पिछले आठ वर्षों से ऑफिस आते-जाते वक्त इन महिलाओं पर मेरी पड़ती रही है, जो कि एक मंदिर के सामने बैठी रहती हैं। कभी बात करते हुए तो कभी ग़ुस्सा करते हुए, कभी नाराज़ होते हुए, तो कभी रोते हुए। इन आठ वर्षों में मुझे कभी मौका नहीं मिला कि मैं उनके पास जाऊं, उनसे बात करूं और उनकी दुनिया के बारे में जानने की कोशिश करूं, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया, क्योंकि मैं अपनी दुनिया में खोया रहता हूं।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर मंगलवार को सुबह से लोगों को शुभकामनाएं देते हुए देखा। संसद में भी महिलाओं के लिए कुछ खास किया गया। कई जगहों पर महिला अधिकारों को लेकर बहस भी चल रही थी। इस मौके पर मैंने भी सोचा कि इन महिलाओं से मिला जाए। यह जो दो महिलाओं को आप देख रहें हैं, इनमे से एक का नाम कल्पना ठाकुर है। कल्पना पश्चिम बंगाल के मुर्शीदाबाद जिले की रहने वाली हैं। मां-बाप ने गोरखपुर जिले में शादी करवा दी, लेकिन जब पति की मौत हो गई तो ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया। फिर कल्पना को घर छोड़कर दिल्ली आना पड़ा और पिछले 20 साल से वह ऐसे ही रह रहीं है। मंदिर की दिवार ही उनका घर है। सुबह से शाम तक मंदिर के सामने बैठती हैं। दान में कुछ पैसा मिल जाता है, तो होटल से कुछ खरीदकर खा लेती है, अगर नहीं मिला तो खाली पेट ही सो जाती हैं।
दूसरे जो महिला हैं उनका नाम मैं नहीं जान पाया, क्योंकि वह सुन-बोल नहीं सकती। कल्पना को भी इनका नाम नहीं पता। पिछले 20 वर्षों से दोनों मंदिर के पास रहती हैं। कल्पना के दो बेटे भी हैं, एक बेटा दिल्ली में रहता है, उसका अपना दुकान है, ज्यादा दूर नहीं, बस पांच किलोमीटर के दायरे में रहता है। हालांकि यह दूरी भी मां से मिलने के लिए उसे ज्यादा लगती है और वह कभी उसका हालचाल लेने नहीं आता। दूसरा बेटा मुर्शिदाबाद में रहता है और उसने भी मां की मुसीबतों से मुंह फेर लिया है।
कल्पना को पता नहीं कि उनका भविष्य क्या है। जब वह और बूढ़ी हो जाएंगी तो क्या करेंगी, बीमार पड़ेंगी तो सेवा कौन करेगा, जब मर जायेगी तो श्मशान कौन ले जायेगा, बेटा मुख्याग्नि देगा भी या नहीं... ये बातें कल्पना को परेशान कर रही हैं।
यह सिर्फ एक की कहानी नहीं, देश के अंदर इस तरह की लाखों कहानियां हैं। ऐसी कहानियां हम लोगों को कभी विचलित नहीं करती, क्योंकि हम इसे सिर्फ कहानी के रूप में देखते हैं। इसके पीछे छिपे दर्द को समझ नहीं पाते हैं। लेकिन फिर भी हम महिला दिवस की बात करते हैं, एक दूसरे को सुभकामनाएं देते हैं, क्योंकि शायद महिला दिवस सिर्फ उनके लिए है, जो महिला दिवस को समझते हैं, जो पढ़े-लिखे हैं, जिनके पास संदेश भेजने के लिए मोबाइल है, जिनके पास सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने के लिए इंटरनेट है।
लेकिन क्या किसी लाचार महिला को देखकर हम उसकी परेशानी साझा करते हैं? क्या आज कोई ऐसी लाचार महिलाओं के पास गया होगा, और इन्हें शुभकामनाएं दिया होगा। उनसे पूछा होगा कि उनकी समस्या क्या है? शायद नहीं, न आप और न मैं, क्योंकि हमारे लिए महिला सिर्फ हमारी मां है, बहन है या दोस्त है, जिनको हम महिला दिवस पर सुभकामनाएं देते रहते हैं।