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This Article is From Feb 14, 2017

साक्षरता को लेकर जनप्रतिनिधियों को छूट क्यों?

Sarvapriya Sangwan
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 15, 2017 13:27 pm IST
    • Published On फ़रवरी 14, 2017 23:59 pm IST
    • Last Updated On फ़रवरी 15, 2017 13:27 pm IST
पिछले कुछ वक्त से नजर आ रहा है कि राजनीति में सुधारों के पैरोकार भी उम्मीदवारों की शैक्षणिक योग्यता के मामले में बचाव की मुद्रा में आ जाते हैं. उनकी दलील होती है कि ये लोकतंत्र के खिलाफ है, संविधान के खिलाफ है. ये किसी गरीब, पिछड़े, दलित, आदिवासी के लिए नुकसानदायक होगा.

जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में कहा था कि जिन अनपढ़ लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में अपना सब झोंक दिया, शैक्षणिक योग्यता की अनिवार्यता लगाकर उन्हें चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता.

प्रथम प्रधानमंत्री की इस दलील से मैं बिलकुल सहमत हूं. लेकिन क्या नेहरू आज के सन्दर्भ में भी यही कहते? उस वक्त के स्वतंत्रता सेनानी आज चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. 1947 से 2017 के मानव संसाधन में अंतर भी आया है. उस वक्त देश की बड़ी संख्या के लिए संसाधन मुहैया नहीं थे तो देश को यह हक भी नहीं था कि इस तरह की कोई अनिवार्यता थोपी जाए. तब देश के लोग 90 साल तक आज़ादी के लिए जूझ रहे थे. साक्षरता दर 12% थी. आज माहौल अलग है, संसाधन बेहतर हैं. देश की साक्षरता 74% के आस-पास है. ऐसे में क्या न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता आठवीं पास भी नहीं रखी जा सकती? संविधान सभा के इस मामले में सन्दर्भ को समझिए और वक़्त को ध्यान में रखिए, ज़रूरी नहीं कि वो आज भी प्रासंगिक है.

कुछ राज्यों ने ग्राम पंचायतों के चुनाव के लिए शैक्षणिक अनिवार्य की है लेकिन वो भी पांचवी, आठवीं और दसवीं पास तक ही. मसलन, हरियाणा सरकार ने ग्राम पंचायत का चुनाव लड़ने के लिए शैक्षणिक योग्यता दसवीं पास रखी. महिलाओं और दलितों के लिए पैमाना दसवीं से कम ही रखा गया है. इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गई लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इस फैसले में गैर-कानूनी या भेदभाव जैसा कुछ नहीं लगा. हालांकि यह फैसला दो जजों की बेंच ने ही दिया था. इससे पहले भी कई बार सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न फैसलों में कहा है कि चुनाव लड़ना कानूनी अधिकार है, संवैधानिक नहीं. कुछ फैसलों में इसे संवैधानिक भी कहा गया. लेकिन राजबाला vs स्टेट ऑफ हरियाणा में सुप्रीम कोर्ट ने ग्राम पंचायत में न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता को सही ठहराया. इस फैसले की आलोचना भी हुई जिसमें मुख्य बिंदु यही रहा कि एक बड़े तबके का चुनाव लड़ने का अधिकार छीन लिया गया. लेकिन ये अधिकार किसी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं है और न ही इसे कोई साबित कर पाया. संविधान के आर्टिकल 243F के अनुसार अगर राज्य ने ऐसा कोई कानून बनाया है जिससे ग्राम पंचायत का चुनाव लड़ रहा उम्मीदवार अयोग्य घोषित होता है तो ये जायज़ है. किस आधार पर इसे असंवैधानिक बताया जा रहा है. इस फैसले के बाद मौजूदा प्रधान दसवीं की परीक्षा दे रहे हैं क्योंकि अगली बार उन्हें चुनाव लड़ने में दिक्कत हो सकती है. इसका तो स्वागत होना चाहिए.

हालांकि इस कानून को बनाने वाली हरियाणा सरकार की विधानसभा के अपने कुछ विधायकों के पास ये पात्रता नहीं है. ऐसे मैं ये भी जरूरी होता है कि विधायकों और सांसदों के लिए भी एक न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की शुरुआत की जाए.

क्या एक प्रतिनिधि के लिए आठवीं और दसवीं पास करना भी दूभर है? देश में ओपन स्कूल भी चल रहे हैं. हक़ छीना नहीं जा रहा, आपको हक़ के लिए मेहनत करने को कहा जा रहा है जैसे देश में तमाम सरकारी नौकरियों और अलग-अलग पेशों के लिए योग्यता निर्धारित की गयी है. ये योग्यता कुछ छूट के साथ दलित, पिछड़ों, आदिवासी सबके लिए है. अगर दलितों और आदिवासियों को इस मामले में हानि हो रही है तो फिर बाकी क्षेत्रों में भी हो रही होगी. तो सिर्फ राजनीतिज्ञों के लिए ही छूट क्यों ली जा रही है? हालांकि सभी क्षेत्रों में आरक्षण की व्यवस्था है.

ये भी गौर करने वाली बात है कि कैसे लोग हमारे लोकतंत्र में प्रतिनिधि बन रहे हैं, ये 'कास्ट' से ज़्यादा 'क्लास' निर्धारित करती है. पैसे वाला ही चुनाव लड़ पा रहा है. टिकट उसी को मिल पा रही है या किसी नेता के बहुत खास व्यक्ति को. रिश्तेदार तो पहली पसंद हैं ही. सहानुभूति पैदा करने के लिए एक और आयाम दिखाया जाता है कि प्रत्याशी दलित है, पिछड़ा है, मुस्लिम है. उसका कम पढ़ा-लिखा होना जायज़ ठहराने की कोशिश भी होती है. याद कीजिये कि आज कितने ऐसे राजनेता हैं जो सच में दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक की जिन्दगी जी रहे हैं. उत्तर प्रदेश चुनावों में पहले चरण में 231 करोड़पति उम्मीदवार खड़े हुए. इनमें बसपा के 52 करोड़पति उम्मीदवार थे, 44 सपा+कांग्रेस के और इनमें मुस्लिम और पिछड़े और दलित सब हैं. सालों से आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों का रिकॉर्ड बनता आ रहा है और लगभग सभी दल ऐसे उम्मीदवारों का पार्टी में स्वागत करते हैं, फिर चाहे उस पार्टी की छवि गरीबों के रहनुमा की हो या दलितों/पिछड़ों/अल्पसंख्यकों के रहनुमा की.

बिहार के मंत्री तेजस्वी यादव को किस बात की कमी रह गई कि वो आठवीं तक ही पढ़ पाए. सिर्फ तेजस्वी यादव ही क्यों, और भी कई समृद्ध पृष्ठभूमि के प्रतिनिधि कम-पढ़े लिखे या अनपढ़ मिल जाएंगे. क्यों किसी पढ़े-लिखे दलित/पिछड़ी/गरीब पृष्ठभूमि के नौकरशाह को या कर्मचारी को मजबूर किया जाए कि वो ऐसे मंत्री/सांसद/विधायक के मातहत काम करे. जिस तरह के प्रतिनिधि हमें राज्य और केंद्र में मिल रहे हैं, उन्हें देखकर कतई नहीं लग रहा कि उन्हें दसवीं या बारहवीं पास भी नहीं होना चाहिए. किस हिसाब से कुछ लोगों को लग रहा है कि एक आम गरीब पिछड़ा व्यक्ति या आदिवासी आसानी से चुनाव लड़ने का अपना हक़ ले पा रहा है, जीत पा रहा है और उसके दसवीं पास होने की शर्त उसे रोक लेगी.

आज हर बसपा, सपा, जदयू, शिवसेना, बीजेपी आदि का उम्मीदवार सोशल मीडिया पर आने की कोशिश कर रहा है. राज्यसभा और लोकसभा में ज़्यादातर प्रतिनिधि  फिर ये कौनसी स्थिति की बात की जा रही है जहाँ पांचवी पास होना भी अनिवार्य नहीं हो सकता.
एक अजीब सा तर्क दिया जाता है कि किसी अनपढ़ ने भ्रष्टाचार नहीं किया. खैर, ये तो एक रिसर्च का विषय है. चलिए, मान लिया जाये कि पढ़े-लिखे लोग भ्रष्टाचार में लिप्त थे, लेकिन क्या भ्रष्टाचार करने की वजह उनका पढ़ा-लिखा होना है? दूसरा सवाल ये भी उठता है कि क्या अनपढ़ लोग भ्रष्टाचार पकड़ पाते हैं? उसे रोक पाएंगे?

Representation of the People Act, 1951 में संशोधन किया जा सकता है और न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता को शामिल किया जा सकता है लेकिन दिलचस्पी कोई नहीं ले रहा और ज़ाहिर है ग्राम पंचायत के चुनावी नियम की तमाम आलोचनाओं के बीच कोई दबाव भी बनाया नहीं जा रहा.

जब भी हम मुस्लिमों का जिक्र करते हैं तब हम उनकी शिक्षा के लिए बड़े फिक्रमंद हो जाते हैं. सच्चर कमिटी की रिपोर्ट को लागू करने की बात करते हैं. लेकिन मुसलमानों के प्रतिनिधि जब खुद शिक्षा को कुछ नहीं समझेंगे तब अपने समाज में बदलाव क्या लाएंगे. अम्बेडकर भी शिक्षित होकर ही दलितों का प्रतिनिधित्व बेहतर कर सके. सावित्रीबाई फुले क्यों शिक्षा के लिए लोगों का कीचड़ झेल रहीं थीं अगर देश को शिक्षित प्रतिनिधियों की ज़रुरत नहीं. चुनाव विश्लेषक मानते हैं कि राजनीतिक समझ होना एक अलग बात है, उसके लिए पढ़ा-लिखा होना ज़रूरी नहीं. लेकिन क्या सिर्फ वोट बटोरने तक की ही राजनीतिक समझ ज़रूरी है? गवर्नेंस के बारे में क्या ख्याल है!


(सर्वप्रिया सांगवान एनडीटीवी में एडिटोरियल प्रोड्यूसर हैं)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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