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This Article is From Sep 05, 2017

सीखा उनसे भी जा सकता है, जिन्हें हम बुरा कहते हैं...

Vivek Rastogi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    September 05, 2017 11:47 IST
    • Published On September 05, 2017 11:47 IST
    • Last Updated On September 05, 2017 11:47 IST
शिक्षक दिवस पर आज अपने सभी शिक्षकों को याद कर रहा हूं, क्योंकि हमेशा से मानता रहा हूं कि आज जो कुछ भी हूं, उसमें मेरे माता-पिता के बाद सबसे ज़्यादा योगदान मेरे शिक्षकों का ही है... उम्र के इस पड़ाव पर आकर अपने से छोटों से बात करते हुए अक्सर महसूस करता हूं, मैंने अपने जीवन में बहुत कुछ सीखा है, लेकिन हमेशा यह भी लगता है, बहुत कुछ सीखना बाकी है...

इसके बावजूद आज दिल कर रहा है कि आप सभी से कुछ ऐसा कहूं, जो मेरे विचार से सभी के काम आ सकता है... आजकल हम देख रहे हैं कि लोग किसी के बारे में भी बेहद आसानी से राय बना लिया करते हैं, और फिर उसी आधार पर अपना व्यवहार तय किया करते हैं, लेकिन मेरे अनुभव के अनुसार यहां सबसे ज़्यादा ज़रूरी बात यह है कि किसी के लिए भी राय बनाने से पहले काफी कुछ सोचा जाना आवश्यक है, वरना किसी को भी परखने में भूल हो सकती है, और उस परिस्थिति में हम वह सब नहीं सीख पाएंगे, जो उस शख्स से सीखा जा सकता है...

वैसे ये सब बातें मैं पहले भी इसी सेक्शन में लगभग 10 साल पहले कर चुका हूं, लेकिन फिर भी शिक्षक दिवस होने के नाते लग रहा है कि दोबारा इसे दोहराने से कोई नुकसान नहीं, क्योंकि 10 साल में दुनिया बहुत बदल चुकी है, लोग भी, और उनकी सोच भी...

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अब देखिए, मेरी पैदाइश इसी शहर दिल्ली की है, और यहीं मैं पला-बढ़ा... इसी शहर में मैंने अच्छे दोस्त बनाए, और इसी शहर में मुझे कई लोग ऐसे भी मिले, जो मुझे कतई पसंद नहीं आए... लेकिन कुछ देर भी गंभीरता से सोचता हूं तो एहसास होता है कि किसी का हमें पसंद या नापसंद आना सिर्फ उसके अच्छे या बुरे होने पर नहीं, हमारी सोच पर निर्भर करता है... आखिर जिन्हें मैं बुरा समझता हूं, उनके भी कुछ दोस्त तो हैं ही, उनके परिवार के लोग तो उन्हें प्यार करते ही हैं... सो, कहीं न कहीं उनमें कुछ गुण या अच्छाइयां होंगी ही, सो, सिखाने के लिए उनके पास भी कुछ तो है ही...

सो, एक फलसफा मैंने सीखा है - कोई भी सिर्फ भला या सिर्फ बुरा नहीं हो सकता... आखिर राष्ट्रपिता होने के बावजूद महात्मा गांधी या अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में शुमार किए जाने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू में कमियां निकालने वाले और उन्हें कोसने वाले आज भी मिल जाते हैं, जबकि मिलना-देखना तो दूर, कभी ढंग से जाना भी नहीं होगा कोसने वालों ने इन शीर्ष नेताओं को... गांधी-नेहरू के फैसलों की आलोचना करने वाले एक बार भी यह नहीं सोचते कि गांधी-नेहरू ऐसे फैसले करने की स्थिति में क्यों और कैसे पहुंचे, क्यों वे इतने लोकप्रिय हुए... यदि वे सही और लोकप्रिय फैसले करने में अक्षम होते तो उनके पीछे चलने वालों की तादाद उतनी कैसे हो जाती... और हां, यदि आलोचना करने वाले उनके स्थान पर होते तो क्या फैसला करते और उन फैसलों के क्या परिणाम होते...

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सोच भी माहौल और परिस्थितियों के साथ बदलती है, तो शायद उस काल में वैसी ही सोच वाले लोग ज़्यादा थे, जैसी गांधी-नेहरू की थी, सो, इसीलिए उनके चाहने वाले इतने थे... सो, मेरा निष्कर्ष कहता है, गांधी-नेहरू ने जो ठीक समझा, कर दिया, और बहुमत ने उसे स्वीकार भी कर लिया... जिन्हें उनका किया ठीक लगा, वे उन्हें महान कहते रहे, उनके पीछे चलते रहे... अब अगर आप उन्हें सही नहीं मान सकते, मत मानिए, लेकिन जब तक आप खुद कुछ ठीक करने लायक नहीं हो जाएं और लोगों को आपके फैसले कबूल करने लायक माहौल न बना लें, गांधी-नेहरू के फैसलों पर रोना बंद कर दीजिए...

खैर, बात कहीं से कहीं पहुंचती जा रही है... इस चर्चा का असली मुद्दा था, अच्छा और बुरा... अब इसी बात का एक और पहलू... गांधी-नेहरू की आलोचना करने वालो में कुछ ऐसे लोग भी शामिल हो सकते हैं, जिनके पीछे चलने वाले काफी बड़ी संख्या में हों, अर्थात पीछे चलने वालों की निगाह में गांधी-नेहरू के आलोचक भी अच्छे हैं... सो, हम फिर वहीं पहुंच गए - सभी अच्छे हैं, सभी बुरे... सभी बुरे हैं, सभी अच्छे...

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चलिए, नेताओं को छोड़िए, भगवानों को लीजिए... सृष्टि के रचयिता, पालक और संहारक कहे जाने वाले ब्रह्मा, विष्णु और महेश के भी शत्रु रहे हैं, सो, शत्रुओं की निगाह में भगवान भी बुरे हैं... भगवान विष्णु की बात करते हैं, जिनके नौ अवतार क्रमशः मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण और बुद्ध हो चुके हैं और दसवें कल्कि का अवतरित होना शेष है... उनके कई अवतारों ने किसी न किसी अत्याचारी का नाश किया, लेकिन दूसरा पहलू यह है कि वे अत्याचारी भी किसी न किसी को तो प्रिय थे ही, चाहे वह उनका परिवार ही क्यों न हो...

भगवान कृष्ण ने अपने मामा कंस को मारा और कौरवों का नाश करवाया, लेकिन क्या कंस और कौरवों को प्यार करने वाला कोई नहीं था... इसी कथा का दूसरा पहलू यह है कि कुरुक्षेत्र में महाभारत के युद्ध के दौरान भगवान कृष्ण की सलाह से ही कौरवों के अतिरिक्त पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य जैसे आदरणीय गुरुजन भी मारे गए, जिन्हें बुरा तो उनका वध करने वाले भी नहीं कह सकते थे... तो क्या 'सिर्फ अच्छे' की श्रेणी में रखे जाने योग्य भीष्म, द्रोण तथा कृपाचार्य को मारने वाले कृष्ण और अर्जुन को हम बुरा कहें... नहीं, क्योंकि एक तर्क यह भी है कि वे सब 'गलत' का साथ दे रहे थे, इसलिए 'बुरे' ही थे... लेकिन असली बात फिर वहीं पहुंच गई - 'अच्छा' या 'बुरा' तर्कों या सोच से तय होता है...

चलिए, अब भगवान राम की बात करते हैं... लंकाधिपति रावण से चल रहे युद्ध के दौरान लक्ष्मण को इंद्रजित मेघनाद का वध करने भेजा गया था... कुछ उपन्यासों के अनुसार उस समय मेघनाद निहत्था पूजा कर रहा था... क्या इस तरीके से किसी योद्धा का वध करने वाला 'अच्छा' कहा जाएगा... लेकिन एक तर्क यहां भी दिया जाता है - 'बुरे' को खत्म करने के लिए छल का प्रयोग उचित है...

बहरहाल, रावण की ही एक कथा और - युद्ध से पहले, जब राम समुद्र पर पुल बनाने जा रहे थे, एक यज्ञ करवाया गया... अब कुछ कथाओं के मुताबिक वह यज्ञ करवाने के लिए रावण स्वयं वहां आया और पुरोहित की भूमिका निभाई... यही नहीं, कुछ स्थानों पर ऐसा भी कहा जाता है कि उक्त यज्ञ के लिए रावण अपहृत सीता को भी साथ लेकर आया था, क्योंकि कोई भी विवाहित पुरुष पूजा अथवा यज्ञ की वेदी पर अकेला बैठे, तो मनोरथ सफल नहीं होता... अब ऐसी उदारता दिखाने वाले शत्रु रावण को 'सिर्फ बुरा' कैसे कहा जा सकता है...

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आचार्य चतुरसेन द्वारा रचित बहुचर्चित उपन्यास 'वयम् रक्षामः' तथा पंडित मदन मोहन शर्मा शाही द्वारा तीन खंडों में रचित उपन्यास 'लंकेश्वर' के अनुसार, शिव का परम भक्त, यम और सूर्य तक को अपना प्रताप झेलने के लिए विवश कर देने वाला, प्रकांड विद्वान, सभी जातियों को समान मानते हुए भेदभावरहित समाज की स्थापना करने वाला, आर्यों की भोग-विलास वाली 'यक्ष' संस्कृति से अलग सभी की रक्षा करने के लिए 'रक्ष' संस्कृति की स्थापना करने वाला लंकेश 'सिर्फ बुरा' कैसे कहा जा सकता है...

कहा जाता है, युद्ध के उपरांत भगवान राम ने दीक्षा लेने के लिए अपने अनुज लक्ष्मण को मरणासन्न रावण के पास भेजा था, क्योंकि वह चाहते थे कि रावण के अतुलनीय ज्ञान का लाभ उठाया जाना चाहिेए, सो, भगवान ने भी बुराइयों के बीच अच्छाई को देखा और उसे स्वीकार किया, और उससे सीखने की चेष्टा की...

दूसरी ओर, मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले भगवान राम ने ही सिर्फ राजा का धर्म निभाने के लिए एक व्यक्ति (धोबी) की टिप्पणी के बाद अग्निपरीक्षा तक 'उत्तीर्ण' कर चुकी अपनी गर्भवती पत्नी को जंगल में छुड़वा दिया था... क्या राजा का धर्म निभाने के लिए पति का धर्म भुला देना उचित है... क्या ऐसा करने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम को कुछ लोग 'सिर्फ अच्छा' कहेंगे...

बात सचमुच बहुत दूर तक चली आई है, लेकिन मेरी समझ से सार अब भी वही है... सो, यह सब आपसे कह देने के बाद मैं आप लोगों से उम्मीद करूंगा कि आप भी इन बातों पर कम से कम एक बार गंभीरता से विचार ज़रूर करें, और किसी को भी बुरा कहने से पहले उसके गुण, अच्छाइयां भी याद कर लें, क्योंकि भगवान रामचंद्र का विरोधी और शत्रु होने के बावजूद रावण 'सिर्फ बुरा' ही नहीं था...

विवेक रस्तोगी Khabar.NDTV.com के संपादक हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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