया था. लाहौर बस लेकर गए लेकिन बदले में कारगिल मिला. उसके बाद भी उन्होंने अपना स्टेट्समैनशिप दिखाया और जनवरी, 2004 में सार्क सम्मिट में हिस्सा लेने फिर पाकिस्तान जा पहुंचे. इसी का नतीजा रहा का भारत और पाकिस्तान के बीच कंपोजिट डॉयलॉग की सहमति बनी. 2004 में वाजपेयी सरकार चली गई लेकिन मनमोहन सरकार ने कंपोज़िट डॉयलॉग के सिलसिले को पूरी शिद्दत के साथ आगे बढ़ाया. इसका तब टूटना लाज़िमी हो गया जब 2008 में मुंबई हमला हुआ. हालांकि इसके बाद पाकिस्तान से औपचारिक बातचीत की प्रक्रिया सालों बंद रही लेकिन अलग-अलग मौक़ों पर दोनों देशों के रिश्तों पर पड़ी बर्फ़ पिघलाने की कोशिशें जारी रहीं. आख़िरकार दिसंबर, 2015 में सुषमा स्वराज जब हार्ट ऑफ एशिया में हिस्सा लेने इस्लामाबाद पहुंचीं, तो कंप्रीहेंसिव डॉयलॉग के नाम से इसे आगे बढ़ाने पर सहमति बनी. बीच-बीच में होने वाले आतंकी हमलों की वजह से ये प्रक्रिया आज तक शुरू नहीं हो पाई है.

कश्मीर में शांति का सीधा संबंध पाकिस्तान के साथ चलने वाली वार्ता से भी होता है. आतंक के गढ़ पाकिस्तान के कई तत्व इस प्रक्रिया को पटरी से उतार कर अपने नापाक मंसूबों को अमली जामा पहनाने की कोशिश में लगे रहते हैं. बातचीत टूटने की वजह हमेशा पाकिस्तान की तरफ से आती रही है, इसमें कोई शक नहीं. लेकिन उसके हुक्मरानों पर दुनिया के देशों का दबाव बना कर बातचीत की टेबल पर लाना भारत की कूटनीतिक कामयाबी का हिस्सा रहा है. कार्यकाल के तीन साल बाद मोदी सरकार से पूछना पड़ेगा कि आख़िरकार इस बार पाकिस्तान दबाव में क्यों नहीं आ रहा और पहले आतंकवाद पर बातचीत की शर्त को स्वीकार कर बातचीत की टेबल पर आने में आनाकानी क्यों कर रहा है. वो भी तब जब अमेरिका से लेकर यूरोप के देशों तक नरेंद्र मोदी के नाम का डंका बज रहा है.

अब थोड़ा कश्मीर के भीतर के उन तरीक़ों की तरफ ग़ौर करते हैं जो पिछली सरकारें अमन क़ायम करने के लिए प्रयोग में लाती रही हैं. चाहे वाजपेयी की सरकार हो या मनमोहन की सरकार, किसी ने भी हुर्रियत को कश्मीर का नुमाइंदा नहीं माना लेकिन रणनीति के तहत उसे आभासी दुनिया में रखती रही. मक़सद एसॉल्ट रायफ़ल ताने आतंकवादियों के साथ में रहनुमाई न चली जाए, इसे रोकने का रहा. अलग-अलग एजेंसियां अलग-अलग चैनलों के ज़रिए उनका जानी माली ख़्याल रखती रही. और तो और, हुर्रियत नेताओं के बीच की महत्वाकांक्षा की दरार को भी बढ़ाती और बरक़रार रखती रही. इसलिए क़रीब दो दर्जन संगठनों से मिलकर बनी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस में कभी एक सर्वमान्य नेता नहीं बन पाया. हालांकि सैय्यद अली शाह गिलानी इसके ख़ुदमुख़्तार बने रहे हैं.

न सिर्फ हुर्रियत, बल्कि अलग-अलग आतंकी तंजीमों में भी ख़ुफिया विभाग की पैठ रही. इनके तार सीमा पार तक फैले रहे. नतीज़ा आतंकवादियों की घुसपैठ से लेकर आतंकी वारदात तक की सूचना सुरक्षा एजेंसियों तक वक्त रहते पहुंचती रही. उन्हें रोका और मारा जाता रहा. सेना के साथ वहां बीएसएफ जैसी फोर्स की क़ाबिलियत का इस्तेमाल होता रहा जिसके जी ब्रांच ने आम कश्मीरियों के बीच ऐसी पैठ बनायी थी कि आतंकवादियों के मूवमेंट की सूचना कश्मीरी ख़ुद चल कर उसके नगर मुख्यालय तक देने आ जाते थे. बाद में वन बॉर्डर वन फोर्स का फॉर्मूला लागू होने के बाद बीएसएफ घाटी से निकल गई और उसकी जगह सीआरपीएफ ने ली. हालांकि अभी इसके आगे इसकी तह में नहीं जाते.

घाटी में अमन का पैमाना वहां होने वाले चुनाव भी रहे हैं. आतंकवादियों की धमकियों के मद्देनज़र वहां मुख्यधारा राजनीति में आने के अपने ख़तरे रहे हैं. स्थानीय नेता तैयार हों और चुनाव में हिस्सेदारी करें इसके पीछे भी केंद्र सरकार की बड़ी भूमिका रही है. ख़ुफिया तंत्र के ज़रिए न सिर्फ उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की जाती थी बल्कि उनकी ज़रूरतों का भी ध्यान रखा जाता था. सीधे शब्दों में कहें तो केंद्र में सरकार चाहे जिस भी पार्टी या गठबंधंन की हो, मुख्यधारा की राजनीति के प्रोत्साहन के लिए कश्मीर में हर पार्टी को आर्थिक मदद भी मुहैया करायी जाती थी. पहले की सरकारें कम से कम कश्मीर में विपक्ष को ख़त्म कर देने की ज़िद पर अड़ी नहीं रहती थीं. समस्याओं की जटिलता के लिहाज़ से सभी केंद्र सरकारों ने कुछ अलिखित लेकिन निहित नियमों के तहत काम किया.

लेकिन मोदी सरकार ने लगता है कि हर तरह के पुल को जला लिया है. सैन्य अधिकारी ऑफ द रिकार्ड ये स्वीकारते हैं कि लोगों से ख़ुफ़िया सूचनाएं मिलनी बंद हो गई हैं. पहले गांव देहात से भी जानकारी आ जाती थी लेकिन अब मुखबिरों की फेहरिस्त लगभग ख़त्म हो गई है. और बिना सूचना के कोई ऑपरेशन करना अंधे कुएं में कूदने जैसा है. कश्मीरियों में पैठ ख़त्म होने से सुरक्षाबल और सेना ख़ुद को अलग-थलग महसूस करने लगे हैं. दूसरी तरफ़ आतंकवादी और अलगाववादियों ने मिल कर फिर ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि स्कूली छात्र-छात्राओं भी पत्थरबाज़ी करने लगे हैं.

गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि सरकार कश्मीर समस्या के स्थायी समाधान की दिशा में काम करेगी. मोदी सरकार के पास कश्मीर का कोई राम बाण इलाज़ हो तो कह नहीं सकते, लेकिन घाटी में मौजूदा लक्षण हालात के गंभीर से गंभीरतम होने का अंदेशा दे रहे हैं. ऐसे में अगर कोई कहता है कि ताक़त के बूते आप कश्मीर को नहीं संभाल सकते तो आप बेशक उसे देशद्रोही कह दीजिए लेकिन देर सबेर आपको व्यवहारिकता की धरातल पर आना पड़ेगा. ये सच है कि ये एक रात में ख़त्म होने वाली समस्या नहीं लेकिन जल रहे कश्मीर को संभालने के लिए केंद्र सरकार को हर रात जागना पड़ेगा. राज्य सरकार के कंधे पर ज़िम्मेदारी छोड़ने से काम नहीं चलेगा. बीजेपी के साथ गठबंधन करने के बाद पीडीपी वैसे घाटी में अपना असर खो चुकी है. ज़्यादातर चुने हुए विधायक अपने क्षेत्रों का दौरा करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे. इनमें मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी शामिल हैं.

इस गंभीर दौर में कश्‍मीर के लिए 80 हजार करोड़ के पैकेज का ऐलान करने वाले प्रधानमंत्री की तरफ इंसानियत, कश्‍मीरियत और जम्‍हूरियत का सवाल मुंह उठाकर देख रहा है.

(एनडीटीवी इंडिया के फॉरेन अफेयर्स एडिटर उमाशंकर सिंह लंबे समय तक जम्मू और कश्मीर में रहे हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
डार्क मोड/लाइट मोड पर जाएं
Previous Article
BLOG : हिंदी में तेजी से फैल रहे इस 'वायरस' से बचना जरूरी है!
मोदी सरकार, 3 साल और कश्मीर का हाल
बार-बार, हर बार और कितनी बार होगी चुनाव आयोग की अग्नि परीक्षा
Next Article
बार-बार, हर बार और कितनी बार होगी चुनाव आयोग की अग्नि परीक्षा
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com