फास्ट ट्रैक कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जजों को अपने कोर्ट रूम में ताला लगाकर शिमला चले जाना चाहिए और वहां बादाम छुहाड़ा खाना चाहिए. क्योंकि उनका काम खत्म हो गया है. क्योंकि सोशल मीडिया से लेकर संविधान की शपथ लेकर सासंद बने और टीवी पर आने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने तेलंगाना पुलिस की एक असामाजिक करतूत को सही ठहरा दिया है. पुरुषों के अलावा बहुत सी महिलाएं भी उस पब्लिक ओपिनियन को बनाने में लगी हैं और अपने बनाए ओपिनियन की आड़ में इस एनकाउंटर को सही ठहरा रही हैं. यह वही पब्लिक ओपिनियन है जो अखलाक और इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह को सरेआम मारते समय एक तरह से सोचता है, भीड़ के साथ खड़ा हो जाता है और यह वही पब्लिक ओपिनियन है जो तेलंगाना पुलिस की एनकाउंटर को लेकर भीड़ बन जाता है. क्या पब्लिक ओपनियन अब अदालत है? तो फिर अदालतों को फैसले से पहले ट्विटर पर जाकर देखना चाहिए कि आज का ट्रेंड क्या है. सभी को पता है कि इस घटना को लेकर गुस्सा है. महिलाओं में गुस्सा है तो उस गुस्से में जगह बनाने के लिए महिला सांसद भी एनकाउंटर को सही बता रही हैं.
प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में झारखंड में शशिभूषण मेहता के लिए वोट मांगा था जिन पर एक महिला टीचर की हत्या का आरोप है और इस मामले में शशिभूषण मेहता ज़मानत पर हैं. क्या स्मृति ईरानी का गुस्सा वैसा ही होगा जैसा तेलंगाना मामले में था? क्या वो संसद से यह जानकर इस्तीफा दे देंगी? यह जानकर उनके सहयोगी सांसद साक्षी महाराज बलात्कार और हत्या के आरोपी विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को जन्मदिन पर शुभकामनाएं दे रहे हैं. बांगरमऊ से विधायक कुलदीप को बधाई देने के लिए मंत्रोच्चारण कर रहे हैं. तो तब और अब स्मृति ईरानी क्या कर लेंगी?
एक सांसद बलात्कार और हत्या के आरोपी के एनकाउंटर को सही ठहराती हैं और एक सांसद बलात्कार के आरोपी को जन्मदिन की मुबारकबाद देते हैं. एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार 19 सांसदों पर महिलाओं के प्रति हिंसा के आरोप हैं और तीन पर बलात्कार के आरोप हैं. क्या उनके लिए महिला सांसद लोकसभा या राज्यसभा के भीतर एनकाउंटर की मांग करेंगी? पूर्व गृह राज्य मंत्री और बीजेपी के पूर्व सासंद स्वामी चिन्मयानंद पर जब लड़की स्वामी पर बलात्कार और यौन शोषण के आरोप लगे तब भी क्या स्मृति ईरानी और जया बच्चन भादुड़ी को इतना गुस्सा आया था?
जो लोग अपनी ज़िम्मेदारियों में फेल हो गए वही पब्लिक ओपिनियन को हवा देकर रहे हैं. एक विचित्र तर्क दिया जा रहा है कि तेलंगाना एनकाउंटर को लेकर सिसायत बंद हो. मतलब सवाल न करें. एनकाउंटर पर सवाल करना सियासत है तो क्या हर एनकाउंटर के साथ यह बात लागू होगी कि हम सवाल नहीं करेंगे. जिस तेलंगाना पुलिस को लेकर सवाल उठ रहा था कि जब पीड़िता के परिवार वाले पुलिस के पास गए तो दो घंटे तक कुछ नहीं किया. कहा कि किसी दोस्त से मिलने भाग गई होगी. इस मामले में तीन पुलिस वाले सस्पेंड भी हुए थे. जिस पुलिस ने उसके पहले एक और घटना होने पर इलाके में सुरक्षा तेज़ नहीं की, यह भी हो सकता है कि उसके पास जांच और सुरक्षा के पर्याप्त संसाधन ही न हों, अब इन सारे सवालों को धकेलते हुए इस मामले को एनकाउंटर के जश्न पर खत्म किया जा रहा है. पुलिस महान बना दी गई है.
तेलंगाना पुलिस पर जो फूल बरसाए जा रहे हैं यह तस्वीर बता रही है कि आम जनता में न्याय व्यवस्था को लेकर समझ और भरोसा कितना कमज़ोर हो गया है. कानून का सिस्टम लंबा वक्त लेता है या काम नहीं करता है, इसके नाम पर एनकाउंटर की थ्योरी को बिना जांचे परखे स्वागत के कांड में बदल दिया गया है. कानून पर भरोसा भी नहीं और सख्त कानून की मांग भी. सख्त कानून तो है. निर्भया कांड के बाद जस्टिस वर्मा की कमेटी ने कितने उपाय बताए. निर्भया फंड बना जिसका पैसा खर्च नहीं हो सका. इन सब सवालों को हटा कर एक भीड़ बनाई गई है जो इस एनकाउंटर का स्वागत कर रही है. क्या वाकई इस कहानी पर कोई विश्वास कर रहा है कि जब पुलिस इन अपराधियों को लेकर सबूत इकट्ठे करने लगी तब इन लोगो ने पुलिस पर पत्थरों से हमला कर दिया. हथियार छीन लिए और सरेंडर नहीं किया तो गोली मार दी. क्या वाकई लोगों ने सोचना बंद कर दिया है कि फर्जी से लगने वाली इस कहानी पर फूल बरसा रहे हैं? जब सबूतों के आधार पर पुलिस ने इन्हें पकड़ा था तो इन पर आरोप साबित करने का प्रयास क्यों नहीं किया गया. क्या इसलिए एनकाउंटर किया गया कि पब्लिक ओपिनियन स्वागत करेगी. सांसद भी लोग स्वागत करेंगे.
पुलिस की हर थ्योरी पर सवाल उठ रहे हैं. पुलिस कहती है कि अपराधी अनुभवी थे उनसे हथियार छीन कर चलाने लगे. अनुभवी थे फिर भी किसी पुलिस वाले को गोली नहीं लगी. पुलिस की गोली से चारों के चार आरोपी मर गए. आरोपियों ने पत्थर से भी पुलिस पर हमला किया. दोनों घायल पुलिस वालों की मेडिकल बुलेटिन कहती है कि एक जवान के माथे पर कुछ ख़रोंचे आईं हैं. दूसरे के हाथ और कंधे पर गहरा ज़ख्म है. फिल्मों में भी अब ऐसी कहानी नहीं बनती है. दर्शक को पता चल जाता है. वे हंसने लगते हैं. कमिश्नर सज्जनार साहब जो कहानी बता रहे हैं जो सुनने में कहानी ही लगती है. एनकाउंटर के कई घंटे के बाद शवों को वहीं पड़े रहने दिया गया ताकि लोग आकर देखते रहें. एक पब्लिक ओपिनियन एनकाउंटर के फेवर में बने. पुलिस किसका इंतज़ार कर रही थी? आप इंटरनेट सर्च कीजिए. पुलिस की बनाई ऐसी कहानियों से आप सोचने के लिए मजबूर होंगे. ऐसे कई केस हैं जिसमें पुलिस ने इस तरह की कहानी बनाकर बेकसूर लोगों को मार दिया और उन्हें अपराधी बता दिया.
2009 में गाज़ियाबाद के एमबीए के छात्र रणबीर सिंह को देहरादूर के जंगलों में ले जाकर उत्तराखंड की पुलिस ने 29 गोलियां मारीं. कहा कि रणबीर सिंह फिरौती का काम करता था. 9 साल बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने 2018 में इस मामले में 7 पुलिस वालों को आजीवन सज़ा सुनाई थी. 1992 में पंजाब पुलिस ने 15 साल के एक लड़के का एंकाउंटर कर दिया. कहानी बनाई कि बच्चों ने 20 मिनट तक पुलिस पर फायरिंग की थी. 2018 में सीबीआई की अदालत ने इस एनकाउंटर को फर्जी पाया और पंजाब पुलिस के दो सिपाहियों को आजीवन कारावास की सज़ा दी.
नवंबर 1996 में यूपी पुलिस ने जलालुद्दीन, जसबीर, अशोक और प्रवेश को उठाकर एनकाउंटर कर दिया. बताया कि ये अपराधी थे. 2017 तक परिवार वालों ने केस लड़ा. सीबीआई कोर्ट ने चार पुलिस वालों को हत्या के मामले में दोषी पाया. एनकाउंटर फर्जी निकला.
जब कभी पुलिस एनकाउंटर की कहानी बनाए, हमेशा उस पर शक करना चाहिए और सवाल करना चाहिए. एनकाउंटर के मुकदमों के इतिहास यही कहते हैं. परिवारों ने 20-20 साल कोर्ट में मुकदमा लड़ा है. लड़कों की जान भी गई और उन पर अपराधी होने का झूठा दाग भी लगा. अभी हाल में छत्तीसगढ़ से रिटायर्ड जस्टिस अग्रवाल की रिपोर्ट आई कि 2012 में बस्तर में सीआरपीएफ और पुलिस ने 17 लोगों को फर्जी तरीके से नक्सल बताकर मार दिया था. इसमें छह बच्चे भी थे. जिस तरह नक्लसी को लेकर पब्लिक ओपनियन बना दिया जाता है उस तरह से तो इस हत्या को भी सही ठहरा दिया जाता. क्या फर्जी एनकाउंटर के लिए पुलिस के साथ एनकाउंटर का इंसाफ तय कर दिया जाए?
ठीक से सोचिए कि तेलंगाना पुलिस के एनकाउंटर को लेकर बहुत से लोग क्यों खुश हैं? अगर एनकाउंटर सही है तो फिर जस्टिस सिस्टम क्यों है? तो फिर क्या आप तैयार हैं कि पुलिस जो कहेगी उसे सही मानेंगे, उसके सामने कबूले गए अपराध को ही न्यायालय अंतिम नहीं मानती है? क्या आप भीड़ के साथ होने के लिए इस एनकाउंटर के साथ हैं, तो फिर 2017 में बलात्कार के 32 हज़ार से अधिक मामले दर्ज हुए थे. क्या सभी में एनकाउंटर की व्यवस्था कर दी जाए?
कई चर्चाओं में सुनने को मिला कि हैदराबाद में टोल के पास पुलिस की सुरक्षा पर्याप्त नहीं थी. वहां सीसीटीवी क्यों नहीं था. यह सवाल उठता है और बीच में गुम हो जाता है. बल्कि इसी सवाल को थोड़ी जगह देने की ज़रूरत थी. दुनिया में ऐसे कई शोध हो चुके हैं जो बताते हैं कि आधुनिक शहर के जो डिज़ाइन हैं वो भी महिलाओं या कमज़ोर के लिए असुरक्षा का माहौल बनाते हैं.
हैदराबाद के जिस जगह पर पीड़िता के साथ बलात्कार की घटना हुई और उसे जलाया गया वो जगह भी सुनसान थी. वहां आवाजाही कम थी. रौशनी कम थी. अब कई स्तरों पर अध्ययन बताता है कि डिज़ाइन ही इस तरह से किया जाए कि दूर दूर तक लोग नज़र न आएं. वहां फुटपाथ पर वेंडर न हो. केवल रास्ता हो ताकि आटोमोबिल यानि कारों के लिए सुपर फास्ट रास्ते हों. जेन जेकब ने एक किताब लिखी है the Death and Life of Great American Cities (1961) इनका कहना है कि शहरों को लोगों के हिसाब से नहीं बनाया गया है. इस तरह बनाया गया कि दूर दूर तक लोग न दिखें. सारी जगहें आटोमोबिल के हिसाब से बनाई जा रही हैं. ऑटोमोबिल ने शहरों को बर्बाद कर दिया. इस कारण असुरक्षित कोने बनने लग जाते हैं. इस लिहाज से आप घटना स्थल को देखें और समझें. यहां केवल गाड़ियों के रास्ते हैं. आदमी के आने जाने की सुविधा नहीं है. इस तरह से डिज़ाइन ही होते हैं कि दूर दूर तक इलाका निर्जन नज़र आने लगे. अब जब एनकाउंटर के बाद यहां इतने लोग देखते हैं, तब लोग नज़र आ रहे थे. लोगों के नज़र आने की संभावना क्या हर वक्त होगी? पता कीजिए जवाब ना में मिलेगा. अगर लोगों से जोड़ कर सड़कें बनी होती हैं तो अपराध कम होता. लेकिन इस सवाल का जवाब आसानी से नहीं मिलेगा. मिलेगा तो आपको यकीन नहीं होगा कि अमल भी होगा. एक स्ट्रीट लाइट लगा देने से अपराध में फर्क पड़ जाता है लेकिन कितने ऐसे शहर हैं जहां स्ट्रीट लाइट लगी होती है.
इसलिए आप फांसी की सज़ा मांगने लगते हैं, जानते हुए भी कि मौत सज़ा नहीं है. अब फांसी की सज़ा मांगते मांगते एनकाउंटर पर ताली बजा रहे हैं जानते हुए कि ज़्यादातर एनकाउंटर फर्जी होते हैं. यह छूट आपने राज्य सरकार को दे दी तो कल किसी को उठाकर पुलिस एनकाउंटर कर देगी तो फिर आप किस समाज और संस्थान के पास इंसाफ के लिए जाएंगे. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने एनकाउंटर को लेकर गाइडलाइन जारी की थी. 16 बिन्दु के दिशानिर्देश हैं. कुछ इस प्रकार हैं...
- एनकाउंटर के बाद मामले की एफआईआर दर्ज होगी और इलाके से संबंधित कोर्ट भेजी जाएगी
- एसपी रैंक के अधिकारी जांच करेंगे और जांच साइंटफिक होगी
- एनकाउंटर की मजिस्ट्रेट से जांच होगी
- दो डाक्टरों की टीम मारे गए लोगों का पोस्टमार्टम करेगी
- जब तक जांच पूरी नहीं होती, एनकाउंटर में शामिल पुलिस टीम को बारी से पहले तरक्की नहीं मिलेगी
बारी से पहले तरक्की नहीं मिलेगी. कई बार एनकाउंटर इसलिए भी हो जाते हैं ताकि प्रमोशन मिल जाए. उन्नाव में बलात्कार की पीड़िता कोर्ट जा रही थी. रास्ते में उसे जला दिया गया. पुलिस ऐसी पीड़िताओं को सुरक्षा नहीं देगी बल्कि कई बार बलात्कार के आरोपियों के पक्ष में ही खड़ी नज़र आती है, उस पुलिस को कैसे काम करना चाहिए इसके लिए सिस्टम होना चाहिए या एनकाउंटर की छूट ये आप ठीक से सोच लें. अगर ये रूटीन बन गया तो कौन मारा जाएगा यह भी सोच लीजिए. ग़रीब मारे जाएंगे. कुलदीप सिंह सेंगर जैसे लोग पैसे देकर छूटते जाएंगे.
आप ट्विटर पर जाकर केवल उन लोगों के ट्वीट देख लें जो तेलंगाना पुलिस के एनकाउंटर को सपोर्ट कर रहे हैं. बिना तथ्यों को जाने सुबह से ही व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी में मैसेज चलने लगा कि क्या आप एनकाउंटर के सपोर्ट में हैं अगर नहीं तो आप बलात्कारियों के सपोर्ट में है. एनकाउंटर को गलत कहने का यह बिल्कुल मतलब नहीं है कि कोई बलात्कारियों के सपोर्ट में है. आखिर पुलिस अपने जांच के दम पर, क्यों नहीं साबित कर सकती है? हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि हर ज़िले में फोरेंसिक लैब बने. सिस्टम बनाने के सारे सवाल पीछे चले गए. एनकाउंटर पर जयकारे लगवाए जा रहे हैं ताकि लोगों में संदेश जाए कि बड़ा भारी काम हुआ है.
इसी अगस्त महीने में द हिन्दू अखबार में अरुणाभ कौल ने फास्ट ट्रैक कोर्ट का विश्लेषण किया था. स्मृति ईरानी ने राज्यसभा में कहा था कि 2250 करोड़ खर्च कर देश भर में 1023 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाया जाएगा ताकि बच्चों के साथ यौन हिंसा के केस के मामलों की सुनवाई जल्दी हो सके. सुप्रीम कोर्ट ने भी उसी दौरान आदेश दिया था कि जहां भी पोक्सो के 100 से अधिक केस लंबित हैं, वहां पर स्पेशल कोर्ट बनना चाहिए और हर ज़िले में फोरेंसिक लैब बनना चाहिए. 2000 से लेकर अब तक देश भर में 581 फास्ट ट्रैक कोर्ट खोले जा चुके हैं जहां 5 लाख 90 हज़ार केस लंबित हैं. ये फास्ट ट्रैक कोर्ट का हाल है. यूपी में सबसे ज़्यादा केस लंबित हैं. रविशंकर प्रसाद ने संसद में बताया है कि आधे से अधिक राज्यों में जैसे कर्नाटक, गुजरात और मध्य प्रदेश में फास्ट ट्रैक कोर्ट ही नहीं है. दिल्ली के नेशनल ला यूनिवर्सिटी ने फास्ट ट्रैक कोर्ट ने एक सर्वे किया था. कई कोर्ट में पीड़िता के ऑडियो वीडियो रिकॉर्डिंग की व्यवस्था नहीं थी तो किसी में रेगुलर स्टाफ तक नहीं था. ये द हिन्दी की रिपोर्ट है. न पुलिस का सिस्टम ठीक है और न कोर्ट का, लेकिन इसी खराब सिस्टम ने कई ऐसे फैसले दिए हैं जिनमें जांच के बाद अपराधियों को सज़ा दी गई है.
मुमकिन है कोर्ट ने लोगों को फेल किया है. पुलिस ने लोगों को फेल किया लेकिन इसके बाद भी भीड़ की हिंसा और एनकाउंटर समाधान नहीं हैं. फिर भी भीड़ की तरह सोचना बंद कीजिए. नागरिक की तरह सोचिए. यह आधार बिल्कुल नहीं हो सकता है कि सभी राजनीतिक दल के सांसद समर्थन कर रहे हैं? आप खुद भी सोचिए आप पुलिस को लाइसेंस दे रहे हैं कि वह आपके घरों में घुसे और मार कर चली जाए. आपने छत्तीसगढ़ में देखा कि फर्जी तरीके से बच्चों तक को नक्सली बताकर मार दिया गया. 2016 और 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई से कहा था कि मणिपुर में एनकाउंटर के 1528 केस में जांच की जाए. जांच शुरू हो गई है. 2018 में सेना के 700 अधिकारियों ने पत्र लिखा कि सेना का मनोबल गिरेगा तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मनोबल गिरने का कोई तुक नहीं है. इसे सपोर्ट करने के लिए कोई सामग्री नहीं है. मनोबल गिरेगा तो उनकी कमज़ोरी है. एनकाउंटर के समर्थन में खड़े होने पुलिस को ही नहीं, उस भीड़ को भी लाइसेंस देना है जो ऐसे आरोप के नाम पर किसी को मार सकती है. यूपी के चित्रकूट में एक शादी में जब डांसर ने डांस बंद कर दिया तो एक दबंग ने नाराज़ होकर डांसर को गोली मार दी. उसका पूरा जबड़ा उड़ गया. जब तक हम इस संस्कृति, सोच का इलाज नहीं करेंगे, एनकाउंटर या मॉब लिचिंग से महिलाओं के प्रति हिंसा का इलाज नहीं होने वाला है.