राजनीति जब इतिहास की गलियों में उतरती है तो बहुत कीचड़ पैदा करती है. वह अपने तात्कालिक इरादों को इतिहास के तथ्यों पर थोपने की कोशिश करती है और जब पाती है कि इतिहास उसके खयालों और प्रस्तावों की तस्दीक नहीं कर रहा है तो अपनी ज़रूरत के हिसाब से उसे सिकोड़ने या फैलाने में लग जाती है.
लोकसभा में नागरिकता संशोधन बिल पर चल रही बहस के दौरान जब बीजेपी अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह ने भारत-विभाजन के गुनाह के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराना शुरू किया तो दरअसल वे इतिहास के साथ यही खिलवाड़ कर रहे थे- एक मायने में यह उस भारतीय राष्ट्र राज्य की अवधारणा से विश्वासघात भी था जो आजादी की लड़ाई के दौरान इस देश ने गढ़ी और जिसके पीछे कम से कम हज़ार साल की परंपरा का बल था.
दरअसल भारत विभाजन के गुनहगारों को पहचानना बहुत मुश्किल नहीं है. निस्संदेह इन गुनहगारों में मुस्लिम लीग एक है. लेकिन वह अकेली गुनहगार नहीं है. बीजेपी कभी-कभार जिन राम मनोहर लोहिया को उद्धृत करती है, उन्होंने अपनी किताब 'भारत विभाजन के गुनहगार' में बंटवारे की जो आठ वजहें गिनाई हैं, उनमें दूसरे नंबर पर कांग्रेस नेतृत्व का उतार है और आठवें नंबर पर हिंदू अहंकार. उनके शब्द थे- 'विभाजन के लिए कट्टर हिन्दूवाद का विरोध असल में अर्थहीन था, क्योंकि देश को विभाजित करने वाली प्रमुख शक्तियों में निश्चित रूप से कट्टर हिन्दूवाद भी एक शक्ति थी. यह उसी तरह थी जैसे हत्यारा, हत्या करने के बाद अपने गुनाह मानने से भागे. इस संबंध में कोई भूल या गलती न हो. अखण्ड भारत के लिए सबसे अधिक व उच्च स्वर में नारा लगाने वाले, वर्तमान जनसंघ और उसके पूर्व पक्षपाती जो हिन्दूवाद की भावना के अहिन्दू तत्त्व के थे, उन्होंने ब्रिटिश और मुस्लिम लीग की देश के विभाजन में सहायता की. एक राष्ट्र के अन्तर्गत मुसलमानों को हिन्दुओं के नजदीक लाने के संबंध में उन्होंने कुछ नहीं किया. उन्हें एक दूसरे से पृथक् रखने के लिए लगभग सब कुछ किया. ऐसी पृथक्ता ही विभाजन का मूल-कारण है. पृथक्ता की नीति को अंगीकार करना, साथ ही अखण्ड भारत की भी कल्पना करना अपने आप में घोस आत्मवंचना है.'
तो लोहिया ने जिस आत्मवंचना का ज़िक्र किया, वह आज भी जारी है. लेकिन लोहिया जिस समय का ज़िक्र कर रहे थे, वह आज़ादी से कुछ पहले का समय था. जबकि दो अलग राष्ट्रों की परिकल्पना के बीज बीसवीं सदी के शुरू में ही हिंदूवादी चिंतकों में दिखते हैं. जाने-माने क्रांतिकारी, समाज-सुधारक और राजनीतिक कार्यकर्ता भाई परमानंद ने अपनी किताब 'द स्टोरी ऑफ़ लाइफ' में इस बात का उल्लेख किया है कि उन्होंने बाकायदा दो अलग-अलग राष्ट्रों की कल्पना की थी. वे लिखते हैं कि लाला लाजपत राय ने उन्हें कई चिट्ठियां लिखी थीं जिनमें एक में पूछा था कि भविष्य में भारत का गठन कैसा होना चाहिए? इस सवाल के जवाब में भाई परमानंद ने कुछ पंक्तियां लिखीं. उनका मानना था कि सिंध के पार अफगानिस्तान और उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत तक एक विशाल मुस्लिम राज्य होना चाहिए. उनकी राय थी कि हिंदुओं को इस इलाक़े से निकल जाना चाहिए और बाकी क्षेत्र के मुसलमानों को वहां से निकल कर अपने इस इलाक़े में चले जाना चाहिए. हालांकि भाई परमानंद ने किताब में इन्हीं पंक्तियों के बीच स्वीकार किया है कि उन दिनों उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता की वैसी कल्पना नहीं की थी जो बाद में दिखी.
भाई परमानंद से आगे बढ़ें. अब इस बात को फिर से दुहराने का मतलब नहीं कि विनायक दामोदर सावरकर वे दूसरे हिंदूवादी नेता थे जिन्होंने द्विराष्ट्रवाद की परिकल्पना को आगे बढ़ाया था. उन्होंने अपने मशहूर लेख 'हिंदुत्व' में द्विराष्ट्रवाद की सैद्धांतिकी रखी. उनके एक साल बाद लाला लाजपत राय ने मुसलमानों के लिए अलग देश का नक़्शा खींच डाला.
सावरकर के लिए हिंदुत्व की कसौटी इतनी बड़ी थी कि उनके संगठन पर देश के सबसे बड़े हिंदू- महात्मा गांधी- की हत्या का इल्ज़ाम गया. खुद सावरकर इस मामले में आरोपी बनाए गए. उनको सबूतों के अभाव में छोड़ा गया. गांधी की हत्या में सावरकर की भूमिका अब लगभग सर्वज्ञात है, लेकिन कम लोगों को मालूम है कि सावरकर ने जिन्ना को भी मरवाने की कोशिश की थी. यह बात यशपाल ने अपनी आत्मकथा 'सिंहावलोकन' में विस्तार में लिखी है. यशपाल चंद्रशेखर आज़ाद के क्रांतिकारी दल के सदस्य थे. उन्होंने विस्तार में बताया है कि किस तरह सावरकर के बड़े भाई ने अकोला में उनसे कहा कि दुश्मन सिर्फ़ अंग्रेज़ नहीं, और भी लोग हैं. उन्होंने पेशकश की कि अगर यशपाल और उनके क्रांतिकारी सहयोगी मोहम्मद अली जिन्ना को मार दें तो वे उन्हें पचास हज़ार रुपये देंगे. संकट यह है कि इतिहास के मौजूदा विद्वान या तो गूगल के ज्ञान पर भरोसा करते हैं या फिर अंग्रेज़ों द्वारा अंग्रेज़ी में तैयार किए गए दस्तावेज़ों पर- एक हिंदी उपन्यासकार की बात उन्हें न तो मालूम होती है न सच्ची लगती है. यशपाल ने लिखा है कि चंद्रशेखर आज़ाद ने जब यह प्रस्ताव सुना तो नाराज़ होते हुए कहा कि सावरकर क्या उन्हें भाड़े के हत्यारे समझते हैं.
कहने की ज़रूरत नहीं कि इस द्विराष्ट्र सिद्धांत के दूसरे सिरे पर मुस्लिम बुद्धिजीवियों का एक धड़ा भी था जिनमें अल्लामा इकबाल जैसे शायर तक शामिल हो गए जिन्होंने 'सारे जहां से अच्छा' जैसा गीत लिखा जिसे हम अब भी दुहराते हैं. जिन्ना ने इसे राजनीतिक हक़ीक़त में बदल दिया. इत्तिफ़ाक से ये वही मोहम्मद अली जिन्ना थे जिन्हें सरोजिनी नाय़डू ने कभी हिंदू-मुस्लिम एकता का दूत कहा था. ये वही जिन्ना थे जो ख़िलाफ़त आंदोलन के ख़िलाफ़ थे क्योंकि उनका मानना था कि इससे मजहबी कट्टरता बढ़ेगी. फिर बीसवीं सदी के तीसरे दशक से ऐसा क्या हुआ कि जिन्ना धीरे-धीरे राजनीतिक तौर पर कट्टर मुसलमान होते चले गए?
इस सवाल का जवाब खोजते हुए अमित शाह की बात अंशतः सही मालूम होती है. कांग्रेस के बहुत सारे नेता उन दिनों हिंदू हितों के प्रवक्ता थे. लेकिन हिंदूवादी राजनीति और हिंदू हितों को बाकायदा एक सिद्धांत की तरह गूंथने और देश की आज़ादी की लड़ाई से बड़ा मानने का काम उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने किया जो 1925 में अस्तित्व में आया. यह बात कम हैरान नहीं करती है कि आरएसएस को अरसे तक इस देश की आज़ादी की लड़ाई से कोई मतलब नहीं रहा, बल्कि उसकी कोशिश इस लड़ाई को कमज़ोर करने की रही. आने वाले दिनों में जो हिंदू-मुस्लिम विभेद उभरा, जो दंगे देखने को मिले- जिसकी ओर डॉ लोहिया ने अपनी किताब में इशारा किया है- उसके पीछे संघ की यही नीति थी जिसे कांग्रेस के कई नेताओं का परोक्ष समर्थन हासिल था.
तो भारत विभाजन की असली गुनहगार वह विचारधारा थी जो हिंदू-मुस्लिम को अलग-अलग मानती थी और जिसका फायदा अंग्रेज़ों ने उठाया. फिर यही विचारधारा है जो मानती है कि धर्म के आधार पर बंटवारा हुआ और भारत-पाकिस्तान बंटे. लेकिन फिर यह एक दुर्व्याख्या है कि पाकिस्तान मुसलमानों के लिए बना और भारत हिंदुओं के लिए. सच यह है कि पाकिस्तान उन लोगों के लिए बना जो मानते थे कि धर्म के आधार पर देश का बंटवारा होना चाहिए और भारत उन लोगों का था जो मानते थे कि धार्मिक आधार पर देश नहीं बंटना चाहिए. बेशक दोनों जगहों पर सांप्रदायिक शक्तियां अपना खुला खेल खेलती रहीं और इसलिए बहुत सारे ऐसे लोग भी अपने-अपने मुल्क छोड़ने को मजबूर हुए जिन्हें ऐसा विभाजन मंज़ूर नहीं था.
इतिहास की यह भीषणतम त्रासदी इसलिए लगातार बड़ी होती गई कि इस देश में लगातार वे संगठन मज़बूत होते गए जिन्होंने धार्मिक भेदभाव और सांप्रदायिक तनाव को बढावा दिया. आजादी के बाद के भारत को नागरिक समता के अधिकार पर जितना संवेदनशील होना चाहिए था, उतना वह नहीं हुआ- यह एक बड़ी सच्चाई है और इसके लिए फिर कांग्रेस की बहुत सारी सरकारों को भी ज़िम्मेदार ठहराना होगा. यह भी दुहराना होगा कि भारत ने आजा़दी की लड़ाई के दौरान अपना जो अनूठा समावेशी राष्ट्रवाद विकसित किया और जिसके तहत एक समावेशी स्वप्न वाला संविधान बनाया, उसको मज़बूत करने का काम जिस तरह होना चाहिए था, उस तरह कांग्रेस ने नहीं किया.
लेकिन आज जो शक्तियां नया भारत बनाना चाहती हैं वे आज़ादी की विरासत के साथ ज़्यादा बड़ा धोखा कर रही हैं. वे हिंदुस्तान के एक हज़ार साल के इतिहास को मिटा कर उसे उसके पीछे ले जाना चाहती हैं. न वैज्ञानिक तौर पर यह संभव है और न ऐतिहासिक तौर पर. इसलिए यह कोशिश ऐसा कटा-छंटा विकृत मनोविज्ञान बना रही है जिसमें बात तो समन्वय की हो रही है, लेकिन काम वैमनस्य भरा हो रहा है. नागरिकता संशोधन बिल भी इसी मनोवृत्ति का हिस्सा है. पड़ोसी देशों में सताए जा रहे अल्पसंख्यकों के नाम पर वह देश के बहुत बडे समुदाय के भीतर यह एहसास भरा जा रहा है कि उन्हें पहले दर्जे का नागरिक नहीं माना जा रहा. बेशक, इस देश की अपनी परंपराएं और आज़ादी के बाद तमाम तरह की अराजकताओं और सामंती चलन के बावजूद धीरे-धीरे विकसित हो रहा इसका लोकतांत्रिक मिज़ाज इस विचारधारा को मजबूर करते हैं कि वह कम से कम बयानों के स्तर पर पूरी उदारता का प्रदर्शन करे. लेकिन ज़्यादा बडी सच्चाई यह है कि यह उदार परंपरा फिलहाल हारती लग रही है और इसके नतीजे इस देश के लिए ख़ासे नुक़सानदेह होंगे. बेशक, यह देश ऐसी ताकतों से कहीं ज़्यादा मज़बूत साबित होगा, लेकिन तब तक जो बहुत सारी खरोंचें दिलो-दिमाग़ पर पड़ चुकी होंगी, उनसे उबरने में वक्त लगेगा.
(प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...)
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